बिला जाएगा वोट बैंक
-- सुरेंद्र किशोर --
यदि अनिवार्य मतदान से ‘वोट बैंक’ की विवादास्पद राजनीति की बुराइयां कम होती हंै तो इसे आजमाया जाना चाहिए।
आस्ट्रेलिया और मैक्सिको सहित दुनिया के 22 देशों में मतदान करना अनिवार्य है।
वहां की अनिवार्यता के तर्क व कारण कुछ और भी हो सकते हैं।पर भारत में पिछले कुछ दशकों से वोट बैंक की राजनीति ने प्रशासन व राजनीति को जितना नुकसान पहुंचाया है,उतना किसी अन्य एक तत्व ने नहीं।
राजनीति और प्रशासन में सत्तर के दशक से यह बीमारी घर कर गई।तब चार सामाजिक समूहों के बल पर केंद्र मे सरकार सत्ता में थी।अब तो इसने विकराल रूप धारण कर लिया है।यह राजनीति राज्यों में यह अपना खूब रंग दिखा रही है।
किसी राज्य में मात्र दो सामाजिक समूहों का अपना वोट बैंक बनाइए और तालमेल करके राज्य की सत्ता पा लीजिए।
सिर्फ उन सामाजिक समूहों की जरूरतों को पूरा करते रहिए ।आप अगली बार भी चुनाव जीत सकते हैं।कमी पड़े तो इसी तरह के वोट बैंक के किसी अन्य ‘स्वामी दल’ से चुनावी समझौता कर लीजिए।
पूरे समाज के सम्यक विकास की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी।आराम कीजिए।पैसे कमाइए।समय आने पर अगली पीढ़ी को सत्ता सौंपने कव इंतजाम कर दीजिए।
इसी तरह के बड़े गठजोड़ों
के जरिए केंद्र की सत्ता हासिल की ही जा सकती है।हासिल होती भी रही है।
हाल के दशकों के अनुभव बताते हैं कि जातीय व साम्प्रदायिक वोट बैंक के सहारे सत्ता में आने वाले दलों के राज में भ्रष्टाचार और अपराध अपेक्षाकृत अधिक होते हैं।क्या इस समस्या के समाधान के लिए कोई उपाय नहीं होना चाहिए !
इस बीच नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी
अमिताभ कांत ने कहा है कि
‘आस्ट्रेलिया में भी चुनाव चल रहे हैं।वहां मतदान अनिवार्य है।और ऐसा न करने पर 20 डालर का जुर्माना लगता है।
जेल भी हो सकती है।शहरी भारत में मध्य वर्ग और अमीरों की मतदान को लेकर बेरुखी को देखते हुए भारत में भी इसे आजमाया जाना चाहिए।’
यदि सचमुच कभी अमिताभ कांत की बातों पर गौर किया गया और यहां भी मतदान अनिवार्य हो गया तो जातीय -साम्प्रदायिक वोट बैंक के आधार पर राजनीति करने वाले कुछ दलों की खटिया खड़ी हो सकती है।कई दुकानें बंद हो सकती हैं।
कोई भी सामाजिक वोट बैंक 10 से 20 प्रतिशत तक की आबादी का ही होता है।
यदि 90 प्रतिशत वोट पड़ने लगेंगे तो वोट बैंक के दायरे वाले 10-20 प्रतिशत वोट उस 90 प्रतिशत में बिला जाएंगे।महत्वहीन हो जाएंगे।चुनाव नतीजोें को शायद ही प्रभावित कर सकें।
आस्टे्रलिया में मतदान करना अनिवार्य है।फिर भी वहां औसतन 90 प्रतिशत ही मतदान हो पाता है।सौ प्रतिशत नहीं।
हमारे यहां अभी अनिवार्य नहीं है।फिर भी लोक सभा के मौजूदा चुनाव के पहले फेज में त्रिपुरा में 81 दशमलव 8 प्रतिशत मतदान हुए।यानी लगभग 82 प्रतिशत।आस्ट्रेलिया से सिर्फ आठ प्रतिशत कम।
इस बार पश्चिम बंगाल में भी उस फेज में 81 प्रतिशत वोट पड़े हैं।
अन्य राज्यों में मतदान का प्रतिशत जरूर अभी काफी कम है।
पर अनिवार्य करने पर वहां भी 90 प्रतिशत पहुंच ही सकता है।
जब अधिक लोग मतदान करने लगेंेगे तो आम राजनीतिक दल व नेता भी मतदाताओं के प्रति उदासीन नहीं रह पाएंगे।
उधर जातीय -साम्प्रदायिक वोट बैंक के किले में सुरक्षित रहने वाले दल व उनके नेता भी नींद से जगेंगे।
उन्हें अपनी पुरानी राजनीतिक शैली को बदलने के बारे में सोचना पड़ेगा।अन्यथा समय के साथ वे विलोपित हो जाएंगे।
यह छिपी हुई बात नहीं है कि जातीय और साम्प्रदायिक वोट बैंक के किले में सुरक्षित दलों व नेताओं के शासन काल में भ्रष्टाचार और अपराध कुछ अधिक ही होते हैं।वे यह समझते हैं कि हमारी सारी गलतियों को हमारा वोट बैंक नजरअंदाज कर देगा।
जो दल जातीय-साम्प्रदायिक वोट बैंक पर कम निर्भर हैं,उनके समक्ष विकास -कल्याण कार्यक्रमों को करने की मजबूरी रहती है।उन्हें काम पर ही वोट मिलते हैं,भावना पर नहीं।
वोट बैंक वाले दल हर चुनाव में अपने खास मतदाताओं के सामने एक काल्पनिक भय दिखा कर उन्हें अपने साथ बांधे रखते हैं।
कोई नेता कहता है कि हमारी जाति को उचित सम्मान नहीं मिल रहा है।इस काम में फलां दल या जाति बाधक है।इसलिए उन्हें हराना है।
कोई दूसरा नेता कहता है कि हमारे आरक्षण पर खतरा है।कोई कुछ कहता है तो कोई कुछ अन्य बात।
सारी बातें मंच से ही नहीं कही जाती।
कई बातें कानोंकान सफर कराई जाती है।
कई साल पहले कतिपय भाजपा नेताओं ने यह संकेत दिया था कि हम मतदान अनिवार्य कर सकते हैं।
यदि नरेंद्र मोदी की सरकार अगली बार भी सत्ता में आ गई तो वह अमिताभ कांत के सुझाव पर विचार कर सकती है।क्या भाजपा नेताओं की मंशा को भांप कर ही अमिताभ कांत ने लिखा है कि आस्टे्रलिया की तरह भारत में भी आजमाया जा सकता है ? पता नहीं।
पर यदि कोई सरकार इसे कार्य रूप दे दे तो वह काम व्यापक जनहित में होगा।
दुनिया के कुछ देशों में मतदान नहीं करने पर सजा का प्रावधान है।
भारत में वह कुछ ज्यादा ही हो जाएगा।इसलिए यहां की सजा यही हो सकती है कि कुछ समय के लिए कतिपय सरकारी सुविधाएं रोक दी जाए जो मतदान करने न जाएं।
इसका सकारात्मक असर होगा।धीरे -धीरे लोगों को आदत लग जाएगी।
वोट बैंक की ताकत के बल पर अभी अनेक चुनाव क्षेत्रों में बाहुबली और धनवान उम्मीदवार आसानी से चुनाव जीत जाते हैं।यदि अनिवार्य मतदान के कारण ऐसे उम्मीदवार हारने लगेंगे तो अनिवार्य मतदान की कठोरता भी लोगों को बुरा नहीं लगेगी।
आज तो औसतन 60-70 प्रतिशत मतदाता ही इस देश में मतदान करते हैं और मतों के भारी बंटवारे के कारण 20 -25 प्रतिशत या उससे भी कम मत पाने वाले उम्मीदवार भी कई बार चुनाव जीत जाते हैं।कुछ दफा तो ऐसा भी होता है कि जिस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है,वह भी चुन लिया जाता है।
यदि अस्सी -नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान करने लगे तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंकों के सौदागर अत्यंत कम वोट पाकर चुनाव नहीं जीत पाएंगे।भारत में आम तौर पर किसी चुनाव क्षेत्र में किसी धार्मिक या जातीय समूह की आबादी 20-25 प्रतिशत से अधिक नहीं है।अपवादस्वरूप कुछ ही क्षेत्र ऐसे हैं जहां बात इसके विपरीत है।
यदि कोई जातीय या धार्मिक समूह अधिकतर चुनाव क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं होंगे तो नेतागण भी सिर्फ सांप्रदायिक या जातीय आधार
पर ही अपनी पूरी राजनीति और रणनीति तय नहीं करेंगे।
इससे देश का भी भला होगा।
जातीय व साम्प्रदायिक वोट बैंक की एक बड़ी बुराई हाल के वर्षों से सामने आई है।
आज तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक की खातिर कई नेता व दल इस देश को तोड़ने व कमजोर करने वाली शक्तियों को भी ताकत पहुंचाने से बाज नहीं आ रही हैं। यह अधिक खतरनाक स्थिति है।
@4 मई, 2019 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित@
-- सुरेंद्र किशोर --
यदि अनिवार्य मतदान से ‘वोट बैंक’ की विवादास्पद राजनीति की बुराइयां कम होती हंै तो इसे आजमाया जाना चाहिए।
आस्ट्रेलिया और मैक्सिको सहित दुनिया के 22 देशों में मतदान करना अनिवार्य है।
वहां की अनिवार्यता के तर्क व कारण कुछ और भी हो सकते हैं।पर भारत में पिछले कुछ दशकों से वोट बैंक की राजनीति ने प्रशासन व राजनीति को जितना नुकसान पहुंचाया है,उतना किसी अन्य एक तत्व ने नहीं।
राजनीति और प्रशासन में सत्तर के दशक से यह बीमारी घर कर गई।तब चार सामाजिक समूहों के बल पर केंद्र मे सरकार सत्ता में थी।अब तो इसने विकराल रूप धारण कर लिया है।यह राजनीति राज्यों में यह अपना खूब रंग दिखा रही है।
किसी राज्य में मात्र दो सामाजिक समूहों का अपना वोट बैंक बनाइए और तालमेल करके राज्य की सत्ता पा लीजिए।
सिर्फ उन सामाजिक समूहों की जरूरतों को पूरा करते रहिए ।आप अगली बार भी चुनाव जीत सकते हैं।कमी पड़े तो इसी तरह के वोट बैंक के किसी अन्य ‘स्वामी दल’ से चुनावी समझौता कर लीजिए।
पूरे समाज के सम्यक विकास की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी।आराम कीजिए।पैसे कमाइए।समय आने पर अगली पीढ़ी को सत्ता सौंपने कव इंतजाम कर दीजिए।
इसी तरह के बड़े गठजोड़ों
के जरिए केंद्र की सत्ता हासिल की ही जा सकती है।हासिल होती भी रही है।
हाल के दशकों के अनुभव बताते हैं कि जातीय व साम्प्रदायिक वोट बैंक के सहारे सत्ता में आने वाले दलों के राज में भ्रष्टाचार और अपराध अपेक्षाकृत अधिक होते हैं।क्या इस समस्या के समाधान के लिए कोई उपाय नहीं होना चाहिए !
इस बीच नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी
अमिताभ कांत ने कहा है कि
‘आस्ट्रेलिया में भी चुनाव चल रहे हैं।वहां मतदान अनिवार्य है।और ऐसा न करने पर 20 डालर का जुर्माना लगता है।
जेल भी हो सकती है।शहरी भारत में मध्य वर्ग और अमीरों की मतदान को लेकर बेरुखी को देखते हुए भारत में भी इसे आजमाया जाना चाहिए।’
यदि सचमुच कभी अमिताभ कांत की बातों पर गौर किया गया और यहां भी मतदान अनिवार्य हो गया तो जातीय -साम्प्रदायिक वोट बैंक के आधार पर राजनीति करने वाले कुछ दलों की खटिया खड़ी हो सकती है।कई दुकानें बंद हो सकती हैं।
कोई भी सामाजिक वोट बैंक 10 से 20 प्रतिशत तक की आबादी का ही होता है।
यदि 90 प्रतिशत वोट पड़ने लगेंगे तो वोट बैंक के दायरे वाले 10-20 प्रतिशत वोट उस 90 प्रतिशत में बिला जाएंगे।महत्वहीन हो जाएंगे।चुनाव नतीजोें को शायद ही प्रभावित कर सकें।
आस्टे्रलिया में मतदान करना अनिवार्य है।फिर भी वहां औसतन 90 प्रतिशत ही मतदान हो पाता है।सौ प्रतिशत नहीं।
हमारे यहां अभी अनिवार्य नहीं है।फिर भी लोक सभा के मौजूदा चुनाव के पहले फेज में त्रिपुरा में 81 दशमलव 8 प्रतिशत मतदान हुए।यानी लगभग 82 प्रतिशत।आस्ट्रेलिया से सिर्फ आठ प्रतिशत कम।
इस बार पश्चिम बंगाल में भी उस फेज में 81 प्रतिशत वोट पड़े हैं।
अन्य राज्यों में मतदान का प्रतिशत जरूर अभी काफी कम है।
पर अनिवार्य करने पर वहां भी 90 प्रतिशत पहुंच ही सकता है।
जब अधिक लोग मतदान करने लगेंेगे तो आम राजनीतिक दल व नेता भी मतदाताओं के प्रति उदासीन नहीं रह पाएंगे।
उधर जातीय -साम्प्रदायिक वोट बैंक के किले में सुरक्षित रहने वाले दल व उनके नेता भी नींद से जगेंगे।
उन्हें अपनी पुरानी राजनीतिक शैली को बदलने के बारे में सोचना पड़ेगा।अन्यथा समय के साथ वे विलोपित हो जाएंगे।
यह छिपी हुई बात नहीं है कि जातीय और साम्प्रदायिक वोट बैंक के किले में सुरक्षित दलों व नेताओं के शासन काल में भ्रष्टाचार और अपराध कुछ अधिक ही होते हैं।वे यह समझते हैं कि हमारी सारी गलतियों को हमारा वोट बैंक नजरअंदाज कर देगा।
जो दल जातीय-साम्प्रदायिक वोट बैंक पर कम निर्भर हैं,उनके समक्ष विकास -कल्याण कार्यक्रमों को करने की मजबूरी रहती है।उन्हें काम पर ही वोट मिलते हैं,भावना पर नहीं।
वोट बैंक वाले दल हर चुनाव में अपने खास मतदाताओं के सामने एक काल्पनिक भय दिखा कर उन्हें अपने साथ बांधे रखते हैं।
कोई नेता कहता है कि हमारी जाति को उचित सम्मान नहीं मिल रहा है।इस काम में फलां दल या जाति बाधक है।इसलिए उन्हें हराना है।
कोई दूसरा नेता कहता है कि हमारे आरक्षण पर खतरा है।कोई कुछ कहता है तो कोई कुछ अन्य बात।
सारी बातें मंच से ही नहीं कही जाती।
कई बातें कानोंकान सफर कराई जाती है।
कई साल पहले कतिपय भाजपा नेताओं ने यह संकेत दिया था कि हम मतदान अनिवार्य कर सकते हैं।
यदि नरेंद्र मोदी की सरकार अगली बार भी सत्ता में आ गई तो वह अमिताभ कांत के सुझाव पर विचार कर सकती है।क्या भाजपा नेताओं की मंशा को भांप कर ही अमिताभ कांत ने लिखा है कि आस्टे्रलिया की तरह भारत में भी आजमाया जा सकता है ? पता नहीं।
पर यदि कोई सरकार इसे कार्य रूप दे दे तो वह काम व्यापक जनहित में होगा।
दुनिया के कुछ देशों में मतदान नहीं करने पर सजा का प्रावधान है।
भारत में वह कुछ ज्यादा ही हो जाएगा।इसलिए यहां की सजा यही हो सकती है कि कुछ समय के लिए कतिपय सरकारी सुविधाएं रोक दी जाए जो मतदान करने न जाएं।
इसका सकारात्मक असर होगा।धीरे -धीरे लोगों को आदत लग जाएगी।
वोट बैंक की ताकत के बल पर अभी अनेक चुनाव क्षेत्रों में बाहुबली और धनवान उम्मीदवार आसानी से चुनाव जीत जाते हैं।यदि अनिवार्य मतदान के कारण ऐसे उम्मीदवार हारने लगेंगे तो अनिवार्य मतदान की कठोरता भी लोगों को बुरा नहीं लगेगी।
आज तो औसतन 60-70 प्रतिशत मतदाता ही इस देश में मतदान करते हैं और मतों के भारी बंटवारे के कारण 20 -25 प्रतिशत या उससे भी कम मत पाने वाले उम्मीदवार भी कई बार चुनाव जीत जाते हैं।कुछ दफा तो ऐसा भी होता है कि जिस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है,वह भी चुन लिया जाता है।
यदि अस्सी -नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान करने लगे तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंकों के सौदागर अत्यंत कम वोट पाकर चुनाव नहीं जीत पाएंगे।भारत में आम तौर पर किसी चुनाव क्षेत्र में किसी धार्मिक या जातीय समूह की आबादी 20-25 प्रतिशत से अधिक नहीं है।अपवादस्वरूप कुछ ही क्षेत्र ऐसे हैं जहां बात इसके विपरीत है।
यदि कोई जातीय या धार्मिक समूह अधिकतर चुनाव क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं होंगे तो नेतागण भी सिर्फ सांप्रदायिक या जातीय आधार
पर ही अपनी पूरी राजनीति और रणनीति तय नहीं करेंगे।
इससे देश का भी भला होगा।
जातीय व साम्प्रदायिक वोट बैंक की एक बड़ी बुराई हाल के वर्षों से सामने आई है।
आज तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक की खातिर कई नेता व दल इस देश को तोड़ने व कमजोर करने वाली शक्तियों को भी ताकत पहुंचाने से बाज नहीं आ रही हैं। यह अधिक खतरनाक स्थिति है।
@4 मई, 2019 के राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित@
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