एक नयी वैचारिक पहल
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सुरेंद्र किशोर
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मौजूदा संरचनात्मक स्वरूप को बनाए रखते हुए
क्यों न राज्य सभा के सदस्यों का कार्यकाल
छह साल से घटा कर पांच साल कर दिया जाए ?
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क्यों न दोनों सदनों का कार्यकाल एक साथ
शुरू हो और एक ही साथ अंत भी हो जाए ?
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क्यों न राज्य सभा का कार्यकाल भी लोक सभा की तरह ही पांच साल का कर देने के प्रस्ताव पर विचार किया जाए ?
दोनों सदनों का गठन भी एक ही साथ हो।
राज्य सभा के ‘‘स्थायी स्वरूप’’ को क्यों न समाप्त कर दिया जाए ?
हां, राज्य सभा के मौजूदा संरचनात्मक स्वरूप को
बनाए रखा जाना चाहिए।
ताकि, जिन लोगों का प्रतिनिधित्व लोक सभा में नहीं हो पाता,उनका प्रतिनिधित्व राज्य सभा के जरिए संसद में हो सके।और बेहतर तरीके से हो।
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ऐसा मैं क्यों कह रहा हूं ?
कई जानकार लोगों की राय है कि ‘‘देश की एकता-अखंडता को बनाए रखने के लिए ऐसा करना जरूरी हो गया है।
इन दिनों इस देश के कुछ राज्यों में ऐसे राष्ट्र विरोधी तत्वों को पनपने और उन्हें मजबूत होने का अवसर मिल रहा है,जिन पर समय रहते काबू नहीं पाया गया तो
देश पर देर-सबेर बड़ा संकट आ सकता है।’’
जाहिर है कि उन पर काबू पाने के लिए कुछ राज्य सरकारों को भंग कर वहां राष्ट्रपति शासन लागू करना जरूरी है।क्योंकि राज्यों के पास उतने साधन नहीं हैं जिनसे वे उन तत्वों से निपट सकें।
पर, चूंकि सत्ताधारी दल को राज्य सभा में बहुमत नहीं है,इसलिए राष्ट्रपति शासन संभव नहीं हो पा रहा है।
याद रहे कि राष्ट्रपति शासन की दोनों सदनों से पुष्टि जरूरी होती है।
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आजादी के बाद इस देश में 115 बार विभिन्न राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा चुका है।
पर आज सख्त जरूरत रहने के बावजूद नरेंद्र मोदी सरकार किसी तत्संबंधित राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू नहीं कर पा रही है।
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लोक सभा और राज्य सभा का गठन यदि एक साथ हो तो दोनों सदनों में सत्ताधारी दल का बहुमत संभव है।
पर,दोनों सदनों में बहुमत के अभाव में सत्ताधारी दल न तो अपने चुनाव घोषणा पत्र को पूरी तरह लागू कर पाता है और न ही आपाद स्थिति में देश की सुरक्षा के लिए कोई कड़ा कदम उठा सकता है।
यदि राज्य सभा का कार्यकाल बदल जाए तो आज उसका लाभ भाजपा को होगा।
कल उसका लाभ सत्ता में आने वाला कोई गैर भाजपा दल उठा सकता है।
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संविधान निर्माताओं ने जब राज्य सभा की रचना की तो यह सोच कर उसका ऐसा स्वरूप बनाया ताकि वह लोक सभा से अलग तरह की विशिष्टता लिए हुए हो।
पर, समय के साथ जब अधिकतर मामलों में,यहां तक कि हंगामा करने के मामले में भी,दोनों सदनों का चरित्र एक ही जैसा हो गया है तो फिर उसका यानी राज्य सभा का कार्यकाल अलग क्यों रहे ?
संविधान के अनुच्छेद-80 के अनुसार ‘‘राज्य सभा राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करेगी।’’
साथ ही, विशेष ज्ञान और व्यावहारिक अनुभव रखने वालों को राष्ट्रपति मनोनीत करेंगे।
क्या अपवादों को छोड़कर इन दोनांे प्रावधानों का पालन आज हो रहा है ?
पहले राज्य सभा को लोग एक शालीन और विद्वान सदन के रूप में जानते-पहचानते थे।
लोक सभा के सदस्य जनता से सीधे चुने हुए थे,इसलिए कोई जरूरी नहीं कि वे विद्वान भी हों।
क्या इस मामले में आज दोनों सदनों में कोई अंतर रह
गया है ?
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दूसरी ओर, जो दिक्कतें आ रही हैं,उनकी कल्पना संविधान निर्माताओं को नहीं थी।
तब संभवतः यह माना जा रहा था कि एक ही दल या दल समूह का दोनों सदनों में लगातार बहुमत रहता रहेगा।
कुछ दशकों तक ऐसा हुआ भी।
पर,समय बीतने के साथ कई बार ऐसा हुआ कि लोक सभा में बहुमत हासिल कर लेने के बावजूद सरकार देशहित के अपने महत्वपूर्ण नीतियों -कार्यक्रमों को लागू नहीं कर सकी।
क्योंकि राज्य सभा में उसका बहुमत नहीं था।
लोक सभा चुनाव में भारी बहुमत से आम जनता से मिले जनादेश के बावजूद कई बार राजनीतिक दल बहुत से अच्छे काम नहीं कर पाते।
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एक अन्य तरह की समस्या भी
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सन 1977 के बाद कई बार ऐसा हुआ कि सरकार के बदल जाने के बावजूद राज्य सभा के उप सभापति के पद पर वही व्यक्ति बने रह गए जो पिछली सरकार के कार्यकाल में चुने गए थे।
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राम निवास मिर्धा मार्च, 1977 से 1980 तक राज्य सभा के उप सभापति थे।
उप सभापति बनने से पहले वे कांग्रेस में थे।
मार्च, 1977 में मोरारजी देसाई की गैर कांग्रेसी सरकार बन गई।
किंतु कांग्रेस ने मिर्धा को उस पद पर बने रहने दिया।
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कांग्रेस की नजमा हेपतुल्ला 1988 में उप सभापति बनीं।
वह सन 2004 तक उस पद पर रहीं।
उस बीच लंबे समय तक अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी।
कांग्रेस ने नजमा से इस्तीफा नहीं दिलवाया।
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कांग्रेस के पी.जे.कुरियन सन 2012 से सन 2018 तक उप सभापति रहे।
कांग्रेस ने उनसे इस्तीफा नहीं मागा।
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जदयू के हरिवंश नारायण सिंह सन 2018 में उप सभापति बने।
अब भी उस पद पर है।
इस बीच जदयू ने भाजपा से संबंध तोड़ लिया।
किंतु 17 अगस्त, 2022 को जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह ने अपने प्रेस बयान में कहा कि हरिवंश नारायण सिंह को उप सभापति पद छोड़ने की जरूरत नहीं है।
हरिवंश जी के बारे में जदयू में ताजा सोच-विचार क्या है,यह मुझे नहीं मालूम।
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रामनिवास मिर्धा,नजमा हेपतुल्ला,पी.जे.कुरियन और हरिवंश नारायण सिंह शालीन व्यक्तित्व के धनी रहे हैं।
इन्हें किसी अन्य दल की सरकार के कार्यकाल में भी उप सभापति बने रहने में कोई दिक्कत नहीं हुई।
किंतु संबधित दलों के सारे नेता और कार्यकर्ता एक ही तरह से तो नहीं सोच सकते।
कुछ दलीय नेताओं के लिए यह असहज स्थिति हो सकती है।
यदि राज्य सभा का कार्यकाल पांच साल का हो जाए तो ऐसी असहजता की नौबत भी नहीं आएगी।
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20 नवंबर 22