‘‘यदि स्टेट आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ कोई व्यक्ति कोर्ट की शरण नहीं ले सकता।क्योंकि ऐसे मामलों को सुनने के कोर्ट के अधिकार को स्थगित कर दिया गया है।’’(--आपातकाल में सरकारी वकील का सुप्रीम कोर्ट में बयान)
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राहुल गांधी ने हाल मंे लंदन में कहा कि भारत में लोकतंत्र ध्वस्त हो गया !
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दरअसल ध्वस्त तो उनका कुछ और ही हो रहा है,पर वे गीत लोकतंत्र का गा रहे हैं।
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सुरेंद्र किशोर
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राहुल गांधी की दादी और तब की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी गद्दी बचाने के लिए सन 1975-77 में इस देश के लोकतंत्र को किस तरह ध्वस्त किया था,उसका एक छोटा नमूना नीचे प्रस्तुत है--
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आपातकाल (1975-77) में आम लोगों के जीने का अधिकार तक
इंदिरा सरकार ने छीन लिया था।
यही नहीं,प्रतिपक्षी नेताओं सहित लाखों लोग जेलों में बंद कर दिए गए थे।
उन्हें अदालत की शरण लेने की भी कानूनी सुविधा नहीं थी।
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इमरजेंसी में जीने तक का हक छीन लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने
तो सन 2011 में अपनी गलती मान ली।
पर, तब की सत्ताधारी पार्टी यानी कांग्रेस या उसके नेतृत्व ने आज तक यह काम नहीं किया।
भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मई, 2015 में कहा था कि ‘चार दशक पहले आपातकाल लागू करना कांग्रेस सरकार की भयानक गलती थी। इसके लिए सोनिया गांधी या राहुल गांधी को देश से माफी मांगनी चाहिए।’
पर किसी कांग्रेसी नेता ने माफी नहीं मांगी।
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सुप्रीम कोर्ट ने गत 2 जनवरी, 2011 को यह स्वीकार किया कि
देश में आपातकाल के दौरान इस कोर्ट से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था।
आपातकाल के करीब 35 साल बाद सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूत्र्ति आफताब आलम और जस्टिस अशोक कुमार गांगुली के खंड पीठ ने उस समय की अदालती भूल को स्वीकार किया।
आज तो जब किसी पार्टी के हाथों से सत्ता छिन जाती है और उसके नेताओं की नाजायज संपत्ति छीने जाने की कार्रवाई शुरू होती है तो वे कहते हैं कि देश में आपातकाल जैसी स्थिति है।
जब किसी भ्रष्ट नेता के खिलाफ अदालत कार्रवाई करती है तो वह कहता है कि संविधान खतरे में है।जज सरकार के प्रभाव में हैं।
यानी, नयी पीढ़ी के सामने आपातकाल शब्द को नये ढंग से पेश किया जा रहा है।पर असली आपातकाल क्या था,उसे जानने के लिए 1975-77 की घटनाओं की एक झलक यहां प्रस्तुत है।
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तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून, 1975 को इमरजेंसी लगाकर पूरे देश को एक बड़ी जेलखाना में बदल दिया गया था।
आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया था।
यहां तक कि जीने का अधिकार भी स्थगित था।
23 मार्च, 1977 को ही आपातकाल को समाप्त किया जा सका था जब आम चुनाव के बाद केंद्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी।
आपात काल में इंदिरा गांधी सरकार ने जयप्रकाश नारायण सहित करीब एक लाख से भी अधिक राजनीतिक विरोधियों को देश के विभिन्न
जेलों में ठंूस दिया था।मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था । कड़ा प्रेस सेंसरशिप लगा दिया गया था।यहां तक कि आम जनता के जीने का अधिकार भी छीन लिया गया था।
एटार्नी जनरल नीरेन डे ने तब सुप्रीम कोर्ट में यह स्वीकार भी किया था।उन्होंने कहा था कि
‘‘यदि स्टेट आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ कोई व्यक्ति कोर्ट की शरण नहीं ले सकता।क्योंकि ऐसे मामलों को सुनने के कोर्ट के अधिकार को स्थगित कर दिया गया है।’’ नीरेन डे ने आपातकाल में जो कुछ कहा, वैसा अंग्रेजों के राज में भी यहां नहीं हुआ था।विदेशियों के शासन काल में भी जनता को कोर्ट जाने की सुविधा हासिल थी।
याद रहे कि आपातकाल के दौरान जबल पुर के एडीएम बनाम शिवकांत शुक्ल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने बहुमत से मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के पक्ष में फैसला दे दिया था।
उस पीठ के सदस्य थे मुख्य न्यायाधीश ए.एन.राय, जस्टिस एच.आर.खन्ना , एम.एच.बेग, वाई.वी.चंद्रचूड़ और पी.एन.भगवती।
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एडीएम, जबल पुर बनाम शिवकांत शुक्ल के मामले में इस पीठ ने कहा था कि 27 जून 1975 को राष्ट्रपति की ओर से जारी आदेश के अनुसार प्रतिबंधात्मक कानून मीसा के तहत हिरासत में लिया गया कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद -226 के अंतर्गत कोई याचिका दाखिल नहीं कर सकता।इसी केस के सिलिसिले में नीरेन डेे ंकी ऊपर कही टिप्पणी सामने आयी थी।
पर पीठ के एक सदस्य जस्टिस एच.आर.खन्ना ने बहुमत की राय से अपनी अलग राय दी।
2011 के सुप्रीम कोर्ट के सुधारात्मक निर्णय में खन्ना की राय का समर्थन किया गया।
याद रहे कि संविधान के अनुच्छेद -226 के तहत उच्च न्यायालयों को रिट जारी करने का अधिकार है।
आपातकाल की घोषणा के बाद देश भर में निरोधात्मक नजरबंदी के दौर शुरू हो गए थे।
कुछ गिरफ्तार लोगों ने उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर कीं।
उन याचिकाओं पर जबल पुर हाई कोर्ट सहित देश के 9 उच्च न्यायालयों ने यह कहा कि आपातकाल के बावजूद बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर करने का अधिकार कायम रहेगा।
केंद्र सरकार ने इन निर्णयों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी।
सुप्रीम कोर्ट ने सभी मामलों की एक साथ सुनवाई की।
यह ऐतिहासिक केस ए.डी.एम.,जबल पुर बनाम शिवकांत शुक्ल मुकदमे के नाम से चर्चित हुआ।बहुमत फैसले में मीसा को सही ठहराया गया था।पर जस्टिस हंस राज खन्ना ने अपनी अलग राय देते हुए कहा था कि सरकार मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ सुनवाई करने के हाई कोर्ट के अधिकार को किसी भी स्थिति में छीन नहीं सकती।इस राय के बाद जस्टिस खन्ना ने काफी सम्मान अर्जित किया था।
जस्टिस खन्ना के इस साहसिक कदम पर न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा था कि जस्टिस खन्ना की मूत्र्तियां भारत के हर शहर में लगायी जानी चाहिए।
खुद जस्टिस पी.एन.भगवती ने बाद में कहा था कि शिवकांत शुक्ल वाले केस के फैसले में ‘मैं गलत था।वह मेरा कमजोर कृत्य था।’
उन्होंने यह भी कहा कि पहले तो मैं उस तरह के फैसले के खिलाफ था,पर पता नहीं मैं बाद में क्यों सहयोगी न्यायाधीशों की बातों में आ गया।
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