बुधवार, 21 जनवरी 2009

गणतंत्र दिवस पर लोकतंत्र बचाने की चिंता


भारतीय गणतंत्र के 59 साल में हमने क्या खोया और क्या पाया ? इस सवाल से जूझते हुए किसी निष्पक्ष व्यक्ति के दिमाग में पहली नजर में मुख्यतः कम से कम दो बातें कौंधती हैंं। हमारे देश के 80 करोड़ लोगों की रोज की आय सिर्फ बीस रुपए है।दूसरी ओर, इस देश के 36 उद्योगपतियों की कुल संपत्ति 191 अरब अमेरिकी डालर है।यह राशि भारत की 20 प्रतिशत आबादी की कुल आमदनी के बराबर है।इन 36 में से तीन लोग तो दुनिया के सर्वाधिक बीस अमीरों में शामिल हंै।बीस में सिर्फ पांच ही अमेरिका के हैं।यानी भारत में आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ रही है।असमानता से असंतोष पैदा हो रहा है।असंतोष जहां तहां विद्रोह को जन्म दे रहा है।विद्रोह कहीं हिंसक है तो कहीं अहिंसक। संविधान लागू होने के 58 साल बाद यह स्थिति है।जिस तरह औने पौने दाम पर जमीन व प्राकृतिक साधनों पर निजी कंपनियां कब्जा करती जा रही हैं,उससे यह संकेत है कि यह विषमता अभी और भी बढ़ेगी।विषमता बढ़ने के साथ साथ माओवादियों का प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ता जा रहा है।लगता तो यह है कि इस देश के अधिकतर हुक्मरान स्वार्थ में अंधे होकर देश को दोनोें हाथों से लूट रहे हैं और अंततः देर सवेर माओवादियों के हाथों इस देश को सौंप कर विदेश पलायन कर जाना चाहते हैं।यह संयोग नहीं है कि इस देश के तीन प्रतिशत अमीर लोगों ने नाजायज तरीके से अब तक विदेशों में 30 से 40 बिलियन डालर जमा कर रखा है।इस देश के अनेक अमीर व प्रभावशाली लोगों को हर साल नौ लाख करोड़ रुपए की कर-चोरी की छूट मिली हुई है। यह सब भारतीय संविधान के नीति निदेशक तत्व को नजरअंदाज करके हो रहा है।या यूं कहिए कि होने दिया जा रहा है। जतन से बनाए गए अपने संविधान के भाग - चार में राज्य के लिए कुछ नीति निदेशक तत्व दिए हुए हैं।एक तत्व भारत में संपत्ति के कुछ ही हाथों में संके्रद्रण को रोकने का उपाय बताता है।संविधान के अनुच्छेद - 39 @ग@ में लिखा हुआ है कि ‘आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले कि जिससे धन और उत्पादन के साधनों का अहितकारी संकेंंद्रण नहीं हो।’यानी,धन इस तरह कुछ लोगों की मुट्ठी में न चला जाए जिससे सर्व साधारण का अहित हो।पर संविधान के इस प्रावधान का इस देश में खुलेआम उलंघन हो रहा है।ऐसा उलंघन शायद ही किसी अन्य देश में हो रहा हो।सर्वाधिक शर्मनाक बात यह है कि गरीबों के हित साधन को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई सी.पी.एम. सरकार बंगाल में पूंजीपतियों को जमीन दिलाने के लिए गरीब किसानों का दमन कर रही है।वह भी छोटी कार बनाने के लिए।यदि आरामदायक बसें या बेहतर तकनीकी की साइकिलें या बेहतर लालटेन बनाने वाले उद्योगपतियों को सी.पी.एम.सरकार बढ़ावा देती तो बात समझ में आ सकती थी।पर, इन दिनों तो लगता है कि अधिकतर लोगों की मति ही मारी गई है। इस युग के अधिकतर नेताओं की मेहरबानी से यही सब 58 साल की उपलब्धियां हैं। जिस देश के 80 करोड़ लोगों की रोज की आय सिर्फ 20 रुपए मात्र हो,उस देश के सांसद पर हर माह करीब ढाई लाख रुपए खर्च हो,उसका कुछ ‘नतीजा’ ता देर सवेर निकलेगा ही। 58 साल की ‘उपलब्धि’ यह है कि आज देश की लोकतांत्रिक सिस्टम में एक भी राज नेता ऐसा नहीं है जो युवाओं के लिए आदर्श हो। संभवतः इसीलिए आज के युवा फिल्म व क्रिकेट में अपना आदर्श ढ़ंूढ़ने को मजबूर हैं। आज अधिकतर नेता देश के बारे में नहीं,बल्कि अपने पद,परिवार और पार्टी के बारे में ही चिंता करने में मगन हैं। देश कहां जा रहा है,इसकी चिंता मुख्य धारा की राजनीति करने वाले कितने लोगों में है ? थोड़े से लोगों की बढ़ती अमीरी को बेशर्मीपूर्वक पूरे देश की अमीरी का प्रतीक बताया जा रहा है।जबकि देश के सामान्य लोगों में व्यापक कुपोषण है।प्राथमिक शिक्षा उपेक्षित है।25 प्रतिशत लोग इस देश में अब भी निरक्षर हैं। इतने ही लोग गरीबी रेखा से नीचे हैं।50 प्रतिशत महिलाएं निरक्षर हैं।कृषि पर काफी कम कम ध्यान दिया जा रहा है।बड़े शहरों को चमकाया जा रहा है। बच्चों और महिलाओं के कुपोषण को समाप्त करने के लिए भारत सरकार हर साल 4400 करोड़ रुपए आंगनबाडि़यों पर खर्च करती हैं।पर उनमें से अधिकांश राशि बीच में ही लूट ली जाती है।ऐसी लूट अन्य विकास व कल्याण योजनाओं में जारी है।गत दिसंबर तक के आकड़े के अनुसार भारत के हर व्यक्ति पर 6085 रुपए का विदेशी कर्ज है।यह संयोग नहीं है कि बिहार में लघु सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता के आवासों पर जब छापामारी होती है तो नकद 49 लाख रुपए पाए जाते हैं।इस तरह के कितने लोगों के यहां छापे पड़ेंगे तो इससे कम पेसे मिलेंगे ? हाल में किसी ने एक बैठकखाने की गपशप में कहा कि इस देश में किसी पार्टी या किसी नेता का शासन नहीं है बल्कि यहां तो ‘भ्रष्टाचार का शासन है।’ संभवतः उसने ठीक ही कहा। 58 साल के गणतंत्र और साढ़े साठ साल की आजादी के बाद हमें अक्सर यह सुनने को मिल जाता है कि रिश्वत के बल पर यहां कुछ भी कराया जा सकता है।जिसके पास पैसे हैं,वे हर तरह से निश्चिंत है।हो सकता है कि यह बात अक्षरशः सही नहीं हो,पर काफी हद तक सही है। गत आधी सदी में इस देश में एक और महत्वपूर्ण फर्क आया है।पहले भी थोड़ा-बहुत भ्रष्टाचार था।पर,भ्रष्ट लोग पहले शर्माते थे।वे ईमानदार लोगों से दबते थे।कुछ भ्रष्ट तत्व ईमानदार लोगों की इज्जत भी करते थे।पर अब आम तौर पर हर क्षेत्र में ईमानदार लोग ही दबते नजर आते हैं और हर क्षेत्र का भ्रष्ट तत्व सांड़ की तरह समाज में ऐंठ कर चलता है।सबसे बुरी बात है कि यह राजनीति में सबसे अधिक है।अब तो अनेक नेता खुलेआम यह कहते हैं कि भ्रष्टाचार कोई मुद्दा ही नहीं है।यह साढ़े साठ साल की आजादी व 58 साल के गणतंत्र का ‘विकास’ है।हालांकि सभी नेता भ्रष्ट ही नहीं हैं।पर ईमानदार नेता कमजोर पड़ते नजर आ रहे हैं।इतना कमजोर वे पहले कभी नहीं थे। मेरे सपनों का भारत नामक किताब में महात्मा गांधी ने लिखा था कि ‘मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि वह उनका देश है-जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्व है।मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूंगा जिसमें उंचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विभिन्न संप्रदायों में पूरा मेलजोल होगा।ऐसे भारत में अस्पृश्यता या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।’ पर आज तो केंद्र सरकार के नागरिक उड्डयन मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति एक स्वर से यह सिफारिश करती है कि घरेलू उड़ानों में भी शराब परोसी जाए।सिगरेट व बीड़ी के पाकेटों पर उनसे होने वाले नुकसानों को दर्शाते हुए जब चित्र छापने के लिए उत्पादकों को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय निदेश देता है तो देश के अनेक मुख्य मंत्री व सांसद उसका विरोध करते हैं।यहां तक आ पहुंचे हैं हम।भ्रष्टाचार के आरोप में फंसी किसी बड़ी राजनीतिक,प्रशासनिक या अन्य क्षेत्रों की हस्तियों को ऐन केन प्रकारेण सजा से बचा लिया जाता है।यह है हमारे गणतंत्र का हाल।आज तो गणतंत्र दिवस पर इस बात पर चिंतन करने की जरूरत है कि बड़ी कुर्बानी से मिले इस देश के लोकतंत्र व आजादी को कैसे बचाया जाए ! यह बात समझ में आनी चाहिए कि सरकारी व गैर सरकारी भ्रष्टाचार ही इस देश की सबसे बड़ी व्याधि है।इसी व्याधि से अन्य अधिकतर समस्याएं पैदा हो रही हैं। चाहे वह गरीबी की समस्या हो या आतंकवाद की या फिर उग्रवाद की। अधिकतर नेताओं और अंततः लोकतंत्र के प्रति आम लोगों में विश्वास डिगना शुरू होने का सबसे बड़ा कारण भी भ्रष्टाचार ही है।
राष्ट्रीय सहारा, पटना (26-1-2008)

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