नेहरू ने जो आखिरी पुस्तक पढ़ी थी,उसका नाम था-
हेनरी फोर्ड लिखित-माई लाइफ एण्ड वर्क।
...............................
संजय गांधी ने नाना के सिरहाने से वह पुस्तक निकाल ली थी
----------------------
इस घटना का सन 1971 के मध्यावधि चुनाव से क्या संबंध था,यह जानने के लिए पढ़िए आज के दैनिक जागरण में छपा मेरा यह लेख
.......................................
स्वहित के आगे जनहित की चिंता करें दल
..............................
सुरेंद्र किशोर
..........................
वर्ष 1963 में प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जो आखिरी पुस्तक पढ़ी,वह हेनरी फोर्ड की ‘माई लाइफ एण्ड वर्क’ थी।
14 अक्तूबर, 1963 को प्रधान मंत्री ने उस व्यक्ति को पत्र लिखकर इसके लिए धन्यवाद दिया, जिसने उन्हें यह पुस्तक पढ़ने के लिए दी थी।
पत्र देखकर मुझे नेहरू का वह सद्व्यवहार अच्छा लगा।
आज तो आप किसी बड़े नेता को कोई किताब देंगे , तो वह न तो धन्यवाद देगा और न ही उसे पढ़ेगा।
अपवादों की बात अलग है।
बाद में संजय गांधी ने अपने नाना के सिरहाने से निकाल कर उस पुस्तक को चाव से पढ़ा।
इससे संभवतः उनमें भारत का हेनरी फोर्ड बनने की इच्छा जगी।
संजय की कोई भी इच्छा बड़ी प्रबल हुआ करती थी।
हेनरी फोर्ड अमेरिका के बहुत बड़े कार निर्माता थे।
लाल बहादुर शास्त्री सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी ने रोल्स रायस कारखाने में अप्रेंटिस के रूप में काम करने के लिए संजय गांधी को लंदन भेजा।
पूरा काम सीखने के बजाय संजय समय से पहले ही वापस आ गए।
इस बीच इंदिरा गांधी प्रधान मंत्री बन गई,ं
पर कांग्रेस के पुराने नेताओं और इंदिरा के बीच तनाव उत्पन्न हो गया।
राजनीतिक उथल-पुथल के बीच वर्ष 1969 में इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गई,क्योंकि कांग्रेस में विभाजन हो गया।
23 सांसदों वाली सी.पी.आई.और इतने ही सांसदों वाली द्रमुक के बाहरी समर्थन से इंदिरा गांधी की अल्पमत सरकार चलने लगी।
उन दिनों तक सोवियत संघ का अस्तित्व कायम था और उसी अनुपात में इस देश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की रौब -दाब भी ।
भाकपा के समर्थन से चल रही इंदिरा सरकार,सरकारी मदद से ऐसा कोई कारखाना नहीं लगवा सकती थी जिसके प्रबंध निदेशक संजय गांधी हों।
भाकपा की ओर से सरकार पर कुछ अन्य तरह के दबाव भी इंदिरा गांधी महसूस कर रही थीं।उससे वे चिंतित भी रहती थीं।
उधर कार कारखाने के काम को आगे बढ़ाने के लिए संजय गांधी का प्रधान मंत्री पर दबाव बढ़ता जा रहा था।
‘गरीबी हटाओ’ के नारे के कारण इंदिरा गांधी की लोकप्रियता बढ़ गयी थी।
उन्होंने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर और पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स एवं विशेषाधिकार समाप्त कर अपनी लोकप्रियता को
ठोस रूप दे दिया,लेकिन
इस लोकप्रियता के स्थायित्व को लेकर वह निश्चिंत नहीं थीं।
उन्होंने सोचा कि जल्द ही इस लोकप्रियता को वोट में बदल लेना है क्योंकि पता नहीं कल क्या हो ?
संभवतः इसीलिए इंदिरा गांधी ने समय से 14 महीना पहले ही लोक सभा चुनाव करवा दिए।
नतीजतन लोक सभा का चुनाव और विधान सभा चुनाव अलग -अलग होने की पृष्ठभूमि तैयार हो गई।
1967 तक दोनों चुनाव साथ-साथ होते थे।
1971 के मध्यावधि चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ने लोक सभा की 352 सीटों पर विजय प्राप्त की।
इसके पहले इंदिरा कांग्रेस के पास सिर्फ 228 सीटें थीं।
इस बड़ी जीत के बाद इंदिरा गांधी सरकार ने कौन सा पहला महत्वपूर्ण काम किया, खासकर समाजवादी कार्यक्रमों को लागू करने के लिए ?
यह शायद ही किसी को याद हो।
इतना अवश्य है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने जून, 1971 में मारुति मोटर्स लिमिटेड कारखाना स्थापित करने का निर्णय जरूर कर दिया।
इसके प्रबंध निदेशक संजय गांधी बनाए गए।
बाद में कारखाने को फायदा पहुंचाने के लिए सरकार ने क्या -क्या किया,वह सब इतिहास में दर्ज है।
निर्धारित समय से पहले ही लोक सभा चुनाव कराने की घोषणा के साथ इंदिरा गांधी ने देश को बताया था कि हमारी अल्पमत सरकार समाजवादी विकास के कार्यक्रमों को लागू करने में कठिनाई महसूस कर रही है,इसलिए समय से पूर्व चुनाव जरूरी है।
उन दिनों सवाल उठे थे कि क्या अपने पुत्र के लिए कार कारखाना स्थापित करना समाजवादी विकास का कार्य था ?
आज की कांग्रेस को चाहिए कि वह एक साथ चुनाव कराने की मोदी सरकार की पहल का समर्थन करे।
उससे वह 1970 -71 की कांग्रेस की गलती का प्रायश्चित करेगी।
यदि एक बार फिर लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होने लगें ,जैसा कि 1967 तक हुए,तो उससे न सिर्फ सरकार और दलों के हजारों करोड़ रुपए बचेंगे,बल्कि विकास के कार्यों में चुनाव आचार संहिता बाधा भी नहीं बनेगी।
सवाल है कि आज के कितने दल व नेता व्यापक जनहित की बातें सोचते हैं ?
संविधान निर्माताओं ने जब यह प्रावधान किया कि लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ होंगे तो उनके दिल - दिमाग में देश का व्यापक हित ही था।
1971 में उस क्रम के भंग हो जाने के बाद इस देश का बड़ा नुकसान हुआ है।
2014 के लोक सभा चुनाव में 30 हजार करोड़ रुपए तो 2019 के लोक सभा चुनाव में 60 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए।
इस बीच हुए विधान सभा चुनावों में कितने खर्च हुए होंगे, उसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
कई बार तो चुनावों के कारण बोर्ड की परीक्षाएं टालनी पड़ती हैं और प्रतियोगिता परीक्षाएं भी रोकनी पड़ती हैं।
अलग-अलग चुनावों के पक्षधर यह तर्क देते हैं कि मतदाताओं का मिजाज अलग होता है,इसलिए उन्हें
अलग से मतदान करने का अवसर मिलना चाहिए।
सन 1967 के चुनाव नतीजे इस तर्क की पुष्टि नहीं करते।
1967 में लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए ।
उस चुनाव के नतीजे कैसे थे ?
तब केंद्र में तो कांग्रेस को बहुमत मिल गया,पर सात राज्यों में वह हार गई।
एक ही राज्य के एक ही मतदाता ने लोक सभा के लिए कांग्रेस को मत दिया तो विधान सभा के लिए किसी अन्य दल को।
आज का मतदाता तो 1967 की अपेक्षा और भी सजग हो गया है।
1967 तक विधायक गण क्षेत्र में भ्रमण कर अपने लिए तो वोट मांगते ही थे,अपने दल के लोक सभा उम्मीदवार के लिए भी प्रचार
करते थे।
1975 में इमरजेंसी लगाने के पीछे भी इंदिरा गांधी का स्वहित ही था।
लोक सभा की उनकी
सदस्यता की पुनर्वापसी तभी संभव थी जब इमरजेंसी लगाकर चुनाव कानून को बदल दिया जाए और उसे पिछली तारीख से लागू कर दिया जाए।
उन्हें आपातकाल की भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी,क्योंकि उन्होंने जनहित की अनदेखी की।
आज जो दल एक साथ चुनाव की पहल का विरोध कर रहे हैं,वे स्वहित के आगे जनहित को अनदेखा करने का ही काम कर रहे हैं।
...................................
21 सितंबर 23
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें