‘‘मोदी की गोदी मीडिया’’का बहिष्कार तो ठीक है,पर,
‘‘इंडिया’’ की ‘‘कंधा मीडिया’’ कितना कमाल करेगी ?
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सुरेंद्र किशोर
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कांग्रेसनीत ‘इंडी’ गठबंधन ने 14 टी.वी.न्यूज एंकरों के बहिष्कार का निर्णय किया है।
यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार है।
शम्भूनाथ शुक्ल ने विनोदवश ठीक ही लिखा है कि
‘‘अब पता चला कि गोदी मीडिया सिर्फ 14 हैं।’’
वैसे इंडी गठबंधन अगली किसी बैठक में यह भी तय कर सकता है कि उसके प्रेस कांफ्रंेस में प्रिंट मीडिया के किन -किन संवाददाताओं को न बुलाया जाए।
यह भी उनका अधिकार है।
जिन्हें न बुलाइएगा,उनको छोड़कर बाकी प्रिंट पत्रकारों पर आप गोदी मीडिया की तोहमत नहीं लगा पाएंगे।
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खैर, मनाइए कि केंद्र में कांग्रेस की बहुमत वाली सरकार अभी नहीं है।
और, अभी इमरजेंसी भी लागू नहीं है।(बाद में भी नहीं लागू होगी,उसकी कोई गारंटी नहीं।)
अन्यथा, न जाने कितने पत्रकार जेलों में होते,कितने पत्रकारों की सरकारी मान्यता रद हो जाती और न जाने कितने प्रकाशनों को जबरन बंद करा दिया गया होता।
क्योंकि एक राजनीतिक समूह का आज कुछ पत्रकारों पर गुस्सा उतना ही प्रबल है जितना इंदिरा कांग्रेस का आपातकाल में था।
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कांग्रेस की इमरजेंसी वाली मानसिकता अब भी कायम है।
वह मानसिकता क्या है ?
यही कि प्रथम परिवार कभी गलत नंहीं होता।
यह भी कि प्रथम परिवार किसी भी कानून से ऊपर है।
अब तो प्रथम परिवार व उनके के सहयोगी दल भी खुद को ‘इंडिया’ यानी देश का पर्यायवाची बता रहे हैं।
मोदी विरोधी गठबंधन का इंडिया नाम इसी मानसिकता के तहत पड़ा है।
याद करा दूं ,आपातकाल में कांग्रेस अध्यक्ष डी.के. बरूआ ने कहा था
‘‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा।’’
बरूआ जी ने तो एक अन्य अवसर पर यह भी कहा था कि ‘‘संजय गांधी हमारे नए शंकराचार्य और विवेकानंद हैं।’’
(जुलाई 1975)
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इमरजेंसी सिर्फ इसीलिए लगा दी गयी थी क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रथम परिवार को कानून से ऊपर समझने से इनकार कर दिया था।
यानी,चुनावी भ्रष्टाचरण के आरोप में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की लोक सभा की सदस्यता रद कर दी थी।
प्रधान मंत्री बने रहते हुए उस सदस्यता को फिर से पा लेने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून को ही बदल देना प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने जरूरी समझा था।
बिना इमरजेंसी लगाये,
बिना जेपी सहित हजारों नेताओं -कार्यकर्ताओं को जेलों में ठंूसे,
बिना पे्रस पर कठोर सेंसर लगाए और
बिना सुप्रीम कोर्ट को पूरी तरह काबू में किए यह संभव नहीं था।
आपातकाल (1975-77)में संसद ने जन प्रतिनिधित्व कानून की उन दो धाराओं को आवश्यकतानुसार बदल दिया जिनके तहत इंदिरा गांधी की सदस्यता गयी थी।
उन संशोधनों को पिछली तारीख से लागू कर दिया गया।
सामान्यतः कोई कानून पिछली तारीख से लागू नहीं होता।पर,उस पर भी सुप्रीम कोर्ट का ‘सुप्रीम मौन’ रहा।
याद रहे कि एटाॅर्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में कहा कि हमने जनता के जीने का अधिकार भी स्थगित कर दिया है।उस पर भी सुप्रीम कोर्ट मौन रहा था तब।हमने कैसे बर्बर काल खंड देखे हैं,उसकी कल्पना आज की पीढ़ी को नहीं है।
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इमरजेंसी में इंदिरा सरकार ने देश भर के 253 पत्रकारों को भी आंतरिक सुरक्षा कानून,भारतीय रक्षा कानून तथा अन्य दफाओं में गिरफ्तार करके जेलों में ठूंस दिया।
उनमें मध्य प्रदेश के 59 और बिहार के 12 पत्रकार शामिल थे।
मेरे जैसे कुछ पत्रकार अपनी फरारी में अपार कष्ट झेल रहे थेे। मेरे जैसे फरार लोगों को कोई शरण देने को भी तैयार नहीं था,मदद की बात कौन कहे !
अंग्रेजों की अपेक्षा तब अधिक क्रूर शासन इस देश ने देखा था।
जेल में बंद नेताओं से अदालत
में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका लगाने का भी अधिकर छीन लिया गया था।
इतनी कड़ाई अंग्रेजों ने भी नहीं की थी।
जेपी ने इंदिरा सरकार से कहा था कि वह मेरे साथ राजनीतिक सह बंदी रखने की व्यवस्था कर दीजिए।यह मांग भी नहीं मानी गयी।जबकि अंग्रेजों ने 1942 में जेल में लोहिया को जेपी के साथ रहने की अनुमति दे दी थी।
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इनके अलावा आपातकाल में देश-विदेश के 50 पत्रकारों की सरकारी मान्यता रद कर दी गयी थी।
जिन पत्रकारों की मान्यता रद कर दी गयी ,उनमें हिन्दुस्तान टाइम्स,टाइम्स आॅफ इंडिया,न्यूज एजेंसी ‘समाचार’,जर्मन रेडियो,न्यूजवीक,बी.बी.सी. सहित अनेक प्रतिष्ठित देशी-विदेशी समाचार संगठनों के पत्रकार शामिल थे।
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बाद में भी उसी प्रवृति के तहत मीडिया को कंट्रोल करने के लिए बिहार की डा.मिश्र सरकार और बाद में राजीव गांधी सरकार ने दमनात्मक प्रेस बिल लाया था।
जन दबाव के कारण वापस करना पड़ा।
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यह सब इस बात के बावजूद हुआ कि मीडिया का किसी को चुनाव जिताने और हराने में शायद ही कोई निर्णायक रोल होता है।
सन 1995 के बिहार विधान सभा चुनाव से ठीक पहले अधिकांश मीडिया लालू प्रसाद के खिलाफ था।
जहां तक मुझे याद है, सिर्फ सुरेंद्र प्रताप सिंह ने द टेलिग्राफ में साफ -साफ यह लिखा था कि लालू प्रसाद बहुमत के साथ विजयी होंगे।
वही हुआ भी।मीडिया के खिलाफ रहने का कोई प्रतिकूल असर लालू पर नहीं पड़ा।
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सन 1971 में मुख्य धारा का प्रेस तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ था।
फिर भी 1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा गांधी को पूर्ण बहुमत मिल गया।
पर,1977 में जब चुनाव हुआ तब मीडिया इमरजेंसी के सरकारी आतंक की छाया में दबा हुआ था।
इमरजेंसी के अभूतपूर्व-लोमहर्षक अत्याचारों की कोई चर्चा मीडिया में चुनाव के दौरान नहीं हुई थी।
इंदिरा गांधी ने उसे पालतू जो बना लिया था।
फिर भी 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की पार्टी बुरी तरह हारकर केंद्र की सत्ता से बाहर हो गयी।
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और अंत में
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इंडी गठबंधन ने जिन 14 टी.वी एंकरों को ‘मोदी की गोदी मीडिया’ माना,उन्हें बायकाॅट कर दिया।
पर,मीडिया के जिस हिस्से को ‘‘इंडिया’ की कंधा मीडिया’’ कई लोग मानते हैं,उनका साथ लेकर आप कितनी बड़ी चुनावी सफलता हासिल कर पाएंगे ?
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