सरदार खुशवंत सिंह की याद में
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(2 फरवरी 1915--20 मार्च 2014)
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पहले खुशवंत सिंह का एक साप्ताहिक काॅलम पढ़िए।
फिर उनके बारे में कुछ बातें।
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इस काॅलम में ,जो देश के अनेक बड़े बड़े अखबारों में एक साथ छपता था,खुशवंत सिंह ने नेहरू -गांधी के वंशवाद पर लिखा है।
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फलता-फूलता वंशवाद
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भारतीय राजनीति में फैले वंशवाद को राजशाही की धरोहर बता रहे हैं खुशवंत सिंह
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ऐसे देश मंे जहां ग्राम पंचायत या लम्बरदार का बेटा अपने पिता की गद्दी पा लेता है,मुख्य मंत्री का पुत्र या दामाद समझता है कि मुख्य मंत्री पद उनका जन्मसिद्ध अधिकार है।
इस बात से आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि प्रधान मंत्री के पुत्र,पुत्री ,नाती, पोते पीढ़ियों तक ऐसा ही सोचते रहते हैं।
हमारा अपना ही उदाहरण है।
कांग्रेस के सभापति के रूप में मोतीलाल नेहरू ने (1928-29 में )बापू गांधी के साथ मिलकर अपने बेटे जवाहरलाल नेहरू को (कांग्रेस अध्यक्ष की)गद्दी पकड़ा दी।
उससे भारत के प्रधान मंत्री पद का उनका रास्ता पक्का हो गया।
अपनी बारी आने पर जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने कभी कहा था वंशानुगत उत्तराधिकार का सिद्धांत हमारे संसदीय प्रजातंत्र के लिए पूरी तरह से विदेशी है और मैं इसके पूरी तरह से खिलाफ हूं,अपनी पुत्री (इंदिरा गांधी )के कांग्रेस पार्टी का सभापति निर्वाचित होने पर तनिक भी विचलित नहीं हुए।(उल्टे कांग्रेस सांसद महावीर त्यागी को लिखे पत्र में नेहरू ने कहा कि इंदु का अध्यक्ष बनना मुफीद होगा।--सु.कि.)
अचानक लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु होने पर उन्हें प्रधान मंत्री पद मिलने का रास्ता पक्का हो गया।
नेहरू शर्महीन कुनबापरस्ती(शब्दों पर ध्यान दीजिए।)में लिप्त हो गये।
उन्होंने अपनी बहन विजयलक्ष्मी पंडित को मास्को,लंदन और वाशिंगटन में राजदूत और बाद में महाराष्ट्र का राज्यपाल बना दिया।
जनरल कौल ,जिन्होंने चीन के विरूद्ध 1962 के युद्ध में हमारी सेनाओं की कमान संभाली थी,उनके दूर के रिश्तेदार थे।
इसी प्रकार आई.सी.एस.बी.के.नेहरू को कश्मीर का राज्यपाल और दूसरे पदों के रूप में भारी-भरकम नौकरियां दी गईं।
इंदिरा गांधी को संवैधानिक मान्यताओं की तनिक भी ंिचंता करने की आवश्यकता नहीं थी।
वह अपने बेटे संजय को भारत का शासक बनाना चाहती थी।
जब हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गयी तो उनके स्थान पर राजीव गांधी को लाने में उन्हें कोई विचार नहीं करना पड़ा।
अब जबकि संजय,इंदिरा और राजीव नहीं रहे तो हमारे यहां सोनिया और मेनका के रूप में दो विधवाएं हैं जो सर्वोच्च पद पाने की होड़ में लगी हुई हैं।
सोनिया की संतान प्रियंका और राहुल को मेनका के वरूण के खिलाफ लाया जा रहा है और ये सब केंद्रीय कक्ष में घुसने की प्रतीक्षा में हैं।
हालांकि हमारे देश का पश्चिमी ढंग से सोचने वाला संभ्रांत वर्ग वंश परम्परा को बढ़ावा देता है।
आम आदमी इन वंशों के उत्तराधिकारियों को ईमानदारी से चुनाव होने पर अपना वोट कभी नहीं देता।यह प्रजातंत्र की उतरन है।मध्ययुगीन और राजशाही की धरोहर है।
खुशवंत सिंह ने इंदर मल्होत्रा की पुस्तक ‘‘डायनेस्टीज आॅफ इंडिया एण्ड बियाण्ड’’को उधृत करते हुए इस देश व पड़ोस के देशों में चल रहे वंशवाद की भी चर्चा की है।
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आज जबकि भारत की राजनीति में वंशवाद खतरे में आ रहा है,वंश से आए कांग्रेस अयोग्य नेतृत्व के कारण डूब रही है,कई दशक पहले के खुशवंत सिंह के इस काॅलम को पढ़ना
प्रासंगिक है।
इस बीच इस देश के अनेक नेहरू-गांधी के प्रशंसक पत्रकार,इतिहासकार व पुस्तक लेखक यह लिखते रहे हैं कि जवाहरलाल नेहरू ने वंशवाद -परिवारवाद को आगे नहीं बढ़ाया।बेखौफ खुशवंत ने अपने काॅलम में उन सबकी कलई खोलकर रख दी।
इमर्जेंसी में संजय गांधी-मेनका गांधी की तारीफ करने के कारण खुशवंत सिंह को कुछ लोग खुशामद सिंह भी कहते थे।पर एक खुशामद सिंह ने ही नेहरू का अच्छी तरह भंडाफोड किया है।
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लेखक हो तो खुशवंत सिंह जैसा--जिसे जब जो ठीक लगा,वह लिखा।उसकी कलम और बुद्धि किसी के यहां गिरवी
नहीं थी।
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इलेस्टे्रटेड विकली आॅफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक रहे खुशवंत सिंह ने कई चर्चित पुस्तकें लिखीं।
99 साल की उम्र पाये।
एक इंटरव्यू में कहा था-
‘‘मेरा जिस्म बूढ़ा है,आंखें बदमाश और दिल अब भी जवां।’’
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इस साहसी सरदार जी ने मुस्लिम नेताओं से अपील की थी कि आप लोग तीन स्थानों अयोध्या,काशी और मथुरा हिन्दुओं को सौंप दीजिए।बदले में हिन्दू पक्ष 3997 मस्जिदों पर अपना दावा छोड़ दें।पर,यह न होना था और न हुआ।
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25 मार्च 24
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