सुभाष चंद्र बोस, महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध जब कांग्रेस अध्यक्ष चुन लिए गए, तो कांग्रेस में बवाल हो गया था। रामगढ़ कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस ने अध्यक्ष पद के चुनाव में पट्टाभि सीता रमैया को हराया था। इस पर महात्मा गांधी ने कहा था कि पट्टाभि की हार मेरी हार है। फिर क्या था, पूरी कांग्रेस कार्यसमिति ने इस्तीफा दे दिया। हार कर सुभाषचंद्र बोस ने भी अध्यक्ष पद छोड़ दिया।इसमें सुभाष की नैतिक जीत और गांधी की नैतिक हार हुई। कहा गया कि लोकतांत्रिक ढंग से विजयी एक कांग्रेस अध्यक्ष को गांधी जी ने काम नहीं करने दिया।
बाद में सुभाष चंद्र बोस ने फाॅरवर्ड ब्लाक बना लिया, पर सुभाष चंद्र बोस के विमान दुर्घटना में निधन की जब खबर आई, तो महात्मा गांधी ने कहा कि हिंदुस्तान का सबसे बहादुर व्यक्ति आज नहीं रहा। पर इस विवाद पर सरदार बल्लभ भाई पटेल तथा कुछ अन्य लोगों के साथ सुभाष चंद्र बोस के पत्र व्यवहार पढ़ने लायक हैं। इसे दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इसका संपादन किया है डाॅ.पी.एन. चोपड़ा और डाॅ. प्रभा चोपड़ा ने।
सरदार बल्लभ भाई पटेल ने 7 फरवरी, 1939 को सुभाष चंद्र बोस को लिखा कि ‘आपके निर्वाचन के तुरंत बाद प्रेस ने यह छापा कि हम सबने कार्यसमिति से त्यागपत्र दे दिया है। ए.पी. के प्रतिनिधि ने बारदोली में मुझसे जानना चाहा। मैंने उनसे उस समय इस रिपोर्ट का प्रतिवाद करने को कहा।’ ‘उसके बाद मुझे मौलाना (अबुल कलाम आजाद) का तार मिला, जिसमें उन्होंने हम सबको त्यागपत्र देने का सुझाव दिया है। मैंने सोचा कि आपके निर्वाचन के तुरंत बाद हमारे त्यागपत्र देने से गलतफहमी पैदा होगी तथा आपको उलझन हो सकती है। अब राजन बाबू (डाॅ राजेंद्र प्रसाद) ने मुझे लिखा है कि यदि इस समय हम इस्तीफा दें, तो इससे मदद मिलेगी और इस सुझाव के समर्थन में जो तर्क उन्होंने दिए हैं, वे मुझे उचित लगते हैं।’
‘हमारे संविधान के अनुसार निवर्तमान कार्यसमिति विषय समिति का कार्यक्रम तय करती है। अंतिम क्षण तक कार्यसमिति में बने रहना अनुचित होगा और इस प्रक्रिया से अगले वर्ष के लिए आपको कार्यक्रम तय करने में परेशानी होगी। यह आपका अधिकार है कि आपको अपना कार्यक्रम तय करने की स्वतंत्रता मिले।’
‘हम सब त्यागपत्र देने को तैयार हैं, जैसे ही आप हमें सूचित करते हैं कि आपको इससे कोई परेशानी नहीं होगी। यदि आप चाहते हैं कि हम थोड़ा इंतजार करें, तो हम आपकी बात मानेंगे, लेकिन उतना ही जितना आपको सुविधाजनक हो। कृपया इस विषय पर अपनी इच्छा तार द्वारा सूचित करें।’ अंततः सरदार पटेल ने त्यागपत्र दे ही दिया। उसे दुःख के साथ स्वीकार करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने 26 फरवरी, 1939 को लिखा,‘ प्रिय सरदार जी, आपका संयुक्त त्यागपत्र 22 फरवरी को वर्धा में ठीक समय पर प्राप्त हो गया। मेरी अस्वस्थता के कारण उसका उत्तर पहले देना संभव न हो सका। सामान्यतया मुझसे आपसे आपके निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कहना चाहिए था और त्रिपुरी में मिलने तक इस त्यागपत्र को रोकना चाहिए था, लेकिन मैं जानता हूं कि आपने खूब सोच विचार कर निर्णय लिया है और निर्णय लेने से पहले आपने सभी परिस्थितियों पर विचार किया होगा। यदि इस समय मुझे जरा भी संभावना होती कि आप अपने त्यागपत्र पर पुनर्विचार करेंगे, तो मैं आपसे इस्तीफा वापस लेने का अनुनय विनय करता, लेकिन वर्तमान परिस्थिति में औपचारिक प्रार्थना से काम नहीं बनेगा, अतः मैं आपका त्यागपत्र बहुत दुःख के साथ स्वीकार करता हूं।’
‘फिर भी मैं मानता हूं कि आपके त्यागपत्र का मतलब मेरे कर्तव्य पालन में आपका सहयोग व सहायता वापस लेना नहीं है। यह बताना मेरे लिए जरूरी है कि आपका सहयोग व सहायता मेरे लिए अमूल्य होंगे। मुझे आशा है और विश्वास भी कि त्रिपुरी कांग्रेस में हमारी सहमति के बिंदु असहमति के बिंदुओं से अधिक होंगे और परिणामतः भविष्य में हम दल को मजबूत बनाए रख सकेंगे। मुझे रोजाना बुखार आ रहा है और स्वास्थ्य लाभ की गति बहुत धीमी है। भवदीय, सुभाष बोस।’
इससे पहले 8 फरवरी, 1939 को सरदार पटेल ने जवाहर लाल नेहरू को लिखा कि ‘ मुझे आपका पिछला पत्र बारदोली में मिला, जो आपने संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने या स्वतंत्र बयान जारी करने के मेरे निवेदन के उत्तर में लिखा था। मैंने बापू के अनुरोध पर आपसे यह निवेदन किया था। मैंने उन्हें आपका जवाब दिखाया था और उन्होंने मुझसे जो कुछ मैं महसूस करता हूं, पत्र में लिखने को कहा। वह स्वयं उस पत्र से अप्रसन्न थे, लेकिन मैंने आपको परेशान करना ठीक नहीं समझा। संयुक्त बयान भी उनके अनुरोध पर जारी किया गया। वास्तव में मैंने उनसे कहा था कि इससे मेरे विरुद्ध गाली-गलौज करने का और भी बहाना मिलेगा, परंतु उन्होंने जोर दिया तथा मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया। मौलाना अंतिम क्षण में पीछे हट गए।’
‘मुझे खुशी है कि हम हार गए। समरूप कार्यसमिति के अभाव में कोई प्रभावी कार्य संभव नहीं है और मैं हमेशा से इस अवसर की प्रार्थना करता रहा हूं। मुझे घृणा इस बात से है कि अपने को वामपंथी होने का दावा करनेवाले लोगों द्वारा जो तरीके अपनाए गए और उससे भी अधिक अध्यक्ष (सुभाष चंद्र बोस) द्वारा अपनाया गया, जिन्होंने हमारे ऊपर ब्रिटिश सरकार के साथ षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया और यह कि हमने एक संघीय मंत्रिमंडल अस्थायी तौर पर बनाया हुआ है। हमारे शत्रुओं ने भी हमारी ईमानदारी का श्रेय हमें दिया, परंतु हमारे अध्यक्ष (सुभाष चंद्र बोस) ने नहीं, जो भी हो, हमें कोई संदेह नहीं है कि हमें क्या करना है और हमने सुभाष को लिख दिया है कि हम उनकी सुविधा के अनुसार सदस्यता छोड़ने को तैयार हैं। जीवट इस पत्र की एक प्रति आपको दिखा देंे, जो मैंने कल उन्हें भेजी है।’
‘मुझे आपके विचार ज्ञात नहीं हैं, लेकिन मुझे आशा है कि जो कुछ हम करने जा रहे हैं, उसके लिए आप हमें दोष नहीं देंगे। मैं सोचता हूं कि मेरे भाग्य में गाली खाना लिखा है। बंगाल प्रेस बहुत गुस्से में है और नारीमन और खरे घटना के लिए मुझे दोष दे रहे हैं। हालांकि मेरे सभी सहयोगी इसके लिए संयुक्त रूप से जिममेदार हैं। वास्तव में डाखरे के मामले में सुभाष मिटिंग में प्रारंभ से अंत तक उपस्थित थे और उन्हींं के द्वारा सबकुछ संचालित किया गया।’
‘बड़ौदा में भी मैंने तूफान ला दिया है तथा महाराष्ट्र प्रेस मेरे खिलाफ विष वमन कर रहा है और वे मेरे खून के प्यासे हो गए हैं। पूरा काठियावाड़ राजकोट की वजह से धधक रहा है। बड़ी जागृति पैदा हो गई है और राजकुमारों द्वारा आसानी से समर्पण कर दिया गया होता, यदि रेजीडेंट द्वारा उन्हें नहीं कसा गया होता।’ सुभाष चंद्र बोस जब कांग्रेस अध्यक्ष पद से अलग हुए, तो उन्होंने देशव्यापी आंदोलन व विद्रोह आयोजित करने का निर्णय कर लिया। तब डाॅ राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे।
सरदार बल्लभ भाई पटेल ने इस बारे में 12 जुलाई, 1939 को डाॅ राजेंद्र प्रसाद को लिखा कि ‘मेरा सुझाव है कि सुभाष बाबू के अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के निर्णयों के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन और विद्रोह आयोजित करने के उनके निर्णय के स्पष्टीकरण के लिए एक नोटिस दिया जाए, क्योंकि बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कार्यपालिका के अध्यक्ष होने के नाते उन निर्णयों का आदर करने और कार्यान्वयन करने को वे बाध्य हैं। जहां तक बंगाल प्रांतीय कार्यपालिका का संबंध है, बेहतर होगा कि उसे भी ऐसा नोटिस दिया जाए। उन्होंने आपकी सलाह की उपेक्षा की है, अनुशासन भंग किया है। उन्हें अपना स्पष्टीकरण भेजने दीजिए और अगली बैठक में हम उन पर कार्रवाई करने के प्रश्न पर विचार करेंगे। इस समय हमारी ओर से कमजोरी दिखने से अनुशासनहीनता फैलेगी और हमारा संगठन कमजोर होगा। आपने बंबई सरकार की मद्यनिषेध नीति पर सुभाष बाबू का बयान देखा होगा। उन्होंने हमारे शत्रुओं से भी बुरा व्यवहार किया है।’
इससे पहले 18 अप्रैल, 1939 को सरदार पटेल को लिखा कि ‘आज उड़ीसा के प्रधानमंत्री का संदेश मुझे फोन पर मिला है, जिसमें महामहिम राज्यपाल ने जानना चाहा है कि जंग (द्वितीय विश्व युद्ध) छिड़ने पर कांग्रेस सरकार का क्या रवैया रहेगा। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और कार्यसमिति के आदेशों के विचाराधीन रहते हुए मैं सुझाव देता हूं कि जब कभी आपके प्रांत के राज्यपाल द्वारा आपसे यह प्रश्न पूछा जाए, तो आप फैज पुर और हरी पुरा के युद्ध विरोधी प्रस्ताव के अनुरूप निम्न रूप से उत्तर दें-‘कांग्रेस के दो वार्षिक सत्रों में जंग छिड़ने की सूरत में अखिल भारतीय कांग्रेस का रवैया स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है। यह रवैया असहयोग का होगा। भारत उपनिवेश युद्ध में भाग नहीं लेगा और ब्रिटिश साम्राज्य के हित में अपने लोगों व स्त्रोतांे की बलि नहीं देगा। यदि ऐसा संकट पैदा होता है और भारत का शोषण करने का प्रयत्न किया जाता है, तो अहिंसात्मक रूप से इसका विरोध किया जाएगा। कांग्रेस द्वारा असहयोग की नीति अपनाए जाने की दिशा में क्या विस्तृत कदम उठाए जाएंगे, वह तत्कालीन परिस्थितियों और ब्रिटिश सरकार के रवैए पर निर्भर करेगा।’ पर कांग्रेस संगठन की मुख्य धारा सुभाष चंद्र बोस के इस विचार से सहमत नहीं थी। संभवतः इसीलिए इसके विरोध में सरदार पटेल के विचार आए।
मई, 1939 में सरदार ने कहा कि ‘वर्तमान समय में चेतावनी देने का माहौल नहीं है। एक विशाल जन समूह के सामने सरदार पटेल ने कहा कि कांग्रेस के पास सेना नहीं है। इसकी शक्ति केवल सत्य और अहिंसा है। कांग्रेस संगठन में अनबन, अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार व्याप्त है। देश में, ब्रिटिश भारत में और प्रांतों -दोनों में हिंसा बढ़ी है और हिंदू-मुस्लिम दंगे सब जगह हो रहे हैं। ऐसी स्थिति और वातावरण में चेतावनी की बात करना अविवेक की पराकाष्ठा होगी। यह समय सत्याग्रह की लड़ाई शुरू करने का नहीं है। यदि सत्याग्रह प्रारंभ किया जाता है, तो देश में अराजकता फैलेगी। हम कमजोर हैं और यदि हम चेतावनी देते हैं और असफल रहते हैं, तो हमारी बदनामी होगी’ सरदार ने कहा। उन्होंने कांग्रेस संगठन के शुद्धिकरण पर और कांग्रेस संविधान में ऐसे परिवर्तन करने पर जोर दिया, जिससे उच्च निष्ठावाले लोगों को कांग्रेस में स्थान मिले और कांग्रेस मजबूत हो।
सरदार पटेल ने श्री बोस के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचन और कार्यसमिति के संगठन की स्थिति के संबंध में विचार व्यक्त किए। उन्होंने महसूस किया कि वर्तमान वातावरण में भाषणों से काम नहीं बनेगा, बल्कि उनके कार्यों से ही उनके बारे में गलतफहमियां दूर हो पाएंगी। उन्होंने कम-से-कम बीस वर्षों से देश की सेवा की है। उनका कोई स्वार्थ परक प्रयोजन नहीं है। वह कोई कपट नहीं रखते। उन्होंने इंगित किया कि कार्यसमिति के तेरह सदस्यों का विचार है कि श्री बोस को कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए खुद को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। एक तरफ श्री बोस और दूसरी तरफ 13 सदस्यों के बीच मतभेद विचारणीय है।’ नेता जी सुभाष चंद्र के जीवनकाल में उनके साथ राजनीतिक मतभेदों के बावजूद सरदार पटेल उनके नहीं रहने पर आजाद हिंद फौज जांच एवं राहत समिति के अध्यक्ष पद का कार्यभार संभाला।
सरदार ने अमृत बाजार पत्रिका के संपादक को इस हैसियत से 26 दिसंबर, 1945 को लिखा कि ‘संपूर्ण भारत में विभिन्न स्थानों में एकत्र किए गए कोष का प्रभार केंद्रीय समिति के पास रहेगा। नीति की एक रूपता की दृष्टि से एवं निधि के उचित नियमन एवं वितरण हेतु यह आवश्यक समझा गया कि विभिन्न स्थानों में एकत्र किए गए फंड के नियंत्रण और प्रबंधन का केंद्रीयकरण किया जाए।’ ‘मैं समझता हूं कि आपने भी अपने प्रतिष्ठित समाचार पत्र के माध्यम से इसी उद्देश्य के लिए एक फंड खोला है। अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष होने के नाते मेरा आपसे निवेदन है कि फंड यथाशीघ्र भेज दिया जाए और भविष्य में जब भी फंड एकत्र हो, उसे भेजते रहें।’
सरदार पटेल और कांग्रेस मेडिकल मिशन के संगठनकर्ता डाॅ बी.सी. राय ने आजाद हिंद फौज निधि में उदारतापूर्वक दान देने की लोगो ंसे अपील करते हुए कहा कि वे नकदी और सामान देकर इस काम में मदद करें। हमें बताया गया है कि मलाया में जीवन की दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं दुर्लभ हैं और बहुत महंगी हैं।’
उन्होंने कहा कि गत दिसंबर में भारतीय स्वाधीनता लीग तथा मलाया और बर्मा में आजाद हिंद फौज के सदस्यों द्वारा चिकित्सा मदद मांगने की अपील पर कांग्रेस कार्यसमिति ने जरूरतमंद लोगों को राहत देने के लिए मलाया, बर्मा इत्यादि में कांग्रेस की ओर से एक चिकित्सा मिशन भेजने का निश्चय किया है और डाॅ विधान चंद्र राय को मेरे परामर्श से एक मिशन गठित करने तथा उसे शीघ ही भेजने का प्रबंध करने के लिए अधिकृत किया गया।
बाद में सुभाष चंद्र बोस ने फाॅरवर्ड ब्लाक बना लिया, पर सुभाष चंद्र बोस के विमान दुर्घटना में निधन की जब खबर आई, तो महात्मा गांधी ने कहा कि हिंदुस्तान का सबसे बहादुर व्यक्ति आज नहीं रहा। पर इस विवाद पर सरदार बल्लभ भाई पटेल तथा कुछ अन्य लोगों के साथ सुभाष चंद्र बोस के पत्र व्यवहार पढ़ने लायक हैं। इसे दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। इसका संपादन किया है डाॅ.पी.एन. चोपड़ा और डाॅ. प्रभा चोपड़ा ने।
सरदार बल्लभ भाई पटेल ने 7 फरवरी, 1939 को सुभाष चंद्र बोस को लिखा कि ‘आपके निर्वाचन के तुरंत बाद प्रेस ने यह छापा कि हम सबने कार्यसमिति से त्यागपत्र दे दिया है। ए.पी. के प्रतिनिधि ने बारदोली में मुझसे जानना चाहा। मैंने उनसे उस समय इस रिपोर्ट का प्रतिवाद करने को कहा।’ ‘उसके बाद मुझे मौलाना (अबुल कलाम आजाद) का तार मिला, जिसमें उन्होंने हम सबको त्यागपत्र देने का सुझाव दिया है। मैंने सोचा कि आपके निर्वाचन के तुरंत बाद हमारे त्यागपत्र देने से गलतफहमी पैदा होगी तथा आपको उलझन हो सकती है। अब राजन बाबू (डाॅ राजेंद्र प्रसाद) ने मुझे लिखा है कि यदि इस समय हम इस्तीफा दें, तो इससे मदद मिलेगी और इस सुझाव के समर्थन में जो तर्क उन्होंने दिए हैं, वे मुझे उचित लगते हैं।’
‘हमारे संविधान के अनुसार निवर्तमान कार्यसमिति विषय समिति का कार्यक्रम तय करती है। अंतिम क्षण तक कार्यसमिति में बने रहना अनुचित होगा और इस प्रक्रिया से अगले वर्ष के लिए आपको कार्यक्रम तय करने में परेशानी होगी। यह आपका अधिकार है कि आपको अपना कार्यक्रम तय करने की स्वतंत्रता मिले।’
‘हम सब त्यागपत्र देने को तैयार हैं, जैसे ही आप हमें सूचित करते हैं कि आपको इससे कोई परेशानी नहीं होगी। यदि आप चाहते हैं कि हम थोड़ा इंतजार करें, तो हम आपकी बात मानेंगे, लेकिन उतना ही जितना आपको सुविधाजनक हो। कृपया इस विषय पर अपनी इच्छा तार द्वारा सूचित करें।’ अंततः सरदार पटेल ने त्यागपत्र दे ही दिया। उसे दुःख के साथ स्वीकार करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस ने 26 फरवरी, 1939 को लिखा,‘ प्रिय सरदार जी, आपका संयुक्त त्यागपत्र 22 फरवरी को वर्धा में ठीक समय पर प्राप्त हो गया। मेरी अस्वस्थता के कारण उसका उत्तर पहले देना संभव न हो सका। सामान्यतया मुझसे आपसे आपके निर्णय पर पुनर्विचार के लिए कहना चाहिए था और त्रिपुरी में मिलने तक इस त्यागपत्र को रोकना चाहिए था, लेकिन मैं जानता हूं कि आपने खूब सोच विचार कर निर्णय लिया है और निर्णय लेने से पहले आपने सभी परिस्थितियों पर विचार किया होगा। यदि इस समय मुझे जरा भी संभावना होती कि आप अपने त्यागपत्र पर पुनर्विचार करेंगे, तो मैं आपसे इस्तीफा वापस लेने का अनुनय विनय करता, लेकिन वर्तमान परिस्थिति में औपचारिक प्रार्थना से काम नहीं बनेगा, अतः मैं आपका त्यागपत्र बहुत दुःख के साथ स्वीकार करता हूं।’
‘फिर भी मैं मानता हूं कि आपके त्यागपत्र का मतलब मेरे कर्तव्य पालन में आपका सहयोग व सहायता वापस लेना नहीं है। यह बताना मेरे लिए जरूरी है कि आपका सहयोग व सहायता मेरे लिए अमूल्य होंगे। मुझे आशा है और विश्वास भी कि त्रिपुरी कांग्रेस में हमारी सहमति के बिंदु असहमति के बिंदुओं से अधिक होंगे और परिणामतः भविष्य में हम दल को मजबूत बनाए रख सकेंगे। मुझे रोजाना बुखार आ रहा है और स्वास्थ्य लाभ की गति बहुत धीमी है। भवदीय, सुभाष बोस।’
इससे पहले 8 फरवरी, 1939 को सरदार पटेल ने जवाहर लाल नेहरू को लिखा कि ‘ मुझे आपका पिछला पत्र बारदोली में मिला, जो आपने संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने या स्वतंत्र बयान जारी करने के मेरे निवेदन के उत्तर में लिखा था। मैंने बापू के अनुरोध पर आपसे यह निवेदन किया था। मैंने उन्हें आपका जवाब दिखाया था और उन्होंने मुझसे जो कुछ मैं महसूस करता हूं, पत्र में लिखने को कहा। वह स्वयं उस पत्र से अप्रसन्न थे, लेकिन मैंने आपको परेशान करना ठीक नहीं समझा। संयुक्त बयान भी उनके अनुरोध पर जारी किया गया। वास्तव में मैंने उनसे कहा था कि इससे मेरे विरुद्ध गाली-गलौज करने का और भी बहाना मिलेगा, परंतु उन्होंने जोर दिया तथा मैंने उनकी आज्ञा का पालन किया। मौलाना अंतिम क्षण में पीछे हट गए।’
‘मुझे खुशी है कि हम हार गए। समरूप कार्यसमिति के अभाव में कोई प्रभावी कार्य संभव नहीं है और मैं हमेशा से इस अवसर की प्रार्थना करता रहा हूं। मुझे घृणा इस बात से है कि अपने को वामपंथी होने का दावा करनेवाले लोगों द्वारा जो तरीके अपनाए गए और उससे भी अधिक अध्यक्ष (सुभाष चंद्र बोस) द्वारा अपनाया गया, जिन्होंने हमारे ऊपर ब्रिटिश सरकार के साथ षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया और यह कि हमने एक संघीय मंत्रिमंडल अस्थायी तौर पर बनाया हुआ है। हमारे शत्रुओं ने भी हमारी ईमानदारी का श्रेय हमें दिया, परंतु हमारे अध्यक्ष (सुभाष चंद्र बोस) ने नहीं, जो भी हो, हमें कोई संदेह नहीं है कि हमें क्या करना है और हमने सुभाष को लिख दिया है कि हम उनकी सुविधा के अनुसार सदस्यता छोड़ने को तैयार हैं। जीवट इस पत्र की एक प्रति आपको दिखा देंे, जो मैंने कल उन्हें भेजी है।’
‘मुझे आपके विचार ज्ञात नहीं हैं, लेकिन मुझे आशा है कि जो कुछ हम करने जा रहे हैं, उसके लिए आप हमें दोष नहीं देंगे। मैं सोचता हूं कि मेरे भाग्य में गाली खाना लिखा है। बंगाल प्रेस बहुत गुस्से में है और नारीमन और खरे घटना के लिए मुझे दोष दे रहे हैं। हालांकि मेरे सभी सहयोगी इसके लिए संयुक्त रूप से जिममेदार हैं। वास्तव में डाखरे के मामले में सुभाष मिटिंग में प्रारंभ से अंत तक उपस्थित थे और उन्हींं के द्वारा सबकुछ संचालित किया गया।’
‘बड़ौदा में भी मैंने तूफान ला दिया है तथा महाराष्ट्र प्रेस मेरे खिलाफ विष वमन कर रहा है और वे मेरे खून के प्यासे हो गए हैं। पूरा काठियावाड़ राजकोट की वजह से धधक रहा है। बड़ी जागृति पैदा हो गई है और राजकुमारों द्वारा आसानी से समर्पण कर दिया गया होता, यदि रेजीडेंट द्वारा उन्हें नहीं कसा गया होता।’ सुभाष चंद्र बोस जब कांग्रेस अध्यक्ष पद से अलग हुए, तो उन्होंने देशव्यापी आंदोलन व विद्रोह आयोजित करने का निर्णय कर लिया। तब डाॅ राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे।
सरदार बल्लभ भाई पटेल ने इस बारे में 12 जुलाई, 1939 को डाॅ राजेंद्र प्रसाद को लिखा कि ‘मेरा सुझाव है कि सुभाष बाबू के अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के निर्णयों के विरुद्ध देशव्यापी आंदोलन और विद्रोह आयोजित करने के उनके निर्णय के स्पष्टीकरण के लिए एक नोटिस दिया जाए, क्योंकि बंगाल प्रांतीय कांग्रेस कार्यपालिका के अध्यक्ष होने के नाते उन निर्णयों का आदर करने और कार्यान्वयन करने को वे बाध्य हैं। जहां तक बंगाल प्रांतीय कार्यपालिका का संबंध है, बेहतर होगा कि उसे भी ऐसा नोटिस दिया जाए। उन्होंने आपकी सलाह की उपेक्षा की है, अनुशासन भंग किया है। उन्हें अपना स्पष्टीकरण भेजने दीजिए और अगली बैठक में हम उन पर कार्रवाई करने के प्रश्न पर विचार करेंगे। इस समय हमारी ओर से कमजोरी दिखने से अनुशासनहीनता फैलेगी और हमारा संगठन कमजोर होगा। आपने बंबई सरकार की मद्यनिषेध नीति पर सुभाष बाबू का बयान देखा होगा। उन्होंने हमारे शत्रुओं से भी बुरा व्यवहार किया है।’
इससे पहले 18 अप्रैल, 1939 को सरदार पटेल को लिखा कि ‘आज उड़ीसा के प्रधानमंत्री का संदेश मुझे फोन पर मिला है, जिसमें महामहिम राज्यपाल ने जानना चाहा है कि जंग (द्वितीय विश्व युद्ध) छिड़ने पर कांग्रेस सरकार का क्या रवैया रहेगा। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी और कार्यसमिति के आदेशों के विचाराधीन रहते हुए मैं सुझाव देता हूं कि जब कभी आपके प्रांत के राज्यपाल द्वारा आपसे यह प्रश्न पूछा जाए, तो आप फैज पुर और हरी पुरा के युद्ध विरोधी प्रस्ताव के अनुरूप निम्न रूप से उत्तर दें-‘कांग्रेस के दो वार्षिक सत्रों में जंग छिड़ने की सूरत में अखिल भारतीय कांग्रेस का रवैया स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है। यह रवैया असहयोग का होगा। भारत उपनिवेश युद्ध में भाग नहीं लेगा और ब्रिटिश साम्राज्य के हित में अपने लोगों व स्त्रोतांे की बलि नहीं देगा। यदि ऐसा संकट पैदा होता है और भारत का शोषण करने का प्रयत्न किया जाता है, तो अहिंसात्मक रूप से इसका विरोध किया जाएगा। कांग्रेस द्वारा असहयोग की नीति अपनाए जाने की दिशा में क्या विस्तृत कदम उठाए जाएंगे, वह तत्कालीन परिस्थितियों और ब्रिटिश सरकार के रवैए पर निर्भर करेगा।’ पर कांग्रेस संगठन की मुख्य धारा सुभाष चंद्र बोस के इस विचार से सहमत नहीं थी। संभवतः इसीलिए इसके विरोध में सरदार पटेल के विचार आए।
मई, 1939 में सरदार ने कहा कि ‘वर्तमान समय में चेतावनी देने का माहौल नहीं है। एक विशाल जन समूह के सामने सरदार पटेल ने कहा कि कांग्रेस के पास सेना नहीं है। इसकी शक्ति केवल सत्य और अहिंसा है। कांग्रेस संगठन में अनबन, अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार व्याप्त है। देश में, ब्रिटिश भारत में और प्रांतों -दोनों में हिंसा बढ़ी है और हिंदू-मुस्लिम दंगे सब जगह हो रहे हैं। ऐसी स्थिति और वातावरण में चेतावनी की बात करना अविवेक की पराकाष्ठा होगी। यह समय सत्याग्रह की लड़ाई शुरू करने का नहीं है। यदि सत्याग्रह प्रारंभ किया जाता है, तो देश में अराजकता फैलेगी। हम कमजोर हैं और यदि हम चेतावनी देते हैं और असफल रहते हैं, तो हमारी बदनामी होगी’ सरदार ने कहा। उन्होंने कांग्रेस संगठन के शुद्धिकरण पर और कांग्रेस संविधान में ऐसे परिवर्तन करने पर जोर दिया, जिससे उच्च निष्ठावाले लोगों को कांग्रेस में स्थान मिले और कांग्रेस मजबूत हो।
सरदार पटेल ने श्री बोस के अध्यक्ष के रूप में निर्वाचन और कार्यसमिति के संगठन की स्थिति के संबंध में विचार व्यक्त किए। उन्होंने महसूस किया कि वर्तमान वातावरण में भाषणों से काम नहीं बनेगा, बल्कि उनके कार्यों से ही उनके बारे में गलतफहमियां दूर हो पाएंगी। उन्होंने कम-से-कम बीस वर्षों से देश की सेवा की है। उनका कोई स्वार्थ परक प्रयोजन नहीं है। वह कोई कपट नहीं रखते। उन्होंने इंगित किया कि कार्यसमिति के तेरह सदस्यों का विचार है कि श्री बोस को कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए खुद को प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। एक तरफ श्री बोस और दूसरी तरफ 13 सदस्यों के बीच मतभेद विचारणीय है।’ नेता जी सुभाष चंद्र के जीवनकाल में उनके साथ राजनीतिक मतभेदों के बावजूद सरदार पटेल उनके नहीं रहने पर आजाद हिंद फौज जांच एवं राहत समिति के अध्यक्ष पद का कार्यभार संभाला।
सरदार ने अमृत बाजार पत्रिका के संपादक को इस हैसियत से 26 दिसंबर, 1945 को लिखा कि ‘संपूर्ण भारत में विभिन्न स्थानों में एकत्र किए गए कोष का प्रभार केंद्रीय समिति के पास रहेगा। नीति की एक रूपता की दृष्टि से एवं निधि के उचित नियमन एवं वितरण हेतु यह आवश्यक समझा गया कि विभिन्न स्थानों में एकत्र किए गए फंड के नियंत्रण और प्रबंधन का केंद्रीयकरण किया जाए।’ ‘मैं समझता हूं कि आपने भी अपने प्रतिष्ठित समाचार पत्र के माध्यम से इसी उद्देश्य के लिए एक फंड खोला है। अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष होने के नाते मेरा आपसे निवेदन है कि फंड यथाशीघ्र भेज दिया जाए और भविष्य में जब भी फंड एकत्र हो, उसे भेजते रहें।’
सरदार पटेल और कांग्रेस मेडिकल मिशन के संगठनकर्ता डाॅ बी.सी. राय ने आजाद हिंद फौज निधि में उदारतापूर्वक दान देने की लोगो ंसे अपील करते हुए कहा कि वे नकदी और सामान देकर इस काम में मदद करें। हमें बताया गया है कि मलाया में जीवन की दैनिक आवश्यकता की वस्तुएं दुर्लभ हैं और बहुत महंगी हैं।’
उन्होंने कहा कि गत दिसंबर में भारतीय स्वाधीनता लीग तथा मलाया और बर्मा में आजाद हिंद फौज के सदस्यों द्वारा चिकित्सा मदद मांगने की अपील पर कांग्रेस कार्यसमिति ने जरूरतमंद लोगों को राहत देने के लिए मलाया, बर्मा इत्यादि में कांग्रेस की ओर से एक चिकित्सा मिशन भेजने का निश्चय किया है और डाॅ विधान चंद्र राय को मेरे परामर्श से एक मिशन गठित करने तथा उसे शीघ ही भेजने का प्रबंध करने के लिए अधिकृत किया गया।
पब्लिक एजेंडा (28-08-2008)
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