साझा सरकार भी कर सकती है कमाल बशर्ते...
--सुरेंद्र किशोर--
आपने कोई ऐसी ईमानदार राज्य सरकार देखी है जिसकी
धमक से कचहरियों में पेशकार भी नजराना लेना बंद कर दंे ?
मैंने तो देखी है।सन 1967 में बिहार में वैसी ही मिलीजुली सरकार बनी थी।
तब मेरा अनुभव एक जिला अदालत का था।हालांकि जिला कचहरियों पर राज्य सरकार का नहीं बल्कि हाईकोर्ट का कंठ्रोल रहता है।फिर भी यह कमाल देखा गया था।
गैर कांग्रेसी सरकार आते ही जब राज्य सरकार के दफ्तरों में घूसखोरी बंद हो गई तो कचहरियों के कर्मचारी भी डर गए थे।उन्हें लगा कि पता नहीं, कब किसके यहां छापा पड़ जाए।
महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी 1967 की उस गैर कांग्रेसी सरकार में जो भी मंत्री बने थे, वे तपे -तपाए और ईमानदार नेता थे।
दशकों से उन्होंने जनता के लिए संघर्ष किया था।
पर, उसी राज्य सरकार के कुछ मंत्रियों ने बाद के महीनों में जब अपनी हल्की सी कमजोरियां दिखार्इं तो फिर सामान्य सरकारी दफ्तरों और कचहरियों में भी पुराना नजारा दिखाई पड़ने लगा था।
फिर भी मेरा मानना है कि 1967 की महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार बिहार की अब तक की सर्वाधिक ईमानदार सरकार रही।
हालांकि वह मिलीजुली सरकार ही थी।उससे पहले और बाद के कुछ मुख्य मंत्री भी ईमानदार जरूर रहे ,पर उनके सभी मंत्रियों के बारे में वैसी ही बात नहीं कही जा सकती।
पूरी महामाया सरकार अपने कार्यकाल के प्रारंभिक महीनों
में कुल मिलाकर ईमानदार व कर्मठ बनी रही थी।
यदि आज भी कोई वैसी मिलीजुली सरकार केंद्र में बने जिसके प्रधान मंत्री से लेकर मंत्री तक अच्छी मंशा वाले हों तो
वह सरकार भी कमाल कर सकती है ! वैसे तो यह एक भोली आशा ही है,पर उसकी कल्पना कर लेने में क्या दिक्कत है ?
पर 1967 में अधिकतर गैरकांग्रेसी नेतागण तब तक अच्छी मंशा वाले थे और महामाया सरकार के मंत्री गण आत्म अनुशासन की भावना से भी लैस थे।
हालांकि उन्हीं मंत्रियों में कुछ मंत्री बाद के वर्षों में संयम नहीं रख सके।बाद के दशकों में तो कुछ अपवादों को छोड़कर उन नेताओं में से कुछ की और भी खराब स्थिति हो गई ।
पर अभी बात एक खास कालावधि के दलों ,नेताओं और उनके मंत्रियों की हो रही है।
1966-67 की कालावधि में डा.राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद चलाया और कई दलों को साथ मिलकर 1967 का चुनाव लड़ने के लिए राजी किया।
जो गैर कांग्रेसी दल चुनाव मिलकर नहीं लड़े,वे भी सरकार में शामिल हो गए।
प्रतिपक्षी एकता के कारण सात राज्यों में 1967 में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं।बाद में दो राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की कांग्रेसी सरकारें दल बदल के कारण कुछ सप्ताह में ही गिर गई और वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं।
उत्तर प्रदेश के गैर कांग्रेसी मुख्य मंत्री चरण सिंह बने और मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह।
चरण सिंह और गोविंद नारायण सिंह पहले कांग्रेस में थे।
डा.लोहिया ने कहा था कि गैर कांग्रेसी सरकारों को पहले छह महीनों में ही कोई क्रांतिकारी कदम उठाना चाहिए ताकि गैर कांग्रेसी सरकार और कांग्रेसी सरकार का भेद साफ-साफ लोगों के सामने आ जाए।
1967 में बिहार में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ,जनसंघ,सी.पी.आई.,जन क्रांति दल और प्रजा समाजवादी पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई थी।
महामाया प्रसाद सिन्हा जन क्रांति दल के नेता थे।संसोपा के कर्पूरी ठाकुर उप मुख्य मंत्री और वित्त मंत्री बने।उनके पास शिक्षा विभाग भी था।
67 विधायकों के साथ सबसे बड़ा दल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ही था।
डा.लोहिया कर्पूरी ठाकुर को मुख्य मंत्री बनवाना चाहते थे ,पर घटक दल के कतिपय सामंतवादी नेताओं ने वीटो लगा दिया।
यह पहला और आखिरी अवसर था जब जनसंघ और सी.पी.आई.एक ही सरकार के अंग बने थे।
तब उत्तर प्रदेश में भी चरण सिंह की सरकार में दोनों दल एक साथ मंत्रिमंडल में थे।
यह गैर कांग्रेसवाद की भावना का दबाव था।
बिहार की वह सरकार 33 सूत्री न्यनत्तम कार्यक्रम के आधार पर चल रही थी।हालांकि एक सूत्र यानी उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के सवाल पर जनसंघ का विरोध था।
उस सरकार की मोनिटरिंग दिल्ली में बैठकर संसोपा के सुप्रीमो डा.लोहिया कर रहे थे।
डा. लोहिया चाहते थे कि मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही मैट्रिक पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म हो और अलाभकर जोत यानी सवा छह एकड़ से कम की जोत पर से लगान समाप्त कर दिया जाए।
पर,ऐसा नहीं हो सका था।
इस बीच जब कर्पूरी ठाकुर दिल्ली गए तो लोहिया ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया।वे सख्त नाराज थे।
लोहिया अपने कमरे में थे।कर्पूरी ठाकुर उनके बैठकखाने में देर तक बैठे रहे।लोहिया जी के निजी सचिव उर्मिलेश झा कर्पूरी ठाकुर के आने की सूचना लेकर लोहिया के कमरे में गए।
लोहिया ने कहा कि उससे कह दो मैं नहीं मिलूंगा।
झा जी बिहार के ही थे।वे नहीं चाहते थे कि बिना मिले कर्पूरी जी वापस जाएं।वे लोहिया जी को मनाने की कोशिश करते रहे।
लोहिया नहीं माने।अंत में उर्मिलेश जी ने कर्पूरी ठाकुर से कहा कि डाक्टर साहब की तबियत ठीक नहीं है।
चतुर कर्पूरी जी को यह समझते देर नहीं लगी कि सिर्फ तबियत की सूचना लेने-देने मंे उर्मिलेश जी को आधा घंटा क्यों लग गया।
जरूर लोहिया जी नाराज हैं।
कर्पूरी जी बिना मिले पटना लौट गए।उन्होंने मंत्रिमंडल की तुरंत बैठक बुलवाई और दोनों काम कर दिए।
जब महामाया सरकार बनी थी तब राज्य सूखा और बाढ़ की विभीषिका से अभूतपूर्व ढंग से तबाह था।मिलीजुली सरकार के मंत्रियों ने इन समस्याओं से मेहनत और ईमानदारी से जूझने का काम किया और सफलता भी हासिल की।
उसको लेकर महामाया सरकार की हर जगह तारीफ हुई।
पर महामाया सरकार कुछ सत्तालोलुप नेताओं की महत्वाकांक्षा के कारण समय से पहले गिर गई।
संसोपा , जनसंघ और सी.पी.आई.सहित घटक दलों के करीब तीन दर्जन विधायकों ने सत्ता पाने के लिए दल बदल कर लिया।
सरकार गिर गई।
पर, उससे पहले महामाया सरकार ने एक दूरगामी परिणाम वाला काम किया था।उसने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज
टी.एल.वेंकटराम अय्यर की अध्यक्षता में एक जांच आयोग गठित किया।
1946 से 1966 तक सत्ता में रहे जिन 6 कांग्रेसियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे,उनकी जांच इस आयोग ने शुरू की थी।
उससे परेशान प्रमुख कांग्रेसियांे ने महामाया सरकार गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यदि अय्यर आयोग द्वारा दोषी करार दिए गए नेताओं को तौल कर सजा हो गई होती तो बाद के दिनों में बिहारी नेता लोग भ्रष्टाचार करने के पहले सौ बार सोचते।पर सरकार बदलने के कारण वैसा न हो सका।
उसका खामियाजा बिहार को दशकों तक भुगतना पड़ा।
@हस्तक्षेप-राष्ट्रीय सहारा-19 मई, 2019@
--सुरेंद्र किशोर--
आपने कोई ऐसी ईमानदार राज्य सरकार देखी है जिसकी
धमक से कचहरियों में पेशकार भी नजराना लेना बंद कर दंे ?
मैंने तो देखी है।सन 1967 में बिहार में वैसी ही मिलीजुली सरकार बनी थी।
तब मेरा अनुभव एक जिला अदालत का था।हालांकि जिला कचहरियों पर राज्य सरकार का नहीं बल्कि हाईकोर्ट का कंठ्रोल रहता है।फिर भी यह कमाल देखा गया था।
गैर कांग्रेसी सरकार आते ही जब राज्य सरकार के दफ्तरों में घूसखोरी बंद हो गई तो कचहरियों के कर्मचारी भी डर गए थे।उन्हें लगा कि पता नहीं, कब किसके यहां छापा पड़ जाए।
महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में बनी 1967 की उस गैर कांग्रेसी सरकार में जो भी मंत्री बने थे, वे तपे -तपाए और ईमानदार नेता थे।
दशकों से उन्होंने जनता के लिए संघर्ष किया था।
पर, उसी राज्य सरकार के कुछ मंत्रियों ने बाद के महीनों में जब अपनी हल्की सी कमजोरियां दिखार्इं तो फिर सामान्य सरकारी दफ्तरों और कचहरियों में भी पुराना नजारा दिखाई पड़ने लगा था।
फिर भी मेरा मानना है कि 1967 की महामाया प्रसाद सिन्हा की सरकार बिहार की अब तक की सर्वाधिक ईमानदार सरकार रही।
हालांकि वह मिलीजुली सरकार ही थी।उससे पहले और बाद के कुछ मुख्य मंत्री भी ईमानदार जरूर रहे ,पर उनके सभी मंत्रियों के बारे में वैसी ही बात नहीं कही जा सकती।
पूरी महामाया सरकार अपने कार्यकाल के प्रारंभिक महीनों
में कुल मिलाकर ईमानदार व कर्मठ बनी रही थी।
यदि आज भी कोई वैसी मिलीजुली सरकार केंद्र में बने जिसके प्रधान मंत्री से लेकर मंत्री तक अच्छी मंशा वाले हों तो
वह सरकार भी कमाल कर सकती है ! वैसे तो यह एक भोली आशा ही है,पर उसकी कल्पना कर लेने में क्या दिक्कत है ?
पर 1967 में अधिकतर गैरकांग्रेसी नेतागण तब तक अच्छी मंशा वाले थे और महामाया सरकार के मंत्री गण आत्म अनुशासन की भावना से भी लैस थे।
हालांकि उन्हीं मंत्रियों में कुछ मंत्री बाद के वर्षों में संयम नहीं रख सके।बाद के दशकों में तो कुछ अपवादों को छोड़कर उन नेताओं में से कुछ की और भी खराब स्थिति हो गई ।
पर अभी बात एक खास कालावधि के दलों ,नेताओं और उनके मंत्रियों की हो रही है।
1966-67 की कालावधि में डा.राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद चलाया और कई दलों को साथ मिलकर 1967 का चुनाव लड़ने के लिए राजी किया।
जो गैर कांग्रेसी दल चुनाव मिलकर नहीं लड़े,वे भी सरकार में शामिल हो गए।
प्रतिपक्षी एकता के कारण सात राज्यों में 1967 में गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं।बाद में दो राज्यों उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की कांग्रेसी सरकारें दल बदल के कारण कुछ सप्ताह में ही गिर गई और वहां भी गैर कांग्रेसी सरकारें बन गईं।
उत्तर प्रदेश के गैर कांग्रेसी मुख्य मंत्री चरण सिंह बने और मध्य प्रदेश में गोविंद नारायण सिंह।
चरण सिंह और गोविंद नारायण सिंह पहले कांग्रेस में थे।
डा.लोहिया ने कहा था कि गैर कांग्रेसी सरकारों को पहले छह महीनों में ही कोई क्रांतिकारी कदम उठाना चाहिए ताकि गैर कांग्रेसी सरकार और कांग्रेसी सरकार का भेद साफ-साफ लोगों के सामने आ जाए।
1967 में बिहार में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ,जनसंघ,सी.पी.आई.,जन क्रांति दल और प्रजा समाजवादी पार्टी ने मिल कर सरकार बनाई थी।
महामाया प्रसाद सिन्हा जन क्रांति दल के नेता थे।संसोपा के कर्पूरी ठाकुर उप मुख्य मंत्री और वित्त मंत्री बने।उनके पास शिक्षा विभाग भी था।
67 विधायकों के साथ सबसे बड़ा दल संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ही था।
डा.लोहिया कर्पूरी ठाकुर को मुख्य मंत्री बनवाना चाहते थे ,पर घटक दल के कतिपय सामंतवादी नेताओं ने वीटो लगा दिया।
यह पहला और आखिरी अवसर था जब जनसंघ और सी.पी.आई.एक ही सरकार के अंग बने थे।
तब उत्तर प्रदेश में भी चरण सिंह की सरकार में दोनों दल एक साथ मंत्रिमंडल में थे।
यह गैर कांग्रेसवाद की भावना का दबाव था।
बिहार की वह सरकार 33 सूत्री न्यनत्तम कार्यक्रम के आधार पर चल रही थी।हालांकि एक सूत्र यानी उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा देने के सवाल पर जनसंघ का विरोध था।
उस सरकार की मोनिटरिंग दिल्ली में बैठकर संसोपा के सुप्रीमो डा.लोहिया कर रहे थे।
डा. लोहिया चाहते थे कि मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही मैट्रिक पास करने के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म हो और अलाभकर जोत यानी सवा छह एकड़ से कम की जोत पर से लगान समाप्त कर दिया जाए।
पर,ऐसा नहीं हो सका था।
इस बीच जब कर्पूरी ठाकुर दिल्ली गए तो लोहिया ने उनसे मिलने से इनकार कर दिया।वे सख्त नाराज थे।
लोहिया अपने कमरे में थे।कर्पूरी ठाकुर उनके बैठकखाने में देर तक बैठे रहे।लोहिया जी के निजी सचिव उर्मिलेश झा कर्पूरी ठाकुर के आने की सूचना लेकर लोहिया के कमरे में गए।
लोहिया ने कहा कि उससे कह दो मैं नहीं मिलूंगा।
झा जी बिहार के ही थे।वे नहीं चाहते थे कि बिना मिले कर्पूरी जी वापस जाएं।वे लोहिया जी को मनाने की कोशिश करते रहे।
लोहिया नहीं माने।अंत में उर्मिलेश जी ने कर्पूरी ठाकुर से कहा कि डाक्टर साहब की तबियत ठीक नहीं है।
चतुर कर्पूरी जी को यह समझते देर नहीं लगी कि सिर्फ तबियत की सूचना लेने-देने मंे उर्मिलेश जी को आधा घंटा क्यों लग गया।
जरूर लोहिया जी नाराज हैं।
कर्पूरी जी बिना मिले पटना लौट गए।उन्होंने मंत्रिमंडल की तुरंत बैठक बुलवाई और दोनों काम कर दिए।
जब महामाया सरकार बनी थी तब राज्य सूखा और बाढ़ की विभीषिका से अभूतपूर्व ढंग से तबाह था।मिलीजुली सरकार के मंत्रियों ने इन समस्याओं से मेहनत और ईमानदारी से जूझने का काम किया और सफलता भी हासिल की।
उसको लेकर महामाया सरकार की हर जगह तारीफ हुई।
पर महामाया सरकार कुछ सत्तालोलुप नेताओं की महत्वाकांक्षा के कारण समय से पहले गिर गई।
संसोपा , जनसंघ और सी.पी.आई.सहित घटक दलों के करीब तीन दर्जन विधायकों ने सत्ता पाने के लिए दल बदल कर लिया।
सरकार गिर गई।
पर, उससे पहले महामाया सरकार ने एक दूरगामी परिणाम वाला काम किया था।उसने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज
टी.एल.वेंकटराम अय्यर की अध्यक्षता में एक जांच आयोग गठित किया।
1946 से 1966 तक सत्ता में रहे जिन 6 कांग्रेसियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे,उनकी जांच इस आयोग ने शुरू की थी।
उससे परेशान प्रमुख कांग्रेसियांे ने महामाया सरकार गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
यदि अय्यर आयोग द्वारा दोषी करार दिए गए नेताओं को तौल कर सजा हो गई होती तो बाद के दिनों में बिहारी नेता लोग भ्रष्टाचार करने के पहले सौ बार सोचते।पर सरकार बदलने के कारण वैसा न हो सका।
उसका खामियाजा बिहार को दशकों तक भुगतना पड़ा।
@हस्तक्षेप-राष्ट्रीय सहारा-19 मई, 2019@
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