एक वो भी जमाना था !!
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सुरेंद्र किशोर उर्फ सुरेंद्र अकेला
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मैंने पटना से प्रकाशित ‘जनता’ साप्ताहिक में संपादक के नाम एक पत्र (11 नवंबर, 1973) लिखा था।
उसमें इस बात की शिकायत की गई थी कि डाक से भेजी जाने वाली पत्रिकाओं को ग्राहकों तक पहुंचाने के बदले कुछ डाक कर्मी उन्हें अपने घर ले जाते हैं।
उनमें से कुछ पढ़ने के लिए ले जाते हैं तो कुछ अन्य उसे चूल्हे में झोंकने के लिए।
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तब का शासन तंत्र अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील था।
उस पत्र के जवाब में बिहार अंचल के महा डाकपाल ने जनता साप्तहिक को ,जहां मैं सहायक संपादक के रूप में कार्यरत था,एक पत्र लिखा।
लिखा कि ‘‘मैं आपकी शिकायतों की पूरी छानबीन कर रहा हूं और शीघ्र दुबारा आपको सूचित करूंगा।’’
(दोनों की स्कैन काॅपी यहां पेश है।)
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सन 1976 में मेरी पत्नी की सरकारी स्कूल में सहायक शिक्षिका के रूप में बहाली हुई थी।
सारण के डी.एस.ई.आॅफिस ने उसकी ऐसी जगह एक सुदूर गांव में पोस्टिंग कर दी जहां दो नदियों को पार कर जाना पड़ता था।
मैंने इस सबंध में दैनिक ‘सर्चलाइट’ में संपादक के नाम पत्र लिखा।वह छपा भी।ं
पटना सचिवालय ने उस पत्र की कटिंग के आधार पर फाइल खोली।
नतीजतन मेरी पत्नी का मेरे गांव के नजदीक के स्कूल में स्थानांतरण हो गया।
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1977 में जब कर्पूरी ठाकुर मुख्य मंत्री बने तो उन्होंने अपने अफसरों को निदेश दिया कि वे अखबारों में छप रहे संपादक के नाम पत्र जरूर पढें़,उनमें लिखी गई समस्याओं पर ध्यान दें।समुचित कार्रवाई करें।
इस क्रम में कर्पूरी जी ने दैनिक ‘जनशक्ति’ का खास तौर पर जिक्र किया था।
‘जनशक्ति’ सी.पी.आई. से जुड़ा अखबार था।
सी.पी.आई.उन दिनों जनता सरकार की कट्टर विरोधी थी।
जनशक्ति में उसकी झलक साफ दिखाई पड़ती थी।
याद रहे कि कर्पूरी जी ‘‘निंदक नियरे राखिए’’ वाला सिद्धांत मानते थे।
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यह सब मैंने क्यों लिखा ?
अब इसे आप ही समझिए और गुणिए ।
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25 नवंबर 22
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