रविवार, 18 जनवरी 2009

नेहरू का मनपसंद अखबार था मद्रास का ‘हिंदू’


जवाहर लाल नेहरू मद्रास के अंग्रेजी दैनिक ‘हिंदू’ को देश का सर्वोत्तम उत्पादित अखबार मानते थे। वे यह भी मानते थे कि संपादक एस.मुलगांवकर सर्वाधिक प्रभावशाली पत्रकारीय लेखन करते हैं।वे चाहते थे कि रोज शाम में उनके सामने हिंदू अखबार जरूर रखा जाए। ‘हिंदू’ उन दिनों दिल्ली से नहीं निकलता था।वह मद्रास से विमान से आता था।नेहरू हिंदू के संवाददाताओं को देश में सर्वोत्तम संवाददाता मानते थे।नेहरू के साथ वर्षों तक काम कर चुके एक निजी सचिव के अनुसार नेहरू किसी खास पत्रकार को अपना करीबी बनाने में विश्वास नहीं करते थे।इसके विपरीत उनके जमाने के कुछ बड़े नेताओं के अपने- अपने हमराज पत्रकार हुआ करते थे। यह आश्चर्य की बात है कि नेहरू को ‘हिंदू’ अखबार प्रिय था जबकि वह अखबार नेहरू की मिश्रित अर्थ व्यवस्था का समर्थक नहीं था।तब वह अखबार राजा गोपालाचारी की खुली अर्थ व्यवस्था की नीति का समर्थक था और उसके पक्ष में लेखन करता रहता था।वैसे भी नेहरू डा.राजेंद्र प्रसाद के बदले राजा गोपालाचारी को ही देश का प्रथम राष्ट्रपति बनाने पर अमादा थे। मिश्रित अर्थ व्यवस्था की विफलता के बाद खुली अर्थ व्यवस्था का कोई व्यक्ति समर्थक हो जाए तो बात समझ में भी आती है,पर पचास के दशक में तो सोवियत अर्थ व्यवस्था केे प्रति जब इस देश के एक बड़े हिस्से में रूमानी आकर्षण था तो राजा जी और ‘हिंद’ू को पसंद करना अजीब सा लगता है।हालांकि आज का ‘हिंदू’ आर्थिक मामलों मंे तब के ‘हिंद’ू की अपेक्षा बिलकुल अलग है। प्रेस के साथ नेहरू का व्यवहार कुल मिलाकर शालीन ही था।प्रेस भी तब कुछ ऐसा ही था।सरकार में आने से पहले कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों की तरह ही नेहरू भी ‘नेशनल हेराल्ड’ के लिए अनेक लेख व संपादकीय लिखे थे। यानी, वे इस स्थिति में थे कि पत्रकारों और पत्रकारिता के बारे में वस्तुपरक आकलन कर सकें।पहले हिंदुस्तान टाइम्स और बाद में इंडियन एक्सपे्रस के संपादक रहे एस.मुलगांकर ने नेहरू की नीतियों की कई बार अपने लेखन में कड़ी आलोचना की।इसके बावजूद नेहरू ने सरकार के प्रचार कार्यों को बेहतर बनाने के लिए मुलगांवकर की सेवाएं लेनी चाहींं।पर मुलगांवकर ने कुछ ऐसी शत्र्तें रख दीं जिन्हें नेहरू पूरी नहीं कर सके।बात आई- गई हो गई। देश के एक नामी पत्रकार को नेहरू सन् 1952 में सूचना व प्रसारण राज्य मंत्री बनाना चाहते थे।पर उस पत्रकार बी.शिवा राव ने कैबिनेट का दर्जा मांग लिया।इस पर नेहरू खिन्न हो गए और अपना यह विचार त्याग दिया।चर्चित पत्रकार दुर्गा दास को लेकर नेहरू ने एक बार जरूर घनश्याम दास बिड़ला से शिकायत की थी।दुर्गा दास हिंदुस्तान टाइम्स में नेहरू के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां करते थे।टाइम्स आॅफ इंडिया को लेकर भी एक बार नेहरू आर.के.डालमिया पर सख्त नाराज हुए थे।पर नेहरू ने इस नाराजगी के कारण अखबार का सरकारी विज्ञापन बंद नहीं कराया।हां,उन्होंने अपने स्टाफ को यह जरूर निदेश दे दिया कि यह अखबार उनके सामने नहीं लाया जाए।उन दिनों डालमिया ही उस अखबार समूह के मालिक थे।बाद में जब उनके रिश्तेदार शांति प्रसाद जैन ने इस समूह को संभाला तो यह नहीं सुना गया कि इस अखबार समूह ने कोई सरकार विरोधी अभियान चलाया हो। वैसे भी तब ‘की होल’ और इंवेस्टिगेटिव जर्नलिज्म का जमाना नहीं था।तब देश के अधिकतर बड़े नेताओं की राजनीति का एकमात्र उद्ेश्य सरकारी खजाने को लूट कर घर भरना भी नहीं था। नेहरू यह अच्छी तरह जानते थे कि मीडिया के एक हिस्से का यह अतिशयोक्तिपूर्ण दावा सही नहीं है कि लोक अभिमत को सिर्फ वह नेताओं की अपेक्षा अधिक प्रतिनिधित्व करता है।इसलिए जो पत्रकार इस गुमान में रहते थे,उनकी वे परवाह कम ही करते थे।एक दिलचस्प किंतु शर्मनाक वाकया ब्लिट्ज के मुतल्लिक सामने आया था।तब के अगिया बैताल संपादक आर.के.करंजिया ने अपनी साप्ताहिक पत्रिका ब्लिट्ज में यह खबर छापी कि इंदिरा गांधी ने एक व्यापारी से अनेक साडि़यां उपहार में ले ली हैं।इस खबर पर नेहरू खफा थे।उनके अनुसार यह खबर सही नहीं थी।उन्होंने मशहूर वकील कैलाश नाथ काटजू से संपर्क किया।उन्होंने सलाह दी कि ब्लिट्ज को लीगल नोटिस दी जाए और माफीनामा छापने को कहा जाए।धमकी दी गई कि प्रमुखता से क्षमा याचना छापिए अन्यथा कानूनी कार्रवाई की जाएगी।ब्लिट्ज के पास साड़ी स्वीकार करने का कोई सबूत तो था नहीं।उसने माफीनामा छाप दिया। ऐसी सनसनीखेज व बिना सबूत की खबरें छापने वाले प्रेस से निपटने का नेहरू का कानूनी तरीका अनेक लोग पसंद करते थे।बाद के वर्षों में इस देश व प्रदेश के अनेक नेताओं ने अपने भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए मीडिया के खिलाफ सत्ता के नशे में जो कुछ कार्रवाइयां कीं और आज भी कई सत्ताधारी नेता कर रहे हैं,वे कार्रवाइयां देर सवेर उनके ही राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह साबित हुई और होने वाली भी है। प्रभात खबर (14-11-2008)

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