रविवार, 24 मार्च 2024

 गोपनीयता के आवरण में चुनावी चंदा

------------------

समय के साथ देश में बहुत कुछ बदल गया,लेकिन चुनावी चंदे 

में पारदर्शिता का अभाव जस का तस कायम है

----------------

सुरेंद्र किशोर

----------------

भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है।

लोकतंत्र की सफलता चुनावी प्रक्रिया में स्वतंत्रता ,पारदर्शिता एवं निष्पक्षता से निर्धारित होती है।

 चूंकि चुनाव एक खर्चीली प्रक्रिया भी है तो इस कारण इसमें चुनावी चंदे की भूमिका अहम हो जाती है।

इसी चंदे से जुड़े चुनावी बांड का मुद्दा इन दिनों सुर्खियों में छाया हुआ है।

भारत मेें देसी -विदेशी चुनावी चंदे को लेकर  पर्दादारी की परंपरा दशकों पुरानी है।

विदेशी चंदे के बारे में 1967 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री यशवंतराव बलवंतराव चव्हाण ने लोकसभा यह जानकारी दी थी, ‘इस देश के राजनीतिक दलों को मिले विदेशी चंदे के बारे में भारत के केंद्रीय गुप्तचर विभाग की रपट को प्रकाशित नहीं किया जाएगा,क्योंकि इसके प्रकाशन से अनेक व्यक्तियों और दलों के हितों की हानि होगी।’

 इससे पहले विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने उसके प्रकाशन की मांग की थी।

   इस प्रकार उस समय केंद्र में सत्तारूढ़ इंदिरा गांधी सरकार ने यह परंपरा स्थापित कर दी कि सियासी चंदें के मामले में देश को हानि भले हो जाए,लेकिन राजनीतिक दलों और नेताओं को कोई नुकसान नहीं होना चाहिए।

वह परंपरा कमोबेश आज भी देश में कायम है।

ऐसे में इस पुरानी मांग पर एक बार फिर गौर करने की जरूरत है कि मान्यताप्राप्त राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार के जरूरी खर्चे खुद सरकार उठाये।

 1967 के आम चुनाव में सात राज्यों में कांग्रेस हार गई थी।

 तब तक लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ -साथ ही होते थे। याद रहे कि 1967 में आम चुनाव के कुछ महीनों के भीतर दलबदल के कारण दो अन्य राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकारें भी गिर गई थीं।

 उसके बाद वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें गठित हो गई थीं।

चैथे आम चुनाव में लोक सभा में भी कांग्रेस का बहुमत कम हो गया था।

यानी, आज का यह तर्क सही नहीं है कि विभिन्नताओं वाले इस देश में लोक सभा और विधान सभाओं के चुनाव अलग -अलग ही होने चाहिए ।

जब साथ चुनाव होने पर भी परिणाम अलग -अलग आते ही थे तो एक बार फिर एक ही साथ चुनाव कराने में नुकसान क्या है ?

असल में इसके लाभ अधिक हैं।

  अतीत की ओर देखें तो 1967 की चुनावी हार पर तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी चिंतित हो उठी थीं।

पहले से ही उन्हें यह अपुष्ट खबर मिल रही थी कि इस चुनाव में विदेशी धन का इस्तेमाल हुआ है।

तब इंदिरा गांधी को ऐसा लगा कि विदेशी धन सिर्फ विपक्षी दलों को मिला।

इंदिरा सरकार ने गुप्तचर विभाग को इसकी जांच का जिम्मा सौंपा।

जांच रपट सरकार को सौंप दी गयी,लेकिन रपट को सरकार ने दबा दिया।

ऐसा इसलिए क्योंकि वह रपट सत्तारूढ़ दल के लिए भी असहज करने वाली थी।

जांच के दौरान इस बात के भी सबूत मिले थे कि कांग्रेस के ही कुछ नेताओं ने अमेरिका से तो कुछ दूसरे कांग्रेस नेताओं ने सोवियत संघ से पैसे लिये थे।

इस रपट को बाद में अमरीकी अखबार द न्यूयार्क टाइम्स ने छाप दिया था।

  इस रपट के अनुसार सिर्फ एक राजनीतिक दल को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख दलों ने विदेशी चंदा स्वीकार किया था।

गुप्तचर विभाग की उक्त रपट के अनुसार अमेरीकी गुप्तचर एजेंसी और कम्युनिस्ट दूतावासों ने राजनीतिक दलों को काफी पैसे दिए।

उन दिनों विश्व के दो खेमों के बीच शीत युद्ध जारी था।

कम्युनिस्ट और गैर कम्युनिस्ट देशों ने भारत में अपने -अपने खास समर्थक बना रखे थे।

यह किसी से छिपा नहीं रहा कि उस दौर में एक खेमे का नेतृत्त्व अमेरिका और दूसरे खेमे का नेतृत्व सोवियत संघ कर रहा था।

न्यूयार्क टाइम्स की इस सनसनीखेज रपट पर 1967 के प्रारंभ में लोक सभा में बहुत तीखी बहस हुई।

इसके परिणामस्वरूप तमाम भारतीय अखबारों में भी इस खबर को बाद में काफी कवरेज मिला।

जो खबर न्यूयार्क टाइम्स ने ब्रेक की थी, वह खबर भारतीय मीडिया क्यों नहीं ब्रेक कर सका ?

क्या तब भी गोदी मीडिया था ?

इस समय एक तबका गोदी मीडिया का आरोप भारतीय मीडिया को लेकर लगा रहा है,उन्हीं दिनों यह खबर भी आई थी कि इस देश के ही एक बड़े उद्योगपति ने तकरीबन पांच दर्जन सांसदों को अपने ‘पे रोल’ पर रखा हुआ था।

   संसद में स्वतंत्र पार्टी के एक सदस्य ने गृह मंत्री चव्हाण से पूछा कि क्या वह गुप्तचर विभाग की रपट को प्रकाशित करने का बीड़ा उठाएंगे ताकि राजनीतिक दलों को जनता के बीच सफाई पेश करने का मौका मिल सके ?

 रपट के प्रकाशन से इनकार करते हुए चव्हाण ने यह जरूर कहा था कि केंद्र सरकार चुनाव आयोग की मदद से संतानम समिति के उस सुझाव पर विचार कर रही है जिसमें विभिन्न राजनीतिक दलों को हर संभव स्रोतों से प्राप्त होने वाली धन राशि की जांच की बात कही गई है।

इस देश का दुर्भाग्य ही रहा कि जनता आज भी संतानम समिति की रपट को लागू करने की आस लगाए बैठी है।

  समय के साथ राजनीति में काले धन के इस्तेमाल की खबरें बेहद आम होती गयीं।

कई मामलों में तो स्थिति यह हो गयी है कि चुनाव में बाहुबल से अधिक प्रभावी भूमिका धनबल की होती जा रही है।

कुछ समय पहले एक विधान सभा चुनाव में एक उम्मीदवार को दो हजार रुपए के नोट्स मतदाताओं के बीच बांटते हुए टी.वी.पर दिखाया गया था।

अब तो इस देश के छोटे -छोटे दलों के नेता भी र्चाटर्ड प्लेन से घूम रहे हैं।

चुनाव में काले धन के बढ़ते असर से राजनीति की शुचिता प्रभावित हो रही है।

परिणामस्वरूप राजनीतिक कार्यपालिका भी दूषित हो रही है।

प्रशासनिक कार्यपालिका के बारे में तो क्या ही कहा जाए ?

विशेषज्ञ बताते हैं कि एक स्तर पर भ्रष्टाचार, विकास की गति को अपेक्षित रूप से बढ़ने नहीं दे रहा है।

गुणात्मक एवं टिकाऊ

ढांचा निर्माण की कोई गारंटी नहीं है।

चुनावी चंदा भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत बना हुआ है।इसी को देखते हुए चुनावी चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए चुनावी बांड की व्यवस्था की गई थी,लेकिन भली मंशा वाली यह योजना राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव में अपेक्षित परिणाम न देकर खुद विवादों के घेरे में घिर गई।

’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’’

20 मार्च 24 के दैनिक जागरण और नईदुनिया मे एक साथ प्रकाशित।

      






कोई टिप्पणी नहीं: