मां की यादें
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मां के साथ संतान के संबंध में कोई स्वार्थ नहीं होता।
यानी, निःस्वार्थ प्यार सिर्फ मां का प्यार ही होता है।
पिता का तो कम से कम यह स्वार्थ रहता ही है कि मेरी संतान मुझसे आगे बढ़ जाए।अधिक तरक्की करे।
पर मां को इन सबसे भी कोई मतलब नहीं।
बाकी लोगों के साथ आपसी ‘लेन देन’ का रिश्ता होता है।
जरूरी नहीं कि उससे पैसे ही जुड़े हों।
लेन देन मतलब आप जितना स्नेह दीजिएगा,उतना पाइएगा।
जितना सम्मान दीजिएगा,उतना पाइएगा।
जितना दूसरे का ध्यान रखिएगा,उतना वह आपका ध्यान रखेगा।
अपवाद की बात और है।
ठीक ही कहा गया है,
‘कुछ हंस कर बोल दो,
कुछ हंस कर टाल दो।
परेशानियां बहुत हैं,
कुछ वक्त पर डाल दो।’
मां के अलावा बाकी लोगों से संबंध निभाते रहने के लिए इस फार्मूले का इस्तेमाल किया जा सकता है।
संबंध तो कच्चा धागा है जिस पर निरंतर प्रेम का मांझा
लगाते रहना पड़ता है।
पर मां के मामले में इसकी भी जरूरत नहीं पड़ती।
और अंत में
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एक बार मेरी पत्नी मेरे नन्हे पुत्र को पीट रही थीं।शिक्षिका हैं,वैसे भी उनका अधिकार था।
तब तक सरकार ने शिक्षकों के हाथों से छडि़यां नहीं छीनी थीं।
खैर ,मेरी मां भी मेरे साथ ही रहती थीं।
उसे पोते पर दया आ गई।
बोली, क्यों मार रही हो ?
उसने कहा कि ‘होम वर्क नहीं बनाया है।’
मेरी मां ने कहा कि
‘मैंने तो कभी एक चटकन भी नहीं मारा,
फिर भी मेरे दोनों बबुआ कैसे पढ-लिख गए ?’
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मां के साथ संतान के संबंध में कोई स्वार्थ नहीं होता।
यानी, निःस्वार्थ प्यार सिर्फ मां का प्यार ही होता है।
पिता का तो कम से कम यह स्वार्थ रहता ही है कि मेरी संतान मुझसे आगे बढ़ जाए।अधिक तरक्की करे।
पर मां को इन सबसे भी कोई मतलब नहीं।
बाकी लोगों के साथ आपसी ‘लेन देन’ का रिश्ता होता है।
जरूरी नहीं कि उससे पैसे ही जुड़े हों।
लेन देन मतलब आप जितना स्नेह दीजिएगा,उतना पाइएगा।
जितना सम्मान दीजिएगा,उतना पाइएगा।
जितना दूसरे का ध्यान रखिएगा,उतना वह आपका ध्यान रखेगा।
अपवाद की बात और है।
ठीक ही कहा गया है,
‘कुछ हंस कर बोल दो,
कुछ हंस कर टाल दो।
परेशानियां बहुत हैं,
कुछ वक्त पर डाल दो।’
मां के अलावा बाकी लोगों से संबंध निभाते रहने के लिए इस फार्मूले का इस्तेमाल किया जा सकता है।
संबंध तो कच्चा धागा है जिस पर निरंतर प्रेम का मांझा
लगाते रहना पड़ता है।
पर मां के मामले में इसकी भी जरूरत नहीं पड़ती।
और अंत में
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एक बार मेरी पत्नी मेरे नन्हे पुत्र को पीट रही थीं।शिक्षिका हैं,वैसे भी उनका अधिकार था।
तब तक सरकार ने शिक्षकों के हाथों से छडि़यां नहीं छीनी थीं।
खैर ,मेरी मां भी मेरे साथ ही रहती थीं।
उसे पोते पर दया आ गई।
बोली, क्यों मार रही हो ?
उसने कहा कि ‘होम वर्क नहीं बनाया है।’
मेरी मां ने कहा कि
‘मैंने तो कभी एक चटकन भी नहीं मारा,
फिर भी मेरे दोनों बबुआ कैसे पढ-लिख गए ?’
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