शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

अय्यर कमीशन के बावजूद राजनीति में भ्रष्टाचार बढ़ा

यदि अय्यर कमीशन द्वारा 1970 में दोषी करार दिए गए बिहार के कांग्रेसी नेताओं को सजा मिल गई होती तो शायद नेताओं की अगली पीढि़यों को सबक मिलता और बिहार को बर्बाद होने से बचा लिया गया होता।पर उन्हें सजा देने -दिलाने में गैर कांग्रेसी दलों और आम मतदाताओं ने भी बाद में कोई खास रूचि नहीं दिखाई।क्योंकि बाद के वर्षों में तो अनेक गैरकांग्रेसी नेतागण भी समय समय पर दागी होने से नहीं बचे। लंबे समय तक सरकार में रह कर भ्रष्टाचार,अनियमितता और भाई भतीजावाद करने के आरोपों की जांच के लिए 1967 में अय्यर आयोग बना था।जिन नेताओं के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए यह आयोग बना था,उनके नाम हैं कृष्ण बल्लभ सहाय,महेश प्रसाद सिंहा,सत्येंद्र नारायण सिंहा,राम लखन सिंह यादव,राघवेंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह।ये नेतागण 1946 और 1966 के बीच बिहार मंत्रि परिषद के सदस्य रह चुके थे।के।बी।सहाय तो मुख्य मंत्री भी रह चुके थे। के।बी।सहाय 16 अप्रैल 1946 से 5 मई 1957 तक राजस्व मंत्री थे। फिर वे 29 जून 1962 से 2 अक्तूबर 1963 तक मंत्री रहे।वे 2 अक्तूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक मुख्य मंत्री रहे। महेश प्रसाद सिंहा 29 अप्रैल 1952 से 5 मई 1957 तक मंत्री रहे। वे 15 मार्च 1962 से 5 मार्च 1967 तक सिंचाई मंत्री रहे।सत्येंद्र नारायण सिंहा 18 फरवरी 1961 से 5 मार्च 1967 तक शिक्षा मंत्री रहे।राम लखन सिंह यादव 2 अक्तूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक लोक निर्माण मंत्री रहे।राघवेंद्र नारायण सिंह 2 अक्तूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक परिवहन राज्य मंत्री रहे। अम्बिका शरण सिंह 6 मई 1957 से 2 अक्तूबर 1963 तक उप मंत्री रहे। 2 अक्तूबर 1963 से 5 मार्च 1967 तक राज्य मंत्री रहे। आयोग ने इन सारे नेताओं को किसी न किसी मामले में दोषी करार दिया था।राज्य का भला होता और भविष्य में सत्ताधारियों और प्रतिपक्षी नेताओं को भी सीख मिलती,यदि इन नेताओं को सार्वजनिक जीवन से दूर ही कर दिया गया होता।पर ऐसा नहीं हो सका तो इसके लिए न सिर्फ प्रतिपक्ष,बल्कि मतदाताओं का एक वर्ग भी जिम्मेदार रहा जिसने इनमें से अधिकतर नेताओं को अय्यर कमीशन की रपट आ जाने के बाद भी कहीं न कहंीं से चुनाव जितवा दिया। 1967 में बिहार में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसके मुख्य मंत्री बने महा माया प्रसाद सिंहा।उप मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर थे और उस मंत्रिमंडल में एक साथ सी.पी.आई.और जनसंघ के मंत्री शामिल थे।इन नेताओं के दिलों में तब तक सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ काफी रोष था और वे चाहते थे कि उन नेताओं को सबक सिखाया जाए जिन्होंने आजादी के बाद बिहार में सत्ता में आने के बाद न सिर्फ खुद कई तरह के भ्रष्टाचार किए बल्कि उन्हें बढ़ावा भी दिया।बिहार सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव एस.वी.सोहोनी ने 1 अक्तूबर,1967 को एक अधिसूचना जारी की।अधियूचना में कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज टी.एल.वेंकटराम अय्यर की अध्यक्षता में जांच आयोग का गठन किया जा रहा है जो कृष्ण बल्लभ सहाय,महेश प्रसाद सिंहा,सत्येंद्र नारायण सिंहा,राम लखन सिंह यादव,राघवेंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह के खिलाफ आरोपों की जांच करेगा।आरोपों की फेहरिस्त लंबी थी। इस आयोग के गठन से संबंधित अधिसूचना को अभियुक्तों ने अदालत में चुनौती दी।पर अदालत ने आयोग के काम नहीं रोके।आयोग ने आरोपों की जांच की।करीब करीब सभी अभियुक्तों के खिलाफ आयोग ने कोई न कोई आरोप सही पाए। हालांकि कई आरोप गलत भी पाए गए।के.बी.सहाय के खिलाफ अपने ही पुत्र को अपनी ही कलम से खान का पट्टा गलत तरीके से देने का आरोप था।इस आरोप को आयोग ने भी सही माना।कई अन्य मामलों में आयोग ने सहाय को दोषी माना।उनके बैंक में 1946 में मात्र 600 रुपए थे जो 1966 में बढ़कर 6 लाख 32 हजार हो गए थे।इसके अलावा करीब 12 भूखंडों के कागजात भी मिले जो उन्होंने मंत्री बनने के बाद खरीदे थे। महेश प्रसाद सिंहा पर गंडक योजना के ठेकेदार रमैया के मैनेजर से 75 हजार रुपए घूस लेने का आरोप सही पाया गया।सत्येंद्र नारायण सिंहा पर जातिवाद का आरोप आयोग ने सही पाया।राम लखन सिंह यादव पर तो कई आरोप सही पाए गए। पर उन पर एक आरोप दिलचस्प किंतु शर्मनाक था।उनका पटना के किदवई पुरी मुहल्ले के उनके एक पड़ोसी व्यापारी से जमीन को लेकर विवाद था।व्यापारी का आरोप था कि श्री यादव उनकी जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं।उनसे उसकी जान पर खतरा है।दीघा थाने के दारोगा ने उस व्यापारी की सुरक्षा के लिए उसके घर के आगे एक लाठीधारी सिपाही तैनात कर दी।उस समय लाठीधारी सिपाही की भी बड़ी धाक थी।इस पर श्री यादव आग बबूला हो गए।उन्होंने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके न सिर्फ उस दारोगा का तबादला करवा दिया बल्कि उसका डिमोशन भी करवा दिया।यह मामला भी अय्यर आयोग के पास गया था। आयोग ने इसके लिए भी राम लखन सिेह यादव को दोषी पाया।राघवेंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह भी आयोग से दागी होने से नहीं बच सके। आयोग की रपट 5 फरवरी,1970 को बिहार सरकार को सौंप दी गई।पर तब तक बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हो चुका था जो 1972 तक चला।अस्थिरता का कारण था कांग्रेस और गैरकांग्रेसी दलों में सत्तालोलुपता और अवसरवादिता में अचानक भारी बढ़ोत्तरी। गैरकांग्रेसी दलों में भी भ्रष्टाचार के बीज पड़ चुके थे।इस तरह नेताओं के स्वार्थ के लिए दल बदल हुए और 1967 और 1972 के बीच कई मंत्रिमंडल बने और बिगड़े।ऐसे में न तो गैर कांग्रेसी दलों में वह नैतिक बल रहा कि वह अय्यर आयोग द्वारा दोषी पाए गए नेताओं को सजा दिलवाते ,उनके खिलाफ जन मानस को शिक्षित करते और न ही इन दागी कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ जनता में भी पहले जैसा गुस्सा रह गया था।क्योंकि जनता ने इन कांग्रेसियों को सत्ता से हटाकर जिन प्रतिपक्षी नेताओं को सत्ता में लाया था,वे भी कोई आदर्श स्थापित नहीं कर सके। हद तो तब हो गई जब 1970 में कर्पूरी ठाकुर के मुख्य मंत्रित्व में जो संविद सरकार बिहार में बनी उसने अम्बिका शरण सिंह को बिहार राज्य वित्तीय निगम का अध्यक्ष बना दिया।संविद की सरकार संसोपा,जनसंघ,संगठन कांग्रेस और स्वतंत्र पार्टी ने मिलकर बनाई थी।के.बी.सहाय,महेश प्रसाद सिंहा,सत्येंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह तब तक संगठन कांगेस के नेता बन चुके थे।याद रहे कि अय्यर कमीशन बनाने में कर्पूरी ठाकुर और भोला प्रसाद सिंह जैसे समाजवादी नेताओं का बड़ा योगदान था।पर सत्ता का मोह जो न कराए।प्रतिपक्षी दलों के पतन की यह संभवतः शुरूआत थी।इसी के साथ बिहार के प्रमुख गैर कांग्रेसी दलों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने का नैतिक अधिकार भी खो दिया। बिहार में राजनीतिक कार्यपालिका के पतन की वह शुरूआत थी जिसका असर कार्यपालिका तथा दूसरे क्षेत्रों परं भी पड़ा। पर एक बात माननी पड़ेगी कि आज के नेताओं पर भ्रष्टाचार के जितने गंभीर आरोप लग रहे हैं,उसके अनुपात में अय्यर आयोग के सामने लगे आरोप कुछ भी नहीं थे।आखिर अय्यर आयोग के आरोपी स्तंत्रता सेनानी रह चुके थे और उनमें लोक लाज बची हुई थी। पर यह बात भी सच है कि उन पूर्वजों से थोड़ी और संयम की उम्मीद थी।याद रहे कि अय्यर आयोग के सभी आरोपियों का अब निधन हो चुका है।पर यह कहावत भी निर्विवाद रुप से सच है कि महाजनो जो न गता सो पंथा। अय्यर आयोग के कम से कम एक आरोपी के सचमुच जेल जाने की नौबत आ गई थी।पर जब उनका निधन हुआ तो यह अफवाह फैली कि जेल जाने से बचने के लिए ही उन्होंने जहर खा लिया था।स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान तो वे कई बार गर्व के साथ जेल गए थे।पर उन्हें भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना गंंंंवारा न था। तब के और आज के नेताओं में यह भी एक फर्क आया है।अब तो आज के नेता जब भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भी जाते हें तो उन्हें कोई शर्म नहीं आती।अब तो जेल कुछ नेताओं के लिए गुरूद्वारा बन चुकी है। अय्यर कमीशन के गठन के कारण भी महामाया प्रसाद सिंहा की सरकार एक साल के भीतर ही गिर गई।वह सरकार कुल मिलाकर पहले की सरकार की अपेक्षा अच्छा काम कर रही थी।उस सरकार के अधिकतर मंत्री जन सेवा की भावना से ओतप्रोत लगे।पर मिली जुली सरकार को समर्थन देने वाले दलों के कई विधायक मंत्री बनने के लिए उतावले थे।फिर बी.पी.मंडल बिहार मंत्रिमंडल में बने रहना चाहते थे।वे संसोपा के टिकट पर लोक सभा के लिए 1967 में चुने गए थे।पर उन्हें बिहार में कैबिनेट मंत्री बना दिया गया था।बाद में जब डा.राम मनोहर लोहिया ने उन पर ं मंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए दबाव डाला तो उन्होंने शोषित दल बना कर महामाया सरकार ही गिरवा दी।उन्हें मदद मिली अय्यर आयोग के आरेपियों से जो उन दिनों कांग्रेस में ही थे।1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद ये आरोपी संगठन कांग्रेस के नेता बने। यानी कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि अय्यर आयोग के गठन के जरिए बिहार की राजनीति की सफाई की पहली ठोस कोशिश की गई थी जो पक्ष विपक्ष के कई नेताओं ,लोगों और तत्वों की गलतियों ओर बेईमानियों के कारण विफल हो गई।इसका खामियाजा बिहार को आज तक भुगतना पड़ रहा है।अब बिहार में राजनीति और प्रशासन की सफाई करना काफी कठिन काम हो गया है।
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