कानोंकान
सुरेंद्र किशोर
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निष्क्रिय दलों के निबंधन
रद करने की आयोग की सरकार से मांग
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इस देश के चुनाव आयोग को यह अधिकार तो हासिल है कि वह किसी राजनीतिक दल का निबंधन करे।
पर, आयोग को निबंधन रद करने का अधिकार नहीं है।
इसलिए आयोग ने एक बार फिर केंद्र सरकार से अनुरोध किया है कि वह यह अधिकार प्रदान करे।
चुनाव आयोग यह मांग दशकों से केंद्र सरकार से करता रहा है।
पर निहितस्वार्थ ने इस मांग को पूरा नहीं होने दिया।
उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी सरकार इस मांग पर निरेपक्ष ढंग से देशहित में विचार करेगी।
इस देश करीब 2700 राजनीतिक दल चुनाव आयोग में निबंधित हैं।
किंतु चुनाव आयोग सूत्र बताते हैं कि इनमें से करीब 4 से पांच सौ दल ही सक्रिय हैं।
इनके अलावा अधिकतर दल वर्षों तक कहीं कोई उम्मीदवार तक खड़ा नहीं करते।
किंतु वे राजनीतिक दलों को सरकार की ओर से मिली सुविधाओं का लाभ जरूर उठाते हैं।
अधिकतर निबंधित दलों के खिलाफ यह शिकायत मिलती रहती है कि वे ‘मनी लांैड्रिंग’ यानी काले धन को उजला बनाने के धंधे में लगे हुए हैं।साथ ही, वे कर वंचना का काम भी करते हैं।
याद रहे कि राजनीतिक दलों को चंदा लेने और आयकर से छूट पाने का विशेष अधिकार मिला हुआ है।
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उच्च सदन में मनोनयन
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राज्य सभा और विधान परिषद के लिए क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपाल सीमित संख्या में सदस्य मनोनीत करते हैं।
संवैधानिक प्रावधान के अनुसार ‘‘वैसे व्यक्तियों को मनोनीत किया जाना चाहिए जिन्हें साहित्य,विज्ञान,कला और समाजसेवा
में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव हासिल हो।’’
इस संवैधानिक प्रावधान का जितना उलंघन होता है,उतना शायद ही किसी अन्य प्रावधान का होता होगा।
राज्य सभा और विधान परिषद में मनोनयन के मामले में लगभग सभी दलों का रवैया एक जैसा ही रहा है।
यह रवैया पुराना है।
जहां तक मेरी जानकारी है, बिहार में विधान परिषद में मनोनयन के मामले में अंतिम बार सन 1978 में नियम का पालन हुआ था।
कर्पूरी ठाकुर के मुख्य मंत्रित्वकाल में पोद्दार रामावतार अरूण,डा.जयनारायण मंडल,सियाराम तिवारी और जगदीश सिंह बिहार विधान परिषद में मनोनीत हुए थे।
साठ और सत्तर के दशकों में तीन पत्रकार जरूर मनोनीत हुए।
किंतु पत्रकारों को मनोनीत करने की अनुमति संविधान नहीं देता।
याद रहे कि जो पत्रकार तब मनोनीत किए गए थे,उनके नाम हैं-श्रीकांत ठाकुर विद्यालंकार(आर्यावर्त),शम्भूनाथ झा (सर्चलाइट)और एस.के.घोष(पी.टी.आई.)।
राज्य सभा में मनोनयन के मामले में भी संवैधानिक प्रावधान का उलंघन होता रहा है।
हाल में राष्ट्रपति ने एक पत्रकार और एक वकील को मनोनीत किया ।
जब खुद सरकार कानून या संविधान का उलंघन करती है तो दूसरे लोगों को भी उलंघन करने की अघोषित छूट मिल जाती है।
इस मामले में केंद्र सरकार एक काम कर सकती है।
वह संविधान के अनुच्छेद-80 (3) में संशोधन कर दे।
या फिर मौजूदा अनुच्छेद का अक्षरशः पालन करे।
संशोधन इस तरह हो सकता है।
राष्ट्रपति या राज्यपाल ऐसे लोगों को मनोनीत करेंगे जिन पेशों के लोगों का निम्न सदन में समुचित प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है।
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भूली-बिसरी याद
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सन 1977 में जब प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने लोक सभा चुनाव की घोषणा की तो जार्ज फर्नंडिस ने शंका जताई थी कि चुनाव में धांधली होगी ।इस तरह कांग्रेस चुनाव जीत जाएगी।
उससे इमरजेंसी को वैधता मिल जाएगी।
खुद जार्ज चुनाव लड़ने को तैयार नहीं थे।
बड़ैदा डायनामाइट केस के सिलसिले में
जार्ज को दिल्ली
कोर्ट में हाजिर होना पड़ता था।तब वे तिहाड़ जेल में थे।
एक दिन खुद मोरारजी देसाई नामांकन पत्र का फार्म लेकर अदालत पहुंच गए।तब जार्ज ने उस पर हस्ताक्षर कर दिया।
जार्ज मुजफ्फरपुर से चुनाव लड़े और भारी बहुमत से विजयी हुए।
किंतु मेरी समझ से चुनाव लड़ने से मना करने का एक कारण और भी था।
आपातकाल के दौरान मैं जार्ज फर्नांडिस से पटना के अलावा बारी -बारी से बंगलोर,दिल्ली और कलकता में मिला था।
याद रहे कि वह गहरे भूमिगत (डीप अंडरग्राउंड)थे।
उनमें से किसी एक मुलाकात में जार्ज ने एक अखबार की रिर्पोटिंग की चर्चा की।
वह रपट इंदिरा गांधी की एक सभा की थी।
रपट के साथ संवाददाता का नाम भी छपा था।
उस संवाददाता के लिए जार्ज के मन बहुत सम्मान था।
वह समझते थे कि वह संवाददाता गलत लिख ही नहीं सकता।
उस संवाददाता ने लिखा था कि बीस सूत्री कार्यक्रम ने गरीब जनता पर सरकार के पक्ष में भारी सकारात्मक असर डाला है।
संवाददाता ने लिखा कि मैंने सभा में उपस्थित श्रोताओं की आखों में इंदिरा जी के लिए भारी समर्थन के भाव देखे।
यानी जब चुनाव की घोषणा हुई तो जार्ज को लगा होगा कि
धांधली व जन समर्थन के मिले-जुले प्रभावों के कारण कांग्रेस चुनाव जीत जाएगी।
एक विशेष परिस्थिति यानी इमरजेंसी में भी किसी संवाददाता की रिपोर्टिंग से कोई नेता कितना गुमराह हो सकता है,उसका यह एक उदाहरण था।
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और अंत में
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जब भी किसी नेता या उसके रिश्तेदार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में मुकदमे शुरू होते हैं।
या, जांच शुरू होती है ।
तो नेता झट से कह देता है कि बदले की भावना से सरकार एजेंसियों का इस्तेमाल कर रही है।
नेता यह नहीं कहता कि आरोप गलत है या सही।बदले की भावना वाला आरोप दशकों से लगाया जाता रहा है।
ऐसे में एक सवाल उठता है।
यदि आरोप कोर्ट में अंततः गलत साबित होता है तो पीड़ित व्यक्ति कानून की संबंधित धाराओं के तहत जांच एजेंसी पर अदालत में केस कर सकता है।पर ऐसा वह कभी नहीं करता।
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प्रभात खबर
पटना
10 सितंबर 21
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