सोमवार, 4 मार्च 2024

 राजनीतिक कर्म मेरा पहला प्यार था,

पत्रकारिता धर्म दूसरा बना !

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सुरेंद्र किशोर 

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राजनीतिक कर्म मेरा पहला प्यार था।

पर,कई वजहों से वहां न टिक पाने के कारण ही मैं मजबूरी में पत्रकारिता के काम में लग गया।

पत्रकारिता को मैं अर्ध सार्वजनिक कर्म मानता हूं।

व्यवहार में माना भी।

हमलोगों के समकालीन छात्र नेता विजयकृष्ण कहा करते हैं  कि यदि सुरेंश शेखर (सन 1966 के मैट्रिक बोर्ड टाॅपर) और 

सुरेंद्र किशोर राजनीति में रह जाते तो राजनीति में अच्छा करते।

 बाढ़ इलाके के वही विजयकृष्ण जो बाद में विधायक, मंत्री और सांसद बने।वे मुझे लंबे समय से जानते हैं।

सुरेश शेखर को मैंने पटना के शीर्ष समाजवादी राजनीतिक हलकों से परिचय कराया।सुरेश ने मुझे पटना विश्व विद्यालय के छात्रों से मिलवाया।

सुरेश प्रसाद सिंह उर्फ सुरेंश शेखर नीतीश कुमार के बहुत ही अच्छे मित्र थे।अब नहीं रहे।

  उदयकांत लिखित चर्चित पुस्तक ‘‘नीतीश कुमार --अंतरंग दोस्तों की नजर से’’ में सुरेश शेखर की भी खूब चर्चा हुई है।

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खैर,सरजमीन के राजनीतिक कर्मोें से मुझे जो संतोष मिला था ,उसकी यहां संक्षिप्त चर्चा करूंगा।

संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता के रूप में मैं छात्र जीवन से ही सारण जिले में सक्रिय था।

पार्टी का निदेश था कि भूमिहीनों को बासगीत के पर्चे दिलवाने हैं भले हम सत्ता में हांे या विपक्ष में।

उन दिनों हमारी पार्टी प्रतिपक्ष में थी जब मैंने करीब आधा दर्जन भूमिहीनों को बासगीत के पर्चे दरियापुर अंचल (सारण जिला)से दिलवाए थे।

उन दिनों सरकारी दफ्तरों में आज जैसी ‘‘कार्य शैली’’ (???!!) नहीं थी।

मुुझे जहां तक याद है, मैं अकेले ही अंचल कार्यालय गया।सी.ओ. से मिला।उनसे विनमं्रतापूर्वक बातें कीं।

कोई देर किए बिना गरीबों के लिए पर्चे मिल गये।

जिन्हें पर्चे मिले,उनके परिवार अब भी मुझे याद करते हैं।

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सत्तर के दशक में सारण जिले में बड़ी बाढ़ आई हुई थी।

फसल नष्ट हो गयी थी।कांग्रेस की सरकार ने बड़े पैमाने पर राहत में अनाज बंटवाये थे।

दिघवारा से लेकर मेरे गांव तब नाव चलती थी।सारा इलाका जलमग्न था।

हमारे इलाके से हम दो प्रतिनिधि रेगुलर दिघवारा जाते और नाव पर अनाज लाद कर गांव ले लाते।गांव में अनाज बांटते।

उन दिनों आम तौर पर संपन्न किसान सरकारी रिलीफ के अनाज नहीं स्वीकार करते थे।

मेरे साथी ने मुझसे कहा कि हम लोग अक्सर अपने काम छोड़ कर अनाज लाने दिघवारा जाते हैं।यहां मजदूर रखना पड़ता है।अन्यथा काम का नुकसान होता है।

हमलोगों को चाहिए कि हर किस्त में हमलोग 25-25 किलो अनाज अपने पास रख लें।

मैंने कहा कि आप 25 किलो रख लीजिए।मैं नहीं लूंगा।

उस पर उन्होंने कहा कि जब आप नहीं लेंगे तो मैं भी नहीं लूंगा।उन्होंने भी नहीं लिया।यानी जो भी सरकारी अनाज आता था,हमलोगों के कारण सब अनाज लोगों में बंट जाता था।

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तत्काल बाद 1972 में बिहार विधान सभा का चुनाव हुआ।

मैं सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के प्रचार में लग गया।लोगों से कहता था कि कांग्रेसी सरकारों ने नदियों के किनारे तटबंध नहीं बनाये।इसलिए बाढ़ आती है।लोग तबाह होते हैं।

जवाब में उनमें से कुछ लोग कहते थे कि बाढ़ तो भगवान ने भेजा,पर रिलीफ के अनाज जयपाल (कांगेेसी नेता)ने भेजे।

रामजयपाल सिंह यादव चुनाव जीत गये।   

मैंने तो ये छोटे -छोटे काम किए थे।पर,संतोष देने वाले काम थे।

इस तरह के जनहित के कई काम

मैंने छपरा और पटना में किये।

पटना के एक काम 

की चर्चा खास तौर पर करूं।

कर्पूरी ठाकुर के चुनाव क्षेत्र ताजपुर के दो रिक्शा चालक पटना में गिरफ्तार हो गये थे।

उनके लिए जमानदार बनना था।मैं तब कर्पूरी जी का निजी सचिव था।

मैं कर्पूरी ठाकुर के साथ रिक्शे पर पटेल पथ से पटना कचहरी गया।

देर तक कर्पूरी जी बेंच पर बैठे रहे।

सारी औपचारिकताएं पूरी करके हम दोनों उन रिक्शे वाले के 

जमानदार बने।वे गरीब कोई आदतन अपराधी नहीं थे।

पर,कभी -कभी पुलिस की नजरों में गरीब लोग मामूली कसूर में भी बड़े कानून तोड़क मान लिये जाते हैं।जेल भेज दिए जाते हैं।

याद रहे कि कर्पूरी जी उन दोनों को व्यक्तिगत रूप से जानते थे।

अब आप कल्पना कीजिए कि एक पूर्व मुख्य मंत्री गरीबों की जमानत के लिए लबेे घंटे तक कचहरी की बेंच पर बैठे।

उस गरीब सेवा का ‘सुख’ मुझे भी मिला था।

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3 मार्च 24


  


  

 

   


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