रविवार, 17 सितंबर 2023

 गुट निरपेक्ष पुस्तक लेखकों से 

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सुरेंद्र किशोर

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1.-पुस्तक लेखन के लिए सिर्फ अखबारों की खबरों व लेखों पर भरोसा मत कीजिए।

ठीक ही कहा गया है कि अखबार रफ हिस्ट्री है।

2.-पुस्तक के लिए सामग्री जुटाने के सिलसिले में जिन जानकार लोगों से बात कीजिए,उनकी बातों को लिखकर उनसे बाद में उसकी पुष्टि करा लीजिए।

या फिर टेप रिकाॅर्डर का इस्तेमाल कीजिए।

यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मेरा अनुभव इस संबंध में बहुत खराब रहा है।

3.-कुछ अभियानी पुस्तक लेखकों की किताबों पर भी पूरा भरोसा मत कीजिए।

अन्यथा, आप अपनी किताब में लिख दीजिएगा कि इस देश की राजनीति में परिवारवाद की नींव ग्वालियर के सिंधिया राज परिवार ने डाली थी।

ऐसा लिख मारने वाले एक नेहरू भक्त की किताब मेरे पास है।

पर, मुझे उसका पेज नंबर याद नहीं अन्यथा उस अभियानी लेखक का नाम भी मैं यहां लिख देता।

  दरअसल उस अभियानी लेखक को इस तथ्य पर परदा डालना था कि मोतीलाल नेहरू ने सन 1928 में महात्मा गांधी को बारी -बारी से तीन चिट्ठियां लिखकर जवाहरलाल नेहरू को 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष बनवा दिया था।

दो चिट्ठियों पर गांधी राजी नहीं हुए थे।

तीसरी पर मान गए थे।

नेहरू म्यूजियम में मौजूद मोतीलाल नेहरू पेपर्स को नेहरू भक्त लेखक नजरअंदाज करते रहे हैं।

 वे तीन चिट्ठियां भी

मोतीलाल नेहरू पेपर्स का हिस्सा हंै।

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खैर, अब सन 2005 में एक अखबार में छपे एक लेख पर आते हैं।

आज उसकी कटिंग मेरे हाथ लग गयी।

एक प्रतिष्ठित लेखक ने उस अखबार में लिखा कि इस देश में ‘‘1967 में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं थी जो बिना विदेशी मदद के चुनाव मैदान में उतरी हो।

........विदेशी मदद की जांच के लिए तब संसदीय समिति बनी थी।

पर,उसकी रपट सार्वजनिक नहीं हुई।’’

ये दोनों बातें सरसर गलत हैं।

पर उस लेखक की अपने क्षेत्र में इतनी अधिक प्रतिष्ठा है कि कोई भी

पुस्तक लेखक उस लेख को अपनी किताब में उधृत कर देगा।

उस एक दल का नाम भी मुझे मालूम है।

पर मैं लिख दूंगा तो बाकी दल के नेता लोग मुझ पर नाहक नाराज हो जाएंगे।

उन्हीं दिनों के.जी.बी.के अधिकारी मित्रोखिन की चर्चित पुस्तक आई थी।

उस लेख की पृष्ठभूमि वही थी।

(याद रहे कि शीत युद्ध के जमाने में सी.आई.ए. और के.जी.बी. के पैसों पर अनेक भारतीय व संगठन पल रहे थे।) 

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हाल के दिनों में इस संबंध में सावधानी बरतने वाले एक लेखक मुझे मिले जिनमें किसी तथ्य पर शंका होने मूल स्त्रोत तक पहुंचने की बेचैनी रहती थी।

वे लेखक हैं--उदयकांत मिश्र।

उन्होंने नीतीश कुमार पर एक मोटी किताब लिखी है।

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अब मैं सन 1967 वाली बात पर आता हूं।

विदेशी चंदा के बारे में सन 1967 में तत्कालीन गृह मंत्री यशवंत राव बलवंत राव चव्हाण ने लोक सभा में कहा था कि 

‘‘इस देश के राजनीतिक दलों को  मिले  विदेशी चंदे के बारे में भारत के केंद्रीय गुप्तचर विभाग की रपट को प्रकाशित नहीं किया जाएगा।

क्योंकि इसके प्रकाशन से अनेक व्यक्तियों और दलों के हितों की हानि होगी।’’

(ध्यान दीजिए,किस तरह मंत्री जी ने प्रतिपक्ष को भी बचा लिया।

आज भी कांग्रेस यही चाहती है कि मोदी सरकार हमारे नेताओं पर केस न चलाएं ।हम भी सत्ता में आएंगे तो तुम लोगों को बचाते रहेंगे।

नरेंद्र मोदी सरकार से पहले की अधिकतर सरकारों ने बचने-बचाने की परंपरा लगभग जारी रखी थी।उसी परंपरा के तहत  अटल सरकार ने चर्चित बोफोर्स घोटाला केस में ‘‘प्रथम परिवार’’ को बचा लिया था।)

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सन 1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस हार गयी थी ।

  लोक सभा में भी कांग्रेस का बहुमत कम हो गया था।

तब तक लोक सभा व विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे।

इस अभूतपूर्व हार पर तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार चिंतित हो उठी।

पहले से ही उसे अपुष्ट खबर मिल रही थी कि इस चुनाव में विदेशी धन का इस्तेमाल हुआ है।

इंदिरा गांधी को लगा था कि विदेशी धन सिर्फ प्रतिपक्षी दलों को मिले। 

इंदिरा सरकार ने केंद्रीय गुप्तचर विभाग को इसकी जांच का भार दिया ।

जांच रपट सरकार को सौंप दी गयी।

पर, रपट को सरकार ने दबा दिया।(उन दिनों अपने देश के पत्रकार खबर खोजी नहीं थे या गोदी मीडिया की भूमिका निभा रहे थे ?!!!)

 इस बात के सबूत मिले थे कि कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने अमेरिका से तो उसी दल के कुछ दूसरे नेताओं ने सोवियत संघ से पैसे लिये थे।

पर, उस रपट को बाद में न्यूयार्क टाइम्स ने छाप दिया।

उस अखबार की रपट के अनुसार सिर्फ एक प्रमुख राजनीतिक दल को छोड़ कर  सभी प्रमुख दलों ने विदेशी चंदा स्वीकार किया था।उस खबर पर संसद में हंगामा हुआ।(जिस तरह नब्बे के दशक में जैन हवाला के पैसे कम्युनिस्टों को छोड़ कर सारे दलों ने बड़े नेताओं ने स्वीकार किए थे।)

  (मैंने ऊपर जिस प्रतिष्ठित लेखक के लेख (सन 2005)की चर्चा की है ,उस लेख में किसी दल को अपवाद नहीं बताया गया ।साथ ही उनकी यह बात भी गलत है कि उसकी जांच के लिए संसदीय समिति बनी थी।)

न्यूयार्क टाइम्स की इस सनसनीखेज रपट पर सन 1967 के प्रारंभ में  लोक सभा में गर्मागर्म चर्चा हुई।उस चर्चा की खबर तब की सर्वाधिक प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका ‘‘दिनमान’’ में भी छपी थी जिसकी काॅपी मेरे पास अब भी मौजूद है।

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सुरेंद्र किशोर

17 सितंबर 23

  


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