कानोंकान
सुरेंद्र किशोर
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निर्दोषों को अंततः बचा ही लेगा इस देश का स्वतंत्र सुप्रीम कोर्ट
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सन 1975-77 के आपातकाल में सुप्रीम कोर्ट उन नेताओं को भी न्याय नहीं दे सका था जो नाहक जेलों में ठूंस दिए गए थे।वे अदालती सुनवाई के बिना ही अनिश्चितकाल के लिए जेलोें में थे।
आम लोगों के जीने
तक का अधिकार यानी मौलिक अधिकार तब छीन लिया गया था। तब के सुप्रीम कोर्ट ने उस मामले में भी केंद्र सरकार का समर्थन कर दिया था।
आज सुप्रीम कोर्ट की स्थिति उसके ठीक विपरीत है।आज इस देश का सुप्रीम कोर्ट ‘स्वतंत्र’ है।
सन 2011 में सुप्रीम कोर्ट आपातकाल के उस जजमेंट को गलत बता चुका है।इसलिए उन लोगों को डरने की जरूरत नहीं है जो आज यह आरोप लगा रहे हैं कि केंद्रीय एजेंसियां उन्हें नाहक परेशान कर रही हैं।
अदालती छानबीन से जिन आरोपियों के बारे में यह साबित हो जाएगा कि उन्हें झूठे मामलों में फंसाया गया है,उन्हें मौजूदा सुप्रीम कोर्ट अंततः बचा लेगा,ऐसी उम्मीद की जाती है।
हां,जिन नेताओं तथा अन्य लोगों के खिलाफ आरोप सही साबित होंगे,उन्हें कोई बचा भी नहीं सकेगा।
एजेंसियां तो जांच -पड़ताल करके कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल कर देती हैं।
बाद की जिम्मेदारी तो त्रिस्तरीय अदालतों की होती है।सुनवाई के बाद दोष साबित होने पर ही सजा होती है।वैसे भी अपने देश में जितने प्रतिशत आरोपितों की रिहाई हो जाती है,उतनी रिहाई किसी अन्य प्रमुख देशों में शायद ही होती है।क्योंकि अपने देश का न्याय शास्त्र यह कहता है कि ‘‘भले 99 दोषी छूट जाए,पर किसी एक निर्दोष को भी सजा नहीं मिलनी चाहिए।’’
हालांकि इस न्याय शास्त्र को बदलने की मांग भी हो रही है।यानी,‘‘चाहे कुछ निर्दोषों को सजा हो जाए किंतु एक भी अपराधी बचने न पाए।’’
हां,अपने देश के सुप्रीम कोर्ट को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि किस तरह कुछ निर्दोष लोगों को एजेंसियों के हाथों फंसाए जाने की घटनाओं को तत्काल रोका जाए।
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मुकदमों का वोट पर असर
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जिन नेताओं पर लाखों लोगों की नजरें रहती हैं,उनके बारे में आम जनता अच्छी तरह जानती है कि किसे गलत ढंग से फंसाया गया है और किसे नहीं।
हां,जनता के एक छोटे हिस्से की यह राय जरूर रहती है कि जब तक अन्य सारे दोषी नेताओं को सजा नहीं हो जाती है,तब तक हमारे नेता को परेशान नहीं किया जाए।
ऐसी मानसिकता वाले लोगों को छोड़ दें तो अधिकतर जनता की उन नेताओं के प्रति कोई सहानुभति नहीं रहती जिन्होंने उनके अनुसार सचमुच गलती की है।इसलिए कोई नेता यह समझे कि मुकदमों के कारण उनका वोट बढ़ जाएगा तो वह गलतफहमी में हैं।
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दल बदलते ही सदस्यता जाए
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दल बदल विरोधी कानून सन 1985 में बना।बाद के वर्षों में उसमें संशोधन हुए।फिर भी दल बदल नहीं रुका।
मौजूदा कानून के अनुसार किसी भी दल के दो तिहाई विधायक या सांसद एक साथ दल छोड़ देंगे तो उनकी सदस्यता नहीं जाएगी।
अब दो -तिहाई सदस्य भी दल छोड़ने लगे।
साथ ही,एक और काम होने लगा।
यदि किसी इकलौते सदस्य को दल छोड़ना हुआ तो वह सदन की सदस्यता से इस्तीफा दे देता है।
सीट खाली हो जाती है।उप चुनाव होता है तो वही पूर्व सदस्य नए दल से उप चुनाव लड़कर सदन का सदस्य बन जाता है।
इस तरह वह दल-बदल विरोधी कानून की भावना का उलंघन करता है।
अब तो एक अजीब काम हो रहा है।
किसी दल बदलू के मामले को कुछ स्पीकर सदन के पूरे र्काकाल तक लटकाए रखते हैं।
यानी दल बदलने के बावजूद उस सदस्य की न तो सदस्यता जाती है और न उप चुनाव की नौबत आती है।ऐसे में क्या किया जाए ?
कुछ लोग एक खास तरह की सलाह दे रहे हैं।
सलाह यह है कि यदि कोई एक सदस्य भी दल -बदल करे या दो तिहाई सदस्य मिलकर करे,
उसकी सदस्यता दल बदलते ही खुद ब खुद समाप्त कर देने का कानूनी प्रावधान हो जाना चाहिए।
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भूली-बिसरी यादें
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फांसी के खिलाफ भगत सिंह के पिता ने
भगत सिंह से पूछे बिना
ही ट्रिब्यूनल को दया याचिका भेज दी थी।
इस पर भगत सिंह ने अपने पिता को पत्र लिखा,
‘‘पिता जी, आपने मेरी पीठ में छुरा भोंका है।मेरा जीवन उतना मूल्यवान नहीं।मेरे सिद्धांत मेरे जीवन से बड़े हैं।’’
याद रहे कि लाहौर षड्यंत्र केस में ट्रिब्यूनल ने सात अक्तूबर, 1930 को भगत
सिंह,सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई।कमलनाथ तिवारी,विजय सिन्हा,जयदेव कपूर और शिव वर्मा को आजन्म कालापानी।अजय घोष और सुरेंद्र पांडेय को रिहाई हुई। 23 मार्च 1931 को इन्हें शूली पर लटका दिया गया था।
आज देश के अनेक नेताओं के जो ‘हाल’ हैं,उसे देख कर सवाल उठता है कि शहीदों ने क्या ऐसे ही दिन देखने के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान किया था ?
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और अंत में
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सोशल मीडिया बेसहारों के लिए सहारा है।किसी अच्छे अभियान के लिए कारगर शस्र है।इसका सदुपयोग होगा तो यह साधन सबके लिए उपलब्ध रहेगा।दुरुपयोग होगा तो एक दिन छिन जाएगा।या इस तक पहुंच सीमित हो जाएगी।आधुनिक युग के लिए यह वरदान है।भले लोगों का यह कर्तव्य है वे इसका दुरुपयोग होने से रोकें।
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13 मार्च 23
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