एक किसान परिवार के एक बौद्धिक
परिवार में बदलने की कहानी
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सुरेंद्र किशोर
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हाल ही में मेरे मित्र उपेंद्र जी(उपेंद्र नारायण सिन्हा,सेवानिवृत उत्पाद अधीक्षक ,झारखंड)
ने मुझे फोन पर बताया कि ‘‘आपका भतीजा कामेश्वर तो झारखंड का बड़ा कवि हो गया है।
किसी कवि सम्मेलन में सबसे अंत में उसका काव्य पाठ होता है।’’
सुनकर खुशी हुई।
कामेश्वर पटना में
मेरे ही साथ रह कर पढ़ा था।
अब झारखंड पुलिस सेवा से रिटायर होकर रांची में बस गया।
मेरे एक अन्य भतीजे सौरभ कुमार सिंह का हाल ही अपने टी.वी.चैनल पर एक खास विषय पर राजदीप सरदेसाई इंटरव्यू ले रहे थे।मुझे वह दृश्य देखकर गर्व हुआ।
वह भी रांची में ही रहता है।उसके पिता यानी मेरे छोटे भाई नागेंद्र का गत साल निधन हुआ।वह अंग्रेजी की हर नई किताब पढ़ लेता था।अमरीकी कंपनी में कार्यरत उसका पुत्र सुमन उसे किताब उपलब्ध कराता रहता था।
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मैं अपने परिवार का पहला मैट्रिकुलेट हूं।
मेरा परिवार किसान परिवार रहा है।
एक भतीजा अरूण अब गांव में रह कर खेती-बारी देखता है।बाकी पूरा परिवार बौद्धिक क्षेत्र में है।किसी की लघु कथा (मेरी पैरवी के बिना ही) हिन्दुस्तान जैसे बड़े अखबार में छपती है तो परिवार का एक अन्य सदस्य अंग्रेजी में तीन पुस्तकों का सह लेखक है।एक सदस्य को जेपी सेनानी की पेंशन मिल रही है।
मैं जो हूं, वह तो आप देख ही रहे हैं।
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गांव में जब मैं रहता था तो मेरे घर में रामचरित मानस,आल्हा और शुकसागर के अलावा कोई पुस्तक नहीं थी।
मेरे गांव में उन दिनांे अखबार जाने का कोई सवाल ही नहीं था।
कोर्स की किताबों के अलावा कुछ पढ़ने के लिए मैं तरस जाता था।
गर्मी के दिनों में अपने दालान में शाम खाट पर लेटकर आकाश निहार कर समय काटता था।
सोचा था कि जब कुछ पैसे होंगे तो एक अपना पुस्तकालय बनाऊंगा।
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आज मेरे पास जो पुस्तकालय है, उसे डा.नामवर सिंह और प्रभाष जोशी ने देखा था।
जोशी जीे ने कहा कि ‘‘मेरी जानकारी के अनुसार ऐसा निजी पुस्तकालय देश के किसी अन्य पत्रकार के पास नहीं है।’’नामवर जी ने कहा कि ‘‘सुरेंद्र जी,आपने हीरा सहेज कर रखा है।’’
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इतना सब मैंने यहां इसलिए लिखा ताकि यह बता सकूं कि यदि इच्छा -शक्ति हो तो एक समान्य किसान परिवार से निकली पहली पीढ़ी भी एक बौद्धिक मुकाम पा सकती है।
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18 फरवरी 23
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