शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

 


कानोंकान

सुरेंद्र किशोर

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चुनावी टिकटों की खुली खरीद-बिक्री से लोकतंत्र पर भारी खतरा

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रुपए लेने के बावजूद चुनावी टिकट न देने के आरोप से संबंधित एक मामला अब पटना अदालत तक पहुंच चुका है।

दूसरी ओर, पैसों के बल पर टिकट पा लेने के अन्य अनेक मामलों से लोगबाग अवगत होते रहे हैं।

  अदालत किस नतीजे पर पहुंचती है,वह तो समय बताएगा।

आरोप साबित होगा भी या नहीं ,यह भी एक यक्ष प्रश्न है।

पर, जानकार लोग बताते हैं कि बिहार में हाल के वर्षों में चुनावी टिकटों की खरीद-बिक्री का चलन तेजी से बढ़ रहा है।

इसके लिए कोई एक ही दल या नेता जिम्मेदार नहीं है।

  उधर वोट खरीदने की शिकायतें भी बढ़ रही हैं।इस तरह ईमानदार व सेवाभावी नेताओं के लिए अवसर सिकुड़ते जा रहे हैं।पढे-लिखे व अच्छे वक्ताओं की आम तौर से जरूरत भी कम हो रही है क्योंकि सदनों में शोरगुल,हंगामा व मारपीट ही तो करनी पड़ती है।  

आम तौर से उम्मीदवारों के ‘वोट बैंक’ से बाहर वाले मतदाताओं के वोट खरीदे जा रहे हैं।

  यानी, कुल मिलाकर चुनाव का खर्च इतना बढ़ चुका है कि आम राजनीतिक कर्मियों के लिए कुछ खास दलों के टिकट पाना असंभव सा हो गया है।

   राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार यदि चुनावी टिकट की खरीद -बिक्री की यही रफ्तार  रही तो लोकतंत्र का मंदिर  धन कुबेरों का सदन बन कर रह जाएगा।

  अभी तो अधिकतर सदस्य टिकट खरीदे बगैर विधायक व सांसद बन रहे हैं।

पर ऐसा कब तक चलेगा ?

वह दिन दूर नहीं जब सदन के अधिकतर सदस्य अपार धन वाले ही होंगे।

उधर ऐसे सदस्यों की संख्या भी बढ़ ही रही हैं जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हैं।

 सदनों में शांति भंग करने वालों की भी संख्या बढ़ ही रही है।

  इस तरह कुल मिलाकर बिहार सहित इस देश की विधायिकाओं का कैसा स्वरूप बनता जा रहा है ?

दूसरी तरफ राजनीति के विवेकशील लोग सदन की गरिमा कायम करने की कोशिश भी कर रहे हैं।पर लगता है कि वे एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं।यदि अंततः वे हार गए तो क्या होगा ?

लोकतंत्र बचेगा ?

पता नहीं !

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 टिकटों की बिक्री की 

 जांच सी.बी.आई.करे

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सिर्फ एक मामले में पटना में केस हुआ है।

पर, चुनावी टिकटों की खरीद-बिक्री के मामले अनेक हैं।

 यानी, ऐसे सारे मामलों की जांच अदालत की निगरानी में यदि सी.बी.आई.करे करे तो लोकतंत्र की गरिमा व लोगों की उसमें आस्था बनाए रखने में सुविधा होगी।

 बिहार विधान सभा के गत चुनाव के समय मैंने एक परिचित से टिकट नहीं मिलने का कारण पूछा।

 एकाधिक बार विधायक व मंत्री रहे नेता ने बताया  कि मुझसे 50 लाख रुपए का चंदा हमारी पार्टी ने मांगा।

  मैं मात्र 15 लाख ही देने की स्थिति में था।इसलिए मेरा टिकट कट गया।

ऐसे न जाने और भी कितने मामले होंगे।

जिनकी जांच भी की जा सकती है।

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    कैसे बच जा रहे वेतन के पैसे !

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बिहार के एस.पी.राकेश दुबे प्रकरण में यह बात सामने आई कि अपने पूरे सेवाकाल में उन्होंने कुछ ही दफा वेतन खाते से पैसे निकाले।

  शासन को इससे यह संकेत ग्रहण करना चाहिए कि राकेश दुबे इस मामले में अकेले नहीं हैं।

ऊपरी कमाई की क्षमता वाली जगहों पर बैठे कर्मियों के सैलरी अकाउंट की नमूना जांच का प्रावधान होना चाहिए।

  जांच एजेंसियां समुचित प्रक्रिया के तहत ऐसा कर ही सकती है।

   चारा घोटाला सामने आने के बाद का एक प्रकरण याद है।

सी.बी.आई. ने बैंकों को चिट्ठियां लिखीं ।

बैंकों से जिन व्यक्तियों के खातों का विवरण मांगा गया था, उनमें बिहार काॅडर के चार वरीय आई.ए.एस.अफसर भी थे।उस पत्र से पहली बार यह बात सामने आई कि चारा घोटाले में कुछ आई.ए.एस.अफसर भी पकड़ में आने वाले हैं।पकड़ में आए भी।

  उसके बाद तो उनकी दुनिया ही बदल गई।आराम व शान का जीवन बर्बाद हो गया।

आश्चर्य है कि इसके बावजूद केंद्रीय सेवा के भी अनेक अफसरों में पैसे का लोभ तीव्र होता जा रहा है।

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  आॅटोमेटिक ड्राइविंग टेस्ट

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पटना में भी आॅटोमेटिक ड्राइविंग टेस्ट शुरू हुए हैं।

जो उसमें पास हो रहे हैं ,उन्हें ही गाड़ी चलाने का लाइसंेस दिया जा रहा है।

  हाल के टेस्ट में 46 प्रतिशत उम्मीदवार फेल कर गए।

पुराने जमाने में शैक्षणिक संस्थानों की ठीकठाक कदाचारमुक्त परीक्षाएं होती थीं तो लगभग इतने प्रतिशत परीक्षार्थी फेल करते थे।पर आज ?

बिहार स्कूल बोर्ड की परीक्षा में इन दिनों करीब 80 प्रतिशत परीक्षार्थी पास कर जाते हैं।

   आॅटोमेटिक ड्राइविंग टेस्ट में किसी तरह की बेईमानी का आविष्कार नहीं हुआ तो उसका सकारात्मक असर सड़कों पर भी पड़ेगा।

यानी, ड्राइवर भरसक अनुशासन कायम रखेंगे।

दुर्घटनाएं भी कम होंगी।

विमान चालकों के काम के घंटे तय हैं।उसी तरह सड़कों पर छोटी-बड़ी गाड़ियां चलाने वालों के काम के घंटे भी तय होने चाहिए।

 साथ ही,तीस साल से कम उम्र के लाइसेंसशुदा ड्राइवरों की कुशलता की जांच आॅटोमेटिक ड्राइविंग टेस्ट के जरिए होनी चाहिए

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और अंत में 

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समाजवादी नेता और विचारक डा.राममनोहर लोहिया ने कहा था,

‘‘पुश्तैनी गुलामों के परिवार हिन्दुस्तान में बहुत हंै,और दुनिया में भी इनकी कमी नहीं।

उन्हें गलती से रईस कहा जाता है।

पर, वे वास्तव में पारस्परिक रसज्ञ,सुसभ्य और योग्य होते हैं।

जो भी पक्ष जीते, उसकी खिदमत में वे हाजिर हो जाते हैं।

लेकिन जीत के पहले उनकी आंखें वर्तमान पर इतनी टिकी रहती है कि उनके अंतर्गत पकने वाले भविष्य को वे भांप लेते हैं।’’

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प्रभात खबर

पटना

24 सितंबर 21

  

  


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