बुधवार, 6 मार्च 2024

 यदाकदा

सुरेंद्र किशोर

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 बेहतर कानून-व्यवस्था के लिए कारगर थानेदार जरूरी

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नीतीश सरकार ने बेहतर विधि-व्यवस्था के लिए हाल में अनेक ठोस कदम उठाए हैं।

राज्य सरकार की मंशा अपराधियों पर करारा प्रहार करने की है।न सिर्फ कानून कड़े किए जा रहे हैं बल्कि पुलिस को नये अधिकारों से लैस किया जा रहा है।

साथ ही,                                                                                               पुलिस तंत्र को बेहतर साधन भी मुहैया कराएं जा रहे हैं।

पर,इसके साथ ही,एक और तत्व पर गौर करने की सख्त जरूरत है।

वह है थानेदारों की तैनाती में पारदर्शिता लाने की जरूरत।

जब तक पेशेवर आधार पर थानेदारों की तैनाती नहीं होगी,तब तक कोई अन्य उपाय काम नहीं आएगा।

पेशेवर और गैर पेशेवर तरीकों के अंतर के विस्तार में जाने की यहां कोई जरूरत नहीं है।

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भूली बिसरी याद

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संविधान सभा के अध्यक्ष डा.राजेंद्र प्रसाद ने 26 नवंबर 1949 को कहा था कि 

‘‘जिन व्यक्तियों का निर्वाचन किया जाता है यदि वे योग्य,चरित्रवान और ईमानदार हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम संविधान बना सकेंगे।

यदि उनमें इन गुणों का अभाव होगा तो यह संविधान देश की सहायता नहीं कर सकेगा।

आखिर संविधान एक यंत्र के समान एक निष्प्राण वस्तु ही तो है।

उसके प्राण तो वे लोग हैं जो उस पर नियंत्रण रखते हैं और उसका प्रवर्तन करते हैं ।

 देश को आज एक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है जो अपने सामने देश के हित को रखे।’’

डा.प्रसाद ने जो बातें संविधान के बारे में कही थी,वह बात इस देश के नये-पुराने कानूनों पर भी लागू होती हैं।

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दाखिल खारिज और सेवांत लाभ

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सरकारी सूत्रों के अनुसार बिहार में दाखिल-खारिज के करीब पौने आठ लाख मामले में लंबित हैं।

दाखिल-खारिज के मामलों के समाधान के लिए जमीन मालिकों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

इसके कई कारण हैं।

पर,मुख्य कारण लाल फीताशाही है।

 समस्या सरकारी सेवकों के सेवांत लाभ के समय पर भुगतान को लेकर भी सामने आती है।

लाखों लोगों की इन कठिनाइयों का यदि बिहार सरकार समाधान करा दे तो सरकार की वाहवाही होगी।

पर,भुक्तभोगी बताते हैं कि ये काम हिमालय पहाड़ पर चढ़ने की तरह का ही कठिन काम है।

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सांसद-विधायक फंड की निगरानी 

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सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि सांसदों-विधायकों की निगरानी के लिए हम उनके शरीर पर चिप नहीं लगा सकते।

अदालत ने संबंधित याचिकाकर्ताओं को फटकारा भी ।अच्छा किया।

उनकी मांग ही गलत थी।

याचिकाकर्ता जन प्रतिनिधियों की सतत निगरानी की मांग कर रहे थे।मांग की गई थी कि सांसदों-विधायकों की गतिविधियों की 24 घंटे डिजिटल माध्यम से निगरानी के लिए अदालत केंद्र सरकार को निदेश दे।ऐसी मांग याचिकाकर्ता के दिमागी दिवालियापन की ही निशानी है।

पर, सरकार को एक काम करना चाहिए।

सांसद-विधायक फंड के सदुपयोग को सुनिश्चित करने की व्यवस्था करनी चाहिए।

इससे जन प्रतिनिधियों का जनता में सम्मान और भी बढ़ जाएगा।


सबक सिखाने वाली घटना

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भोजपुरी फिल्म अभिनेता पवन सिंह

चुनाव टिकट वापसी प्रकरण ने फिल्मी जगत को अच्छी-खासी सीख दे दी है।

भोजपुरी फिल्मों के गीतों ओर संवादों में अश्लीलता की शिकायतें वर्षों से मिलती रही है।

पर,कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाया गया।

पवन सिंह के अश्लील गानों का पश्चिम बंगाल में ऐसा विरोध हुआ कि 

उनका चुनाव टिकट कट गया।

भाजपा ने उन्हें आसनसोल से उम्मीदवार बनाया था।

अब राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले कोई अन्य फिल्म अभिनेता अश्लीलता से दूर ही रहेंगे,ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

वैसे दोष सिर्फ पवन सिंह जैसे अभिनेताओं का ही नहीं है।

 कसूर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का है।बोर्ड फिल्मों में गैर जरूरी हिंसा

और अश्लीलता को रोकने में अघोषित कारणों से विफल रहा है।

अब आप शायद ही ऐसी फिल्म पाएंगे जिसे आप परिवार के साथ बैठकर  देख सकें।

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सरकार की पहल सराहनीय

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इस बीच यह खबर आई है कि केंद्र सरकार फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया का कायाकल्प करने जा रही है।

इस संबंध में सलाह मांगी गयी।

 नियम बदले जाने हैं।

बोर्ड में अब अधिक महिलाएं रखी जाएंगी।

उम्मीद की जानी चाहिए कि नये नियम कड़े होंगे।पर,यह देखना होगा कि 

उन नियमों का पालन कितना हो रहा है।

प्रमाणन के पुराने नियम मैंने पढ़े हैं।

वे भी ठीकठाक ही हैं।पर लागू करने वालों ने उन्हें अघोषित कारणों से आम तौर पर लागू नहीं करते।

मैंने 1961 में पहली बार हिन्दी फिल्म देखी थी।गिरावट की रफ्तार भी मैंने देखी है।

यदि पुराने नियम ठीक से लागू हों तो ‘‘नदिया के पार’’ और ‘‘बागवान’’ जैसी फिल्मों को ही प्रमाण पत्र मिल सकते हैं।

पर,हो रहा है बिलकुल उल्टा।सन 2014 में घूसखोरी के आरोप में सेंसर बोर्ड के सी.ई.ओ.गिरफ्तार भी हुए थे।

फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ा।सेंसर बोर्ड आम तौर पर असेंसर बोर्ड ही बना

रहा।उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार की नई पहल कारगर होगी। 

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और अंत में

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बिहार सरकार को भी पुलिस कमीश्नरी सिस्टम की स्थापना पर विचार करना चाहिए।संभव है कि उसकी स्थापना से कम से कम बड़े नगरों में कानून-व्यवस्था ठीक करने में आसानी हो।देश के कई राज्यों में यह सिस्टम सफलतापूर्वक काम कर रहा है।

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प्रभात खबर बिहार संस्करण 

4 मार्च 2024

 

 




















































































यदाकदा

सुरेंद्र किशोर

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 बेहतर कानून-व्यवस्था के लिए कारगर थानेदार जरूरी

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नीतीश सरकार ने बेहतर विधि-व्यवस्था के लिए हाल में अनेक ठोस कदम उठाए हैं।

राज्य सरकार की मंशा अपराधियों पर करारा प्रहार करने की है।न सिर्फ कानून कड़े किए जा रहे हैं बल्कि पुलिस को नये अधिकारों से लैस किया जा रहा है।

साथ ही,                                                                                               पुलिस तंत्र को बेहतर साधन भी मुहैया कराएं जा रहे हैं।

पर,इसके साथ ही,एक और तत्व पर गौर करने की सख्त जरूरत है।

वह है थानेदारों की तैनाती में पारदर्शिता लाने की जरूरत।

जब तक पेशेवर आधार पर थानेदारों की तैनाती नहीं होगी,तब तक कोई अन्य उपाय काम नहीं आएगा।

पेशेवर और गैर पेशेवर तरीकों के अंतर के विस्तार में जाने की यहां कोई जरूरत नहीं है।

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भूली बिसरी याद

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संविधान सभा के अध्यक्ष डा.राजेंद्र प्रसाद ने 26 नवंबर 1949 को कहा था कि 

‘‘जिन व्यक्तियों का निर्वाचन किया जाता है यदि वे योग्य,चरित्रवान और ईमानदार हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम संविधान बना सकेंगे।

यदि उनमें इन गुणों का अभाव होगा तो यह संविधान देश की सहायता नहीं कर सकेगा।

आखिर संविधान एक यंत्र के समान एक निष्प्राण वस्तु ही तो है।

उसके प्राण तो वे लोग हैं जो उस पर नियंत्रण रखते हैं और उसका प्रवर्तन करते हैं ।

 देश को आज एक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है जो अपने सामने देश के हित को रखे।’’

डा.प्रसाद ने जो बातें संविधान के बारे में कही थी,वह बात इस देश के नये-पुराने कानूनों पर भी लागू होती हैं।

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दाखिल खारिज और सेवांत लाभ

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सरकारी सूत्रों के अनुसार बिहार में दाखिल-खारिज के करीब पौने आठ लाख मामले में लंबित हैं।

दाखिल-खारिज के मामलों के समाधान के लिए जमीन मालिकों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

इसके कई कारण हैं।

पर,मुख्य कारण लाल फीताशाही है।

 समस्या सरकारी सेवकों के सेवांत लाभ के समय पर भुगतान को लेकर भी सामने आती है।

लाखों लोगों की इन कठिनाइयों का यदि बिहार सरकार समाधान करा दे तो सरकार की वाहवाही होगी।

पर,भुक्तभोगी बताते हैं कि ये काम हिमालय पहाड़ पर चढ़ने की तरह का ही कठिन काम है।

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सांसद-विधायक फंड की निगरानी 

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सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि सांसदों-विधायकों की निगरानी के लिए हम उनके शरीर पर चिप नहीं लगा सकते।

अदालत ने संबंधित याचिकाकर्ताओं को फटकारा भी ।अच्छा किया।

उनकी मांग ही गलत थी।

याचिकाकर्ता जन प्रतिनिधियों की सतत निगरानी की मांग कर रहे थे।मांग की गई थी कि सांसदों-विधायकों की गतिविधियों की 24 घंटे डिजिटल माध्यम से निगरानी के लिए अदालत केंद्र सरकार को निदेश दे।ऐसी मांग याचिकाकर्ता के दिमागी दिवालियापन की ही निशानी है।

पर, सरकार को एक काम करना चाहिए।

सांसद-विधायक फंड के सदुपयोग को सुनिश्चित करने की व्यवस्था करनी चाहिए।

इससे जन प्रतिनिधियों का जनता में सम्मान और भी बढ़ जाएगा।


सबक सिखाने वाली घटना

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भोजपुरी फिल्म अभिनेता पवन सिंह

चुनाव टिकट वापसी प्रकरण ने फिल्मी जगत को अच्छी-खासी सीख दे दी है।

भोजपुरी फिल्मों के गीतों ओर संवादों में अश्लीलता की शिकायतें वर्षों से मिलती रही है।

पर,कोई सुधारात्मक कदम नहीं उठाया गया।

पवन सिंह के अश्लील गानों का पश्चिम बंगाल में ऐसा विरोध हुआ कि 

उनका चुनाव टिकट कट गया।

भाजपा ने उन्हें आसनसोल से उम्मीदवार बनाया था।

अब राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले कोई अन्य फिल्म अभिनेता अश्लीलता से दूर ही रहेंगे,ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।

वैसे दोष सिर्फ पवन सिंह जैसे अभिनेताओं का ही नहीं है।

 कसूर केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड का है।बोर्ड फिल्मों में गैर जरूरी हिंसा

और अश्लीलता को रोकने में अघोषित कारणों से विफल रहा है।

अब आप शायद ही ऐसी फिल्म पाएंगे जिसे आप परिवार के साथ बैठकर  देख सकें।

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सरकार की पहल सराहनीय

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इस बीच यह खबर आई है कि केंद्र सरकार फिल्म प्रमाणन प्रक्रिया का कायाकल्प करने जा रही है।

इस संबंध में सलाह मांगी गयी।

 नियम बदले जाने हैं।

बोर्ड में अब अधिक महिलाएं रखी जाएंगी।

उम्मीद की जानी चाहिए कि नये नियम कड़े होंगे।पर,यह देखना होगा कि 

उन नियमों का पालन कितना हो रहा है।

प्रमाणन के पुराने नियम मैंने पढ़े हैं।

वे भी ठीकठाक ही हैं।पर लागू करने वालों ने उन्हें अघोषित कारणों से आम तौर पर लागू नहीं करते।

मैंने 1961 में पहली बार हिन्दी फिल्म देखी थी।गिरावट की रफ्तार भी मैंने देखी है।

यदि पुराने नियम ठीक से लागू हों तो ‘‘नदिया के पार’’ और ‘‘बागवान’’ जैसी फिल्मों को ही प्रमाण पत्र मिल सकते हैं।

पर,हो रहा है बिलकुल उल्टा।सन 2014 में घूसखोरी के आरोप में सेंसर बोर्ड के सी.ई.ओ.गिरफ्तार भी हुए थे।

फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ा।सेंसर बोर्ड आम तौर पर असेंसर बोर्ड ही बना

रहा।उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार की नई पहल कारगर होगी। 

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और अंत में

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बिहार सरकार को भी पुलिस कमीश्नरी सिस्टम की स्थापना पर विचार करना चाहिए।संभव है कि उसकी स्थापना से कम से कम बड़े नगरों में कानून-व्यवस्था ठीक करने में आसानी हो।देश के कई राज्यों में यह सिस्टम सफलतापूर्वक काम कर रहा है।

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प्रभात खबर बिहार संस्करण 

4 मार्च 2024

 

 





















































































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