कानोंकान
सुरेंद्र किशोर
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करीब एक हजार जातियों में से किसी को भी आरक्षण का लाभ नहीं
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सन 1993 में केंद्र सरकार की नौकरियों के लिए मंडल आरक्षण लागू हुआ।
सरकारी अधिसूचना भले 1990 में जारी हुई थी।
इस बीच मामला कोर्ट में था।
केंद्रीय सूची में पिछड़ी जातियों की कुल संख्या 2633 है।
इनमें से करीब 1000 जातियों में से किसी व्यक्ति को मंडल आरक्षण का लाभ अब तक नहीं मिल सका है।
इसके लिए कौन -कौन से तत्व जिम्मेदार हैं ?
इस बात का पता कैसे लगाया जाए ?
पता लगेगा तभी तो उसका निदान होगा।
तभी देश का समरूप विकास होगा।
यदि जातीय और आर्थिक गणना होगी तभी तो इस बात का पता चल पाएगा कि उन एक हजार जातियों की कुल आबादी कितनी है ?
उनकी आर्थिक -शैक्षणिक स्थिति कैसी है ?
उसे कैसे बेहतर बनाया जाए ?
इसी तरह यह भी देखा जाना चाहिए कि गैर आरक्षित समूह में भी किस हिस्से को योजना और नौकरियों में लाभ कम मिल रहा है ।
याद रहे कि सन 2017 में गठित रोहिणी न्यायिक आयोग की पड़ताल से पिछड़ों के बारे में उपर्युक्त आंकड़ा सामने आया है।
रोहिणी आयोग ने अपनी अंतरिम रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंप दी है।
मिली जानकारी के अनुसार आयोग ने 27 प्रतिशत आरक्षण को चार भागों में बांट देने की सिफारिश की है।
यदि यह सिफारिश मान ली गई तो केंद्र की सूची में शामिल 97 मजबूत पिछड़ी जातियों को 27 में 10 प्रतिशत हिस्सा मिलेगा।
1674 जातियों को दो प्रतिशत, 534 जातियों को 6 प्रतिशत और शेष 328 जातियों को 9 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा।
याद रहे कि यह आरोप लगता रहा है कि आरक्षण का लाभ मजबूत पिछड़ी जातियों को ही अधिक मिलता रहा है।
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उत्तर प्रदेश चुनाव के बाद ही
तैयार हो सकेगा दलीय गठबंधन
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लोक सभा के अगले चुनाव को ध्यान में रखते हुए
गैर राजग दल एकजुट होने की गंभीर कोशिश कर रहे हैं।
पर उन्हें मन वांछित सफलता नहीं मिल रही है।
अभी सफलता मिलेगी भी नहीं।
आखिर क्यों ?
इसलिए कि कुछ दल उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव का नतीजा देख लेना चाहते हैं।
विपरीत परिस्थितियों के बावजूद यदि वहां भाजपा जीत गई तो
प्रतिपक्षी एकता की पूर्ण सफलता संदिग्ध हो जाएगी।
क्योंकि तब राजनीति के मौसम वैज्ञानिक सक्रिय हो जाएंगे।
यदि यू.पी.मंे भाजपा हार गई तब तो
गैर राजग दलों का मनोबल बढ़ जाएगा और उनकी उम्मीदें भी।
हालांकि यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि
सन 2024 में नरेंद्र मोदी सत्ताच्युत ही हो जाएंगे।
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अंचल कार्यालय में मंत्री लगाएं
जनता का दरबार
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रिश्वतखोरी से पीड़ित जनता की वास्तविक व्यथा राज्य सरकार को समझनी -जाननी है ?
यह जानना है कि अंचल और पुलिस थाना स्तर पर लोगों का कैसे दोहन किया जाता है ?
कैसे -कैसे बहाने बनाकर काम को लटकाया जाता है ?
एक ईमानदार मुख्य मंत्री भला क्यों नहीं जानना चाहेगा ?
फिर तो एक काम कीजिए।
हर तीन महीने पर प्रत्येक जिले के एक अंचल कार्यालय मंे जनता का दरबार लगाइए।
पर उस दरबार में जिले के किसी मंत्री या जन प्रतिनिधि को मत रखिए।
किसी अन्य जिले से आने वाले किसी मंत्री के साथ सचिवालय स्तर के किसी वरीय अफसर को लगा दीजिए।
जनता का ऐसा ही दरबार पुलिस थाने में भी लगे।
थाना भवन से थोड़ा हटकर।
यदि हर जिले के एक- एक अंचल व थाने को कवर कर लिया गया तो हांड़ी के चावल की स्थिति का पता चल जाएगा।
उससे जनता की व्यथा कम करने में राज्य सरकार को सुविधा होगी।
किसी भी सरकार की लोकप्रियता का सीधा संबंध थानों व अंचल कार्यालयों के कामकाज पर निर्भर करता है।
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सांसदों-विधायकों के खिलाफ मामले
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जांच एजेंसियों की सुस्ती पर सुप्रीम कोर्ट नाराज है।
सबसे बड़ी अदालत की शिकायत है कि प्रवर्तन निदेशालय और सी.बी.आई.जैसी एजेंसियां भी कुछ खास नहीं कर रही हैं।
क्या सुप्रीम कोर्ट को जैन हवाला घोटाले का अनुभव याद नहीं है ?
दरअसल जहां घोटाला सर्वदलीय हो,वहां जांच एजेंसियां सुस्त पड़ ही जाती हैं।नब्बे के दशक के हवाला कांड में भी यही हुआ था।
जहां तक वत्र्तमान व पूर्व सांसदों-विधायकों के खिलाफ जारी मुकदमों का सवाल है,वहां मौजूदा परिस्थिति में कुछ खास नहीं हो सकता।इसलिए कि समस्या सिर्फ मानव संसाधन की कमी की नहीं है। मंशा ही साफ नहीं है।
कुछ खास हो,इसके लिए सबसे पहले आपराधिक मुकदमों की सुनवाई अन्य राज्य में करानी पड़ेगी।
अपने राज्य में गवाहों को धमकाना आसान हो जाता है।
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अपराधीकरण पर नकली आंसू
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राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ इस देश में सिर्फ नकली आंसू ही अब तक बहाए जाते रहे हैं।
होता कुछ नहीं है।
वैसे मौजूदा सरकार चाहे तो एक काम तो वह कर ही सकती है।
जिनके खिलाफ हत्या या बलात्कार के मामले में अदालत में आरोप पत्र दाखिल किए जा चुके हैं,उन्हें चुनाव लड़ने से रोक दिया जाए।
इसके लिए कानून बने।
ऐसे उम्मीदवार को जो दल टिकट दे,उस दल की मान्यता चुनाव आयोग रद कर दे,यह भी नियम बने।
यदि सरकार कानून न बनाए तो सुप्रीम कोर्ट तत्संबंधी आदेश पारित कर दे।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी कानून का रूप ले लेता है।
संविधान के अनुच्छेद-142 का सहारा लेकर सुप्रीम कोर्ट ने करीब दो साल पहले राम मंदिर विवाद को सुलझा दिया था।
अब जब लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद व विधायिका की प्रतिष्ठा खतरे में है तो उस अनुच्छेद का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट इसे भी बचा सकता है।बचाना भी चाहिए।
अन्यथा, अपराधियों व आर्थिक घोटालेबाजों से जब विधायिका पूरी तरह भर जाएगी तो फिर लोकतंत्र सिर्फ नाम के लिए ही तो रह जाएगा।
वैसे भी ‘वंशवादी राजनीति’ के बढ़ते असर से लोकतंत्र कराह रहा है।
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और अंत में
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अगले लोक सभा चुनाव को लेकर एक जगह बात चल रही थी।
एक ने दूसरे से कहा,
‘‘मिलीजुली सरकारों के प्रधानमंत्री का पद अल्पायु होता है।’’
दूसरे ने जवाब दिया,
‘‘तो क्या हुआ ?
किसी पर्वतारोही को हिमालय की चोटी पर अपना घर बनाते कभी देखा है आपने ?’’
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प्रभात खबर
पटना-27 अगस्त 21
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