राजदेव सिंह जैसे अच्छे अफसरों के कारण ही
50 के दशक में बिहार में सबसे कम अपराध होते थे
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--सुरेंद्र किशोर--
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देश के अन्य राज्यों मंे हुई आपराधिक
घटनाओं का तुलनात्मक विवरण देते हुए 15 मार्च, 1956 को
बिहार के तत्कालीन राजस्व मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने
बिहार विधान सभा में कहा था कि सबसे कम आपराधिक घटनाएं बिहार में हुई हैं।
वे पुलिस बजट पेश कर रहे थे।
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यह जानना प्रासंगिक होगा कि तब कैसे-कैसे अफसर हुआ करते थे
जिन पर कानून-व्यवस्था की जवाबदेही होती थी।
अब मैं उन दिनों के एक आई.पी.एस.अफसर की कहानी सुनाता हूं।
बिहार काॅडर के आई.पी.एस.अफसर राजदेव सिंह 30 जून 1979 से 24 जनवरी, 1980 तक सी.बी.आई.के निदेशक रहे।
मोरारजी देसाई के प्रधान मंत्रित्व काल में वे निदेशक बने।इंदिरा गांधी ने सत्ता में आते ही उन्हें हटा दिया।
याद रहे कि इंदिरा जी को ऐसे अफसर पसंद नहीं थे।
राजदेव बाबू सारण जिला स्थित मेरे पुश्तैनी गांव से 2 किलोमीटर दूर स्थित गांव मठिया के मूल निवासी थे।जीवन भर ईमानदार बने रहे।
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उनके पड़ोसी राघव प्रसाद सिंह, राजदेव बाबू के मित्र थे।
राघव बाबू दिघवारा से बिहार के सबसे बड़े अखबार ‘आर्यावर्त’ के संवाददाता भी थे।
कई दशक पहले राघव बाबू के यहां उनके नाम मैंने राजदेव बाबू की एक चिट्ठी देखी थी।
बड़े पद पर पहुंचने के बावजूद राजदेव बाबू को राघव बाबू जैसे मित्रों से किसी जरूरी काम से कभी- कभी कर्ज लेना पड़ता था।
अंतर्देशीय पत्र में राजदेव बाबू ने राघव बाबू को लिखा था कि मुझे सरकार से पैसा मिलने ही वाला है। मिल जाएगा तो मैं आपको कर्ज लौटा दूंगा।
अत्यंत थोड़े से अपवादों को छोड़कर दरअसल उस जमाने के
अधिकतर आई.ए.एस.और आई.पी.एस.अफसर ऐसे ही होते थे।
धीरे -धीरे स्थिति बिगडती चली गई।इसके लिए लगभग
सभी पक्ष जिम्मेदार रहे।एक अमेरिकन प्रोफेसर ने
कुछ दशक पहले अपनी किताब में विस्तार से लिखा कि भारत में किस तरह भ्रष्टाचार नेताओं ने ऊपर से नीचे की ओर फैलाया।
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राजदेव बाबू अपने छात्र जीवन में टाॅपर रहे।
हमारे इलाके के गार्जियन अपने लड़कांे से कहा करते थे के राजदेव की तरह बनो।
मैं तो राजदेव बाबू से कभी मिल न सका था,पर,उनके बारे में बचपन से ही अच्छी-अच्छी बातें सुनता रहता था।
दरअसल वे किंवदंति बन चुके थे।
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एक बार मैंने इंडियन एक्सपे्रस के बिहार संवाददाता के. कृपाकरण से उनकी चर्चा की तो उन्होंने कहा कि राजदेव बाबू बहुत अच्छी अंग्रेजी बोलते थे।
याद रहे कि वे ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे।
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यानी, ऐसे -ऐसे अफसरों के बल पर ही तब बिहार में सुशासन था।
सुना है कि अंग्रेजों के जमाने में डी.एस.पी.और उससे ऊपर के पुलिस अफसर रिश्वत नहीं लेते थे।
आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक भी लगभग वैसा ही रहा।
पर, उसके बाद तो समय बीतने के साथ क्या-क्या नहीं होने लगा !!!
आज क्या -क्या होता रहा है,उसे यहां दुहराने की जरूरत नहीं।
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1 मार्च 23
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