मंगलवार, 21 मार्च 2023

   मेरा यह प्रासंगिक लेख 20 मार्च, 2023 को वेबसाइट मनीकंट्रोल हिन्दी पर प्रकाशित हुआ।

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सरकारी पैसे से कारपेट,बेडशीट और तौलिया खरीदने पर जब सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के खिलाफ लाया गया महाभियोग का प्रस्ताव

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सत्ताधारी कांग्रेस ने पहले ही यह फैसला कर लिया था कि जज वी.रामास्वामी को बचाना है।

सुप्रीम कोर्ट के जज के खिलाफ 1993 में संसद में प्रस्ताव गिर जाने से न्यायपालिका में सुधार की गति धीमी पड़ गई।

जानकार लोग बताते है कि यह घटना विभिन्न अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ने की एक महत्वपूर्ण कारक बनी।

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        --सुरेंद्र किशोर--

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 सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी.रामास्वामी के खिलाफ संसद में पेश महाभियोग प्रस्ताव 11 मई 1993 को गिर गया।

उस कारण न्यायपालिका में सुधार की गति धीमी पड़ गयी।

 पी.वी.नरसिंहराव के कार्य काल में महाभियोग आया था।

   कांग्रेस का तब यह अघोषित तर्क था कि महाभियोग प्रस्ताव पास करने से दक्षिण भारतीय मतदातागण कांग्रेस से नाराज हो जाएंगे।

 अनेक लोगों का यह मानना था कि यदि प्रस्ताव के जरिए रामास्वामी पद से हटाए गए होते तो  न्यायपालिका के विवादास्पद तत्वों में भय पैदा होता।

   इसका प्रभाव अन्य क्षेत्रों  पर भी पड़ा।

नतीजतन भारतीय संसद लोकतंत्र के विभिन्न स्तम्भों में बढ़ रहे भीषण भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में विफल साबित हो रही है।

    ग्यारह मई, 1993 को लोक सभा में जस्टिस रामास्वामी के खिलाफ पेश महाभियोग प्रस्ताव इसलिए गिर गया क्योंकि कांग्रेस और मुस्लिम लीग के 205 सदस्यों ने सदन में चर्चा के दौरान उपस्थित रहने के बावजूद मतदान में भाग ही नहीं लिया। 

  प्रस्ताव के पक्ष में मात्र 196 मत पड़े। महाभियोग प्रस्ताव के विरोध में एक भी मत नहीं पड़ा।

कांग्रेस ने कोई व्हीप जारी नहीं किया था ।

सत्ताधारी कांग्रेस ने पहले ही यह फैसला कर लिया था कि जज वी.रामास्वामी को बचाना है।

  जानकार लोग बताते हैं कि यह घटना विभिन्न अदालतों में भ्रष्टाचार के बढ़ने की एक महत्वपूर्ण कारक बनी।

    खुद सुप्रीम कोर्ट के  अनेक मुख्य न्यायाधीश समय -समय पर इस देश की न्यायपालिका में बढ़ते भ्रष्टाचार को लेकर चिंता जाहिर करते रहे हैं।

  लोक सभा में किसी जज के खिलाफ महाभियोग चलाने का वह एक मात्र उदाहरण है।

   दूसरी ओर, जब- जब सांसदों के खिलाफ न्यायपालिका कोई फैसला करती है तो दबे व खुले स्वर में अनेक सांसद न्यायपालिका पर  आरोप लगा देते हैं।

पर जब किसी जज को सजा देने का मौका आता है तो अधिकतर संासद कन्नी काट लेते हैं।

आखिर अधिकतर सांसद चाहते क्या हैं ? क्या वे यही चाहते हैं कि न्यायपालिका उनके भ्रष्टाचार पर पर्दा डाले और मौका आने पर हम रामास्वामी जैसे जजों को बचा लें ?

  माक्र्सवादी सांसद सोमनाथ चटर्जी द्वारा  प्रस्तुत महाभियोग प्रस्ताव पर लोक सभा में दस मई, 1993 को सात घंटे तक बहस चली।रामास्वामी पर लगाये गये आरोपों का उनके वकील कपिल सिब्बल ने सदन के भीतर खड़े होकर छह घंटे तक जवाब दिया।

 उन्होंने मुख्यतः यह बात कही कि खरीददारी का काम जस्टिस रामास्वामी ने नहीं बल्कि संबंधित समिति ने किया था।

  महाभियोग पर चर्चा को दूरदर्शन के जरिए लाइव प्रसारित किया जा रहा था। ग्यारह मई को फिर इस पर नौ घंटे की बहस चली।सोमनाथ चटर्जी ने चर्चा का जवाब दिया।लोक सभा मंे ंजब -जब कपिल सिब्बल ने कोई जोरदार तर्क पेश किया तो कांग्रेसी सदस्यों ने खुशी में मेजें थपथपाईं। विधि मंत्री हंसराज भारद्वाज टोका- टोकी के बीच कपिल सिब्बल का ही पक्ष लेते रहे।

 ये सब किस बात के सबूत थे ? 

    लोक सभा तो रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव नहीं पास कर सका,पर सुप्रीम कोर्ट के अधिकतर  साथी जजों ने रामास्वामी के साथ  बेंच मेें बैठने से इनकार कर दिया। 

 आखिरकार 14 मई 1993 को वी.रामास्वामी ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी।

 उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘लोक सभा में मेरे खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव के  गिर जाने से मेरे  दृष्टिकोण की पुष्टि हुई है।साथ ही  भविष्य में निहितस्वार्थ वाले तत्वों द्वारा  निंदा और उनके बेतुके हमले से निर्भीक और स्वतंत्र विचारों वाले न्यायाधीशों के सम्मान की रक्षा संभव हुई है।’’ 

  अब जरा उन आरोपों पर गौर करें जो वी.रामास्वामी पर लगे थे। नवंबर 1987 और अक्तूबर 1989 के बीच पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में वी.रामास्वामी ने अपने आवास व कार्यालय के लिए सरकारी निधि से पचास लाख रुपये के गलीचे और फर्नीचर खरीदे।

यह काम निविदा आमंत्रित किए बिना और नकली तथा बोगस कोटेशनों के आधार पर किया गया।

दरअसल ये फर्नीचर खरीदे ही नहीं गये थे।

पर कागज पर खरीद दिखा दी गई।यह खर्च राशि, खर्च सीमा से बहुत अधिक  थी।

  जस्टिस वी.रामास्वामी ने चंडीगढ़ में अपने 22 महीने के कार्यकाल में गैर सरकारी फोन काॅलों के लिए आवासीय फोन के बिल के 9 लाख 10 हजार रुपये का भुगतान कोर्ट के पैसे से कराया।मद्रास स्थित अपने आवास के फोन के बिल का भी पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट से भुगतान कराया।वह बिल 76 हजार 150 रुपये का था।इसके अलावा भी कई अन्य गंभीर आरोप वी.रामास्वामी पर थे। 

  ये ऐसे जज थे जिन्हें तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने आतंकवादियों के खिलाफ मुकदमे निपटाने के लिए मुख्य न्यायाधीश बनवा कर चंडीगढ़ भेजा था।

 ऐसा संवेदनशील काम जिसके जिम्मे हो,उस पर ऐसा आरोप ?

  पर उन्होंने वहां चीफ जस्टिस के रूप में भी आतंकवादियों के मुकदमों को लेकर कोई उल्लेखनीय काम नहीं किए।वे जबतक रहे टाडा के अभियुक्त धुआंधार जमानत पाते रहे। 

  फरवरी, 1991 में राष्ट्रीय मोर्चा,वामपंथी दल और भाजपा के 108 सांसदों ने मधु दंडवते के नेतृत्व में ंलोक सभा में वी.रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव की नोटिस दी।तब रवि राय  लोक सभा के स्पीकर थे।अपने सवैधानिक दायित्व का पालन करते हुए उन्होंने इसकी सत्यता की जांच के लिए 12 मार्च 1991 को तीन

जजों की समिति बना दी।

 सुप्रीम कोर्ट के जज पी.बी.सामंत के नेतृत्व में गठित इस न्यायिक समिति के सामने रामास्वामी ने अपना पक्ष रखने से इनकार कर दिया।सावंत समिति के अन्य सदस्य थे

बंबई हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी.पी.देसाई और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज ओ.चिनप्पा रेड्डी। 

 पी.बी.सावंत समिति ने अपनी जांच रपट में कहा था कि ‘जस्टिस वी.रामास्वामी ने अपने पद का जानबूझ कर दुरूपयोग किया।

सरकारी खजाने के बूते पर उन्होंने जानते- बूझते  फिजूलखर्ची की।

सरकारी पैसों का कई तरह से निजी उपयोग करने के नाते वे नैतिक रूप से भ्रष्ट हैं।उन्होंने न्यायाधीश की ऊंची पदवी पर धब्बा लगाने के साथ -साथ

न्यायपालिका में जनता के विश्वास को मिटा कर रख दिया है।अपनी जांच रपट में जस्टिस सावंत ने कहा कि ये सब बातें अब भी लागू होती हैं और उन्होंने जो अपराध किए हैं,वे सभी अपराध ऐसे हैं कि उनका पद पर बने रहना न्यायपालिका के और सार्वजनिक हित में नहीं होगा।’

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