शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

     मीडिया क्या करे और क्या न करे ?

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      --सुरेंद्र किशोर--

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सन 1997 में पटना के जिस दैनिक अखबार का दाम 

ढाई रुपए था,वह अखबार आज 5 रुपए में बिक रहा है।

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1997 में गेहूं की कीमत प्रति क्ंिवटल 510 रुपए थी।

2021 में 1975 रुपए है।

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यानी, 24 साल में अखबार की कीमत बढ़कर सिर्फ दोगुनी हुई,पर अनाज की कीमत लगभग चैगुनी।

इस तरह अखबार प्रबंधन ने अपने दाम को आम मूल्य वृद्धि के अनुपात में बढ़ने नहीं दिया।

जबकि अखबार का लागत खर्च भी तो इस बीच बहुत बढ़ा।

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दुनिया में अखबार ही ऐसा उत्पाद है जो लागत खर्च से कम पर बिकता है।

दरअसल अखबार का घाटा विज्ञापनों से पूरा होता है।

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विाज्ञापन कौन देता है ?

सरकारी और निजी विज्ञापनदाता।

अखबार की बिक्री से भी कुछ राजस्व मिल जाता है।

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अब इस देश के कुछ राजनीतिक ,गैर राजनीतिक व बौद्धिक  ‘‘क्रांतिकारी’’ लोग यह चाहते हैं कि 

उनके बदले व उनके लिए अखबार ही ‘क्रांति’ कर दे।

जो काम क्रांतिकारी लोग नहीं कर सके,वह काम अखबार 

अपने विज्ञापनदाताओं को नाराज करने की कीमत पर भी उनके लिए करके दिखाए।

अन्यथा,वह ‘गोदी मीडिया’ है।

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मीडिया का कत्र्तव्य क्या है ?

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वही है जो बात नब्बे के दशक में बी.बी.सी.के एक पदाधिकारी ने बताई थी।

   नब्बे के दशक में मैंने पटना के दैनिक ‘इंडियन नेशन’ में सिंगापुर डेटलाइन से बीबीसी. के उप प्रधान की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी पढ़ी थी।

 उनसे पूछा गया था कि बी.बी.सी. की साख का राज 

क्या है ?

उन्होंने बताया कि 

‘‘यदि दुनिया के किसी देश में कम्युनिज्म आ रहा है तो हम यह सूचना लोगों को देते हैं कि आ रहा है।

उसे रोकने की कोशिश नहीं करते।

दूसरी ओर, यदि किसी देश से कम्युनिज्म जा रहा है तो हम रिपोर्ट करते हैं कि जा रहा है।

हम उसे बचाने की भी कोशिश नहीं करते।

 यही हमारी साख का राज है।’’

   (यह और बात है कि लगता है कि बी बी सी का इस बीच पुराना ध्येय बदल चुका है।)

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एक और बात।

सन् 1983 के जून की बात है।

  मैं नई दिल्ली में  नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर के आॅफिस में बैठा हुआ था।

एक खास संदर्भ में मैंने उनसे कह दिया कि आपका अखबार दब्बू है।

 वह इंदिरा गांधी के खिलाफ नहीं लिख सकता।

इस पर उन्होंने कहा कि ‘‘ नहीं सुरेंद्र जी , यू आर मिस्टेकन।

मेरा अखबार दब्बू नहीं है।

 आप इंदिरा जी के खिलाफ जितनी भी कड़ी खबरें  लाकर मुझे दीजिए, मैं उसे जरूर छापूंगा।

पर इंदिरा जी में बहुत से गुण भी हैं।

मैं उन्हें भी छापूंगा।

 एक बात समझ  लीजिए।

मेरा अखबार अभियानी भी नहीं है।’’

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और अंत में 

मेरी टिप्पणी--थोड़ा लिखना,अधिक समझना !!!

मेरा मानना है कि मीडिया यदि बीबीसी के तब के उप प्रधान व राजेंद्र माथुर की राह पर चले तो कोई भी विवेकशील व्यक्ति उसे 

गोदी मीडिया नहीं कहेगा।

(अविवेकशील लोगों की कोई जिम्मेवारी नहीं ले सकता।)  

न ही कोई सरकार उसका विज्ञापन बंद या कम करेगी।

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10 सितंबर 21


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