सोमवार, 28 सितंबर 2020

 हंगामा सभाओं में बदलते विधान मंडल

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यह कौन सा न्याय है कि सदन के भीतर दुव्र्यवहार को लेकर तो कोई जेल न जाए,

किंतु बाहर यही काम करने पर कोई न बचे।

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       --सुरेंद्र किशोर--

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  पिछले दिनों संसद के उच्च सदन यानी राज्य सभा  में  अभूतपूर्व ,अशोभनीय और शर्मनाक दृश्य देखे गए।

ये दृश्य पूरे देश ने अपने टी.वी.सेट पर देखे।

विवेकशील लोग शर्मसार हुए।

 बाकी का नहीं पता !

  इन दृश्यों से यह साफ है कि लोकतंत्र के मंदिरों में अनुशासन और शालीनता लाने के अब तक के सारे प्रयास विफल ही साबित हुए हैं।

   इसलिए  देश की राजनीति की बेहतरी  और लोक जीवन को गरिमापूर्ण बनाने के कुछ खास उपाय करने पर नए सिरे से विचार करना पड़ेगा।

  राज्य सभा के उप सभापति हरिवंश के साथ उस दिन सदन में जो कुछ अकल्पनीय हुआ,वह कोई पहली घटना नहीं थी।

यदि कुछ ठोस उपाय नहीं होंगे तो वह आखिरी घटना भी नहीं होगी।

 किसी पीठासीन अधिकारी के साथ ऐसा अपमानजनक व्यवहार इससे पहले कभी नहीं हुआ ।

  यह इस देश की राजनीति के गिरते स्तर का द्योतक है जिसे जारी रहने की और छूट अब यह लोकतंत्र बर्दाश्त नहीं कर  सकता।

हल्की सजाओं के साथ  यदि इसी तरह छूट मिलती रहेगी तो इसे कुछ दिनों बाद लोकतंत्र नहीं कहा जा सकेगा, चाहे इसे  जो भी अन्य नाम दिया जाए।

   लोक सभा में हुई एक ऐसी ही शर्मनाक घटना को लेकर सन 1997 में संसद के दोनों सदनों ने करीब एक सप्ताह तक गंभीर व भावपूर्ण चर्चा की थी।

  तब लोक सभा के भीतर ही दो बाहुबली सांसदों ने आपस में मारपीट कर ली थी।

  उस चर्चा में सदस्यों ने  ‘‘लोक जीवन में भ्रष्टाचार के विकराल रूप और सामाजिक जीवन में बढ़ती असहिष्णुता को देश के लिए गंभीर खतरा बताते हुए इन प्रवृतियों पर तत्काल अंकुश लगाने पर बल दिया था।’’

  तब सार्वजनिक जीवन को आदर्श बनाने के संकल्प से संबंधित सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव भी पारित किया था।

उसमें भ्रष्टाचार को समाप्त करने,राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त करने के साथ चुनाव सुधार करने ,जनसंख्या वृद्धि ,निरक्षरता  और बेरोजगारी को दूर करने के लिए जोरदार राष्ट्रीय अभियान चलाने का संकल्प लिया गया था।

   उस विशेष चर्चा के दौरान विभिन्न दलों के वक्ताओं ने 

देशहित में भावपूर्ण भाषण दिया था,पर उसके बाद के वर्षों में 

इस संकल्प के संदर्भ में क्या -क्या काम हुए,इसका पता नहीं चला।

हां,संसद सहित देश के विभिन्न विधान मंडलों में चर्चा का स्तर जरूर गिरता चला गया।

संसदीय गरिमा में भी गिरावट आती गई।

लोकतंत्र की ये सभाएं हंगामा सभाओं में बदलती चली गईं।

अपवादों की बात और है।

 25 नवंबर, 2001 को संसद तथा राज्यों  के विधान मंडलों में अनुशासन और शालीनता विषय पर पीठासीन अधिकरियों ,मुख्य मंत्रियों ,संसदीय कार्य मंत्रियों ,विभिन्न दलों के  नेताओं और सचेतकों ने अपने अखिल भारतीय सम्मेलन में एक संकल्प स्वीकृत किया था।

   उसमें यह कहा गया था कि सदन में अनुचित आचरण जैसे नारेबाजी करना,इश्तिहार दिखाना ,पत्रों को फाड़ना और फेंकना,अनुचित और अभद्र मुद्राओं का प्रदर्शन करना,अध्यक्ष के आसन के समीप जाना,प्रदर्शन करना,धरने पर बैठना, कार्यवाही में बाधा डालना और अन्य सदस्यों को बोलने न देना,व्यवस्था बनाए रखने के लिए अध्यक्ष पीठ के निदेशों पर ध्यान न देना ,पीठासीन अधिकारियों के निर्णय पर प्रश्न चिन्ह लगाना आदि संसद और विधान सभाओं के समुचित कार्यकरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।

 उस सम्मेलन में शामिल सभी लोगों ने एक स्वर से कहा था कि हम राजनीतिक दलों से आग्रह करते हैं कि वे अनुशासनहीन आचरण करने से अपने सदस्यों को रोककर विधान मंडलों में शालीनता बनाए रखने में सकारात्मक भूमिका निभाने के लिए आगे आएं।

  

यह याद रहे कि विधायिका के सदस्यों के लिए आचार संहिता है,जिसके अतिक्रमण के मामलों के लिए विभिन्न तरह की सजाओं के भी प्रबंध किए गए हैं।

 यदाकदा सजाएं दी भी जाती हैं ।

किंतु पिछले अनुभव बताते हैं कि 

उन सजाओं का सबक सिखाने लायक असर नहीं हो रहा है।

 इसके अलावा भी कई अन्य अवसरों पर संबंधित सम्मेलनों में 

सदन की गरिमा बनाए रखने की जरूरत बताई जाती रही है।

पर, राज्य सभा की ताजा घटना से यह लगता है कि कुछ  अनुशासनहीन सदस्यों के लिए ऐसे संकल्पों का कोई मतलब नहीं रह गया है।

क्या कभी यह सोचा गया है कि जब कभी स्कूली छात्रों का दल विधायिका की बैठक देखने जाता है तो उसकी कैसी

प्रतिक्रिया होती है ?

सच तो यह है कि हमारे लोकतंत्र के मंदिरों के बारे में उनकी  अच्छी प्रतिक्रिया नहीं होती।

एक बार तो एक छात्र ने कहा था कि 

इनसे अधिक अनुशासित तो हम छात्र अपने क्लास रूम में रहते हैं।

 हाल की  एक खबर के अनुसार राज्य सभा के प्रश्न काल का  60 प्रतिशत समय तो प्रतिपक्ष  के हंगामे में ही डूब जाता है।

 यह इस तथ्य के बावजूद होता है कि प्रश्न काल

सरकार को घेरने का सबसे अच्छा अवसर होता है।

इसी से आप अधिकतर सदस्यों की अपने मूल काम के प्रति गंभीरता का अंदाजा लगा सकते हैंे।

  कुल मिलाकर स्थिति यह है कि  पुराने उपायों से लोकतंत्र के मंदिरों की गरिमा वापस लौटने वाली नहीं है।

इसके लिए विशेष उपाय करने होंगे।

एक उपाय तो यह हो सकता है कि अपनी सीट छोड़ कर अकारण हंगामा करने के लिए सदन के ‘वेल’ में आने वाले सदस्यों की सदस्यता तत्काल प्रभाव से समाप्त हो जानी चाहिए।

  ऐसे कई अन्य कठोर उपाय भी होने चाहिए।

यह कौन सा न्याय है कि सदन के भीतर की मारपीट,गाली -गलौज को लेकर तो कोई जेल न जाए,किंतु सदन के बाहर यही काम करने पर कोई न बचे ।

  याद रहे कि कभी उत्तर प्रदेश विधान सभा में सदस्यों ने माइक के रड से एक दूसरे का  खून बहाया था। 

      कुछ अन्य विधान सभाओं में भी सदस्यों के बीच मारपीट और तोड़फोड़ हो चुकी है।

वर्ष 2015 में केरल विधान सभा में इसी तरह की घटना को लेकर छह विधायकों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई गई थी।

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दैनिक जागरण 28 सितंबर 20


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