टिकट का आधार परिवारवाद होने पर कैसे टिकेंगे कार्यकत्र्ता !-सुरेंद्र किशोर
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बिहार विधान सभा के आगामी चुनाव को लेकर एक खास संकेत मिल रहा है।
वह संकेत उम्मीदवारों को लेकर है।
राजनीति में परिवारवाद कोई नई बात नहीं है।
किंतु समय के साथ संख्या बढ़ती जा रही है।
जीवंत लोकतंत्र के लिए यह चिंताजनक स्थिति है।
संकेत हैं कि इस बार बिहार विधान सभा के चुनाव में विभिन्न दलों से जितनी संख्या में वंशज व परिजन उतरेंगे,वह एक रिकाॅर्ड होगा।
इस बीच कांग्रेस के प्रमुख नेता आंनद शर्मा ने भी अपने कमजोर होते दल के बारे में कहा है कि ‘‘बड़े नेताओं के बच्चों और पैसे वालों का संगठन पर कब्जा होता जा रहा है।
सवाल है कि कांग्रेस ने जो बोया,वही तो काट रही है !
कांग्रेस में वंशवाद आजादी की लड़ाई के दिनों से ही शुरू हो गया था।
आजादी के बाद उसका विस्तार होता चला गया।पहले शीर्ष स्तर पर वंशवाद-परिवारवाद था।
अब निचले स्तर पर भी यह बीमारी घर कर गई है।इस कारण भी कांग्रेस कमजोर होती जा रही है।जब सांसद के पुत्र व विधायक के परिजन ही टिकट पाएंगे तो आम राजनीतिक कार्यकत्र्ता किस उम्मीद में दल में बने रहेंगे।
अन्य अनेक दलों को भी वंशवाद और परिवारवाद धीरे -धीरे घुन की तरह खा रहा है।पर कोई चेत नहीं रहा है।
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फिल्म सेंसर नियमों को लागू करना जरूरी
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सेंट्रल बोर्ड आॅफ फिल्म सर्टिफिकेशन यानी फिल्म सेंसर बोर्ड के कुछ कड़े नियम हैं।
यदि उन नियमों का पालन होने लगे तो उससे न सिर्फ फिल्मों को लोगबाग परिवार के साथ बैठकर देख सकेंगे बल्कि फिल्मी जगत में भी सुधार होगा।
पचास-साठ के दशकों में शालीन व सोद्दश्य फिल्में बनती थीं।
क्योंकि, फिल्म सेंसर बोर्ड के सदस्य आम तौर से नियमानुसार प्रमाणपत्र देते थे।
आज क्या करते हैं ?
यह जानने के लिए बोर्ड के उन मुख्य नियमों पर एक नजर डाल लीजिए।
किसी फिल्म को प्रमाणपत्र देने से पहले नियमतः इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि उस फिल्म के प्र्रदर्शन से सार्वजनिक व्यवस्था न बिगड़े।
किसी की मानहानि न हो।
दर्शकों को मर्यादा और शालीनता की सीख मिले।
फिल्म में अश्लीलता न हो।
आज की कितनी फिल्में इन कसौटियों पर खरी उतरती हैं ?
यदि नहीं तो क्यों ?
कहते हैं कि पचास-साठ के दशकों के फिल्मी कलाकार ड्रग्स नहीं लेते थे।
किंतु आज ?
क्या केंद्र सरकार को इस बिगड़ती स्थिति को बदलने के लिए कुछ नहीं करना चाहिए ?
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नारको आतंक तंत्र
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करीब पांच दशक पहले निर्मित एक फिल्म का नाम था- ‘‘बंबई रात की बांहों में।’’
सुशांत सिंह राजपूत मौत की जांच के सिलसिले में जो खबरें आ रही हंै,उनसे लगता है कि अब मुम्बई नारको आतंक तंत्र के साये में है।
1993 में केंद्र सरकार को समर्पित वोहरा समिति की रपट में
इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल किया गया था-नारको आतंक तंत्र।
वोहरा समिति ने कहा था,
‘‘कुछ माफिया तत्व नारकोटिक्स ड्रग्स और हथियारों की तस्करी में संलग्न हैं।
उन्होंने विशेषकर जम्मू और कश्मीर,पंजाब ,गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में अपना नारको आतंक का तंत्र स्थापित कर लिया है।’’
कहा जा रहा है कि बिहार मूल का एक प्रतिभाशाली कलाकार सुशांत इसी तंत्र का शिकार हो गया।
मुम्बई का फिल्मी जगत यदि ड्रग्स से अपना नाता नहीं तोड़ सकता तो हिन्दी फिल्म निर्माण का केंद्र किसी हिन्दी राज्य में स्थापित करने पर विचार क्यों नहीं होना चाहिए ?
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अकेला पड़ते कोरोनाग्रस्त
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बचपन में मैंने बगल के गांव में एक अलग ढंग का दृश्य देखा था।
परिवार का मालिक घर के बाहर एक झोपड़ी में रहता था।
पहले तो मुझे लगा कि वे संत हो गए ।
दरअसल वे टी.बी.रोग ग्रस्त थे ।
तब तक टी.बी.की दवा यहां उपलब्ध नहीं थी।
संयोगवश उनकी बीमारी के बीच में ही वह दवा आ गई।
उन्होंने दवा का सेवन किया।वे स्वस्थ हो गए।
पर जब वे कुछ साल तक जो झोपड़ी में थे ,उन दिनों उनके दिल ओ दिमाग पर कैसा असर पड़ा होगा ?
बाद में मैं उनसे मिलता जरूर था,पर यह बात पूछने की हिम्मत नहीं थी।
उससे भी खराब स्थिति कई कोरोनाग्रस्त मरीजों की हो रही है ।वे समाज कौन कहे,परिजन द्वारा भी उपेक्षित कर दिए गए-खासकर बुजुर्ग।
उनमें से कुछ लोग स्वस्थ होकर अपनी पीड़ा जाहिर भी कर रहे हैं।
यही नहीं, कुछ बीमार चिकित्सकों की भी उनके पड़ोसियों ने उपेक्षा की।
यह एक ऐसे देश में हुआ जहां पारिवारिक व सामाजिक जीवन का बंधन अन्य देशों की अपेक्षा अधिक मजबूत रहा है।
पर, इस बीच अधिकतर डाक्टरों व नर्सों ने जान की बाजी लगाकर और कई मामलों में जान देकर भी मरीजों की सेवा की और कर रहे हैं।
वैसे अनेक परिवारों ने अपने मरीजों की भरसक सेवा की। पर चिकित्सा सुविधाओं की कमी से भी लोगों को जरूर परेशानी होती रही है।
कोरोना का असर पूरी तरह समाप्त हो जाने के बाद ऐसी समस्या पर देश को सोचना चाहिए।
ऐसी स्थिति में कोई लोक कल्याणकारी राज्य अपनी जनता के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को बेहतर ढंग से कैसे निभाए ?
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और अंत में
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चुनाव के उम्मीदवार अब अपने आपराधिक रिकाॅर्ड को प्रकाशित करने से बच नहीं सकेंगे।
यह नियम पहले से लागू हैं।
किंतु इसका कड़ाई से पालन नहीं होता।
आयोग अब गंभीर हो गया है।
बिहार के चुनाव में उसका असर देखने को मिल सकता है।
दो बार क्षेत्रीय व एक बार राष्ट्रीय अखबार में अपने आपराधिक रिकाॅर्ड प्रकाशित करने होंगे।
टी.वी.चैनलों पर भी तीन बार प्रदर्शित करवाना होगा।
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कानोंकान,प्रभात खबर
पटना -4 सितंबर 20
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