रविवार, 18 जनवरी 2009

ऐसे विफल हुई थी नेहरू-जेपी सहयोग की कोशिश

कांग्रेस-सोशलिस्ट सहयोग की कोशिश पचास के दशक में सफल हो गई होती,यदि नेहरू ने बीमा,बैंक व खदान के राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स की समाप्ति जैसी समाजवादियों की कुछ मांगें मान ली होतीं।समाजवादियों ने दोनों दलों के बीच आपसी सहयोग के लिए 14 सूत्री न्यूनत्तम कार्यक्रम का लिखित फार्मूला नेहरू को दिया था। पर, तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसे मानने से इनकार करते हुए कहा था कि ‘हमारा लक्ष्य क्या होना चाहिए,इसकी सूची बनाना काफी आसान है।लेकिन उचित प्राथमिकता के क्रम में उन्हें अमल में लाना ज्यादा कठिन है।’ तब जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों व रणनीतियों से नेहरू नाराज रहते थे।इन दलों के बारे में नेहरू ने कहा था,‘कम्युनिस्ट पार्टी की दृष्टि में पार्टी और राज्य दोनों की संरचना एकात्मक होनी चाहिए।हिंसा के तरीकों के साथ उसका नजदीकी संबंध रहा है।अतः निश्चित तौर पर यह नीति, कांग्रेस के बुनियादी ढांचे एवं सिद्धांत और इसके शांतिमय तरीके एवं लोकतांत्रिक उद्देश्यों से काफी दूर रही है।दूसरी ओर सांप्रदायिक पार्टियां एक ऐसे नजरिए का प्रतिनिधित्व करती हैं,जो कांगेस के नजरिए के विपरीत है।वे विघटनकारी हैं और कभी -कभी कुछ हद तक पुनरूत्थानवादी एवं पूर्णतः प्रतिक्रियावादी हैं।’ ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक ही है कि नेहरू ऐसे लोगों के साथ एकजुटता के लिए सहमत हों जिनके साथ वे कभी काम कर चुके हों। साठ के दशक में इंदिरा गांधी के शासन काल में बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स की समाप्ति का काम जरूर हुआ,पर तब तक देर हो चुकी थी। यदि आज आर्थिक मंदी की चपेट में भारत कम ही आ पाया है तो इसका एक बड़ा कारण यह बताया जा रहा है कि यहां बैंकों का राष्ट्रीयकरण हो चुका है। खैर इस माहौल में एक बार फिर ऐतिहासिक जेपी-नेहरू पत्र व्यवहार पर नजर डाल लेना मौजूं होगा।कांग्रेस-समाजवादी सहयोग की विफलता के बाद जवाहर लाल नेहरू और जय प्रकाश नारायण ने अलग -अलग प्रेस बयान जारी किए थे। 18 मार्च 1953 को पंडित नेहरू ने अपने लम्बे प्रेस बयान में कहा था कि ‘ मेरे लिए स्वाभाविक है कि जब कभी अवसर मिले,मैं अपने पुराने साथयों से मिलूं।उनमें से कुछ प्रजा समाजवादी पार्टी के नेता हैं।वे भारत की आजादी की लड़ाई के आजमाए हुए सैनिक हैं।हमने अपनी जिंदगी का अधिकतर हिस्सा साथ -साथ गुजारा है।चाहे जो भी मतभेद हों, लेकिन बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें कांग्रेस एवं प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बीच नजरिए एवं तरीकों में समानता है।अतः इन दोनों दलों के लिए यह स्वाभाविक है कि जब कभी अवसर मिले वे किसी भी कार्य क्षेत्र में परस्पर सहयोग करें।इसलिए अक्सर मैंेने सोचा है कि इस सहयोगात्मक कार्य क्षेत्र को हमें व्यापक बनाना चाहिए।अपने इन्हीं विचारों के कारण मैंने जय प्रकाश नारायण को मिलने के लिए आमंत्रित किया।मिलने के बाद मैंने उनसे कहा कि हमें नजदीकी सहयोग की संभावना का पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए।ऐसा सहयोग सभी स्तरों पर हो सकता है,सार्वजनिक स्तर पर भी और सरकार के स्तर पर भी।मैंने कांग्रेस-प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के विलय का प्रस्ताव नहीं रखा।हमने सोचा कि हमारे बीच काफी सहमति के बावजूद न्यूनत्तम कार्यक्रम आदि के बारे में किसी तरह का वायदा करने का अभी समय नहीं है।इसलिए हमने अभी इस लाइन पर आगे नहीं बढ़ने का फैसला किया।’ जय प्रकाश नारायण ने इस संबंध में 19 मार्च 1953 को अपने बयान में कहा कि ‘एक लम्बे समय से जवाहर लाल जी मुझसे मिलना चाहते थे।हम मिले।बातचीत से पता चला कि हमारे बीच सहमति का क्षेत्र काफी व्यापक है। इन वात्र्ताओं के दरम्यान प्रधान मंत्री ने हमारे सहयोग की इच्छा प्रकट की और स्पष्ट किया कि इसका मतलब सरकार और जनता दोनों स्तरों पर सहयोग है।’ ‘पहले की तरह अब भी व्यक्तिगत तौर पर मैं सेाचता हूं कि अगर दोनों तरफ हार्दिक इच्छा हो और समस्याओं के प्रति समान नजरिया हो तो राष्ट्रीय हित का तकाजा है कि संयुक्त प्रयास किए जाएं। 16 मार्च को आगे बातचीत के लिए प्रधान मंत्री से मैं पुनः मिला।इस अवसर पर उन्होंने सोचा कि अगले कुछ वर्षों के लिए एक न्यूनत्तम कार्यक्रम सामने रखने में अपनी दृष्टि से हमलोग सही थे लेकिन एक दूसरे को खास वायदे में बंाध देने से कोई खास फायदा नहीं होने जा रहा है। दूसरी ओर मुझे लगा कि काम के उभयनिष्ठ आधार के बिना सहयोग के , खासकर सरकारी स्तर पर , प्रयोग का निश्चित परिण्णाम द्वंद्व,निष्प्रभाव और असफलता में होगा। व्यक्ति तो आपसी समझदारी से साथ- साथ काम कर सकते हैं।पर ,मुझे लगता है कि बिना पारस्परिक सहमत कार्यक्रम के दो पार्टियां ऐसा नहीं कर सकतीं।नजरिए में इस भिन्नता के कारण प्रधान मंत्री ने सभी स्तरों पर सहयोग की जो बात उठाई थी,वह खत्म कर दी गई।’ प्रभात खबर (16-01-2009)

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