जालियांवाला बाग के नर संहार ने नेहरू परिवार की जीवन-शैली बदल दी और वह परिवार अंग्रेजों के खिलाफ अभियान में शामिल हो गया। रौलट एक्ट के विरोध में गांधी के उठ खड़ा होने की खबर समाचार पत्रों में पढ़ कर युवा जवाहर लाल नेहरू जरूर राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होना चाहते थे।पर, उनके पिता मोती लाल नेहरू का तब इस बात पर विश्वास नहीं था कि मुट्ठी भर लोगों के जेल चले जाने से देश का कोई भला हो सकता है। उधर जवाहर लाल, गांधी के साथ जुड़ने को उतावले थे।इस सवाल पर मोती लाल नेहरू और जवाहर लाल नेहरू के बीच अक्सर बहस होती थी।जवाहर लाल की बहन कृष्णा हठी सिंग ने लिखा है कि ‘इससे हमारे घर की शांति ही भंग हो गई थी।’ अपनी पुस्तक ‘इंदु से प्रधान मंत्री’ में कृष्णा ने लिखा है कि ‘हर स्थिति में से रास्ता निकालने में कुशल मेरे पिता जी ने आखिर इसका हल भी खोज ही लिया।उन्होंने गांधी जी को ही इलाहाबाद बुलाया। इस तरह गांधी जी हमारे यहां पहली बार आए,और तब उनका और नेहरू परिवार का पारस्परिक स्नेह क्रमशः गाढ़ा होता गया।’ ‘लंबी चर्चाओं के दौरान पिता जी और गांधी जी ने भारत की समस्याओं के अपने -अपने हल प्रस्तुत किए।लेकिन उनकी चर्चा जवाहर पर केंद्रित हो गई।क्योंकि पिता जी किसी ऐसे अकाट्य तर्क की खोज में थे जिससे जवाहर को सत्याग्रह सभा में शामिल होने से रोका जा सके।इसलिए तो गांधी को उन्होंने अपने यहां बुलाया था। गांधी जी बिलकुल ही नहीं चाहते थे कि इस सवाल को लेकर पिता-पुत्र में मन मुटाव हो, इसलिए वह पिता जी की इस राय से सहमत हो गए कि जवाहर लाल को जल्दीबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहिए। लेकिन गांधी जी की यह सलाह बेकार ही साबित हुई। क्योंकि घटनाक्रम ने ऐसा मोड़ लिया जिससे सब कुछ गड़बड़ा गया। वह लोम हर्षक घटना थी पंजाब के एक शहर अमृतसर में निहत्थे लोगों पर गोरी हुकूमत का खूनी हमला।’ कृष्णा हठी सिंग ने उन दिनों के घटनाक्रम को विस्तार से लिखा है,‘ गांधी जी अपने आंदोलन को वेग देने के लिए इलाहाबाद से दिल्ली चले गए। वहां उन्होंने रौलट एक्ट को रद करने की मांग के समर्थन में 31 मार्च 1919 को देश व्यापी आम हड़ताल की घोषणा की।भारी संख्या में लोग उनकी सभा में शरीक हुए। ब्रिटिश हुकुमत घबरा गई और उसने गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया।गांधी जी के गिरफ्तार किए जाते ही दिल्ली और दूसरे शहरों में उपद्रव शुरू हो गए।सभा व जुलूस पर पाबंदी लगा दी गई। लेकिन इससे लोगों के गुस्से और जोश में कोई फर्क नहीं पड़ा और न उन्हें यही पता चला कि गांधी फौरन छोड़ भी दिए गए। 13 अप्रैल को कई हजार स्त्री,पुरूष और बच्चे अमृत सर के जालियांवाला बाग में इकट्ठे हुए। यह चारों ओर उंची -उंची इमारतों से घिरा एक खुला मैदान था।जनरल डायर ने, जिसे इस सभा को भंग करने के लिए भेजा गया था, रास्ते की नाकेबंदी कर अपने सैनिकों को गोली चलाने का हुक्म दे दिया। गोलीबारी में सैकड़ों लोग मारे गए और हजारों घायल हुए।’ ‘निहत्थी और निरीह जनता के इस कत्लेआम ने पिता जी के विचारों में आमूल परिवत्र्तन कर दिया। वह गांधी जी के प्रबल प्रशंसक और जवाहर के मत के अनुकूल हो गए। उनका विचार परिवत्र्तन इतने नाटकीय ढंग से हुआ कि वह अच्छी चलती वकालत को लात मार कर जी जान से राजनीति में कूद पड़े। घटना क्रम ने हमारे परिवार के जीवन प्रवाह ही बदल दिया। कहां तो हमारे खाने के टेबुलों पर बढि़या किस्म के देशी-विदेशी खानों के दौर चलते थे और कहां अब बहुत ही सादगीपूर्ण भारतीय भोजन थालियों में परोसा जाने लगा। चार - छह कटोरियों में सालन, दाल ,एक दो सब्जियां, दही, अचार और चटनी के साथ चपातियां या पराठे, चावल और अंत में एक मिठाई बस यही भोजन था।’ ‘अब न वह गपशप होती और न ही हंसी मजाक। वकालत छोड़ देने से पिता जी की भारी आय भी बंद हो गई। नौकरों की तादाद एकदम घटा दी गई। बिल्लौरी कांंच और चीनी मिट्टी के बढि़या बरतन, अस्तबल के उम्दा घोड़े और कुत्ते तथा तरह- तरह की उत्तम शराबें आदि सभी विलासिता सामग्री बेच दी गईं। अम्मा और कमला के पास बहुत से कीमती गहने थे-अंगुठियां, बालियां और कर्णफूल, हार, कंगन, कांटे और ब्रूच, सभी सोने और हीरे मोती, माणिक पन्ना जड़े हुए। अपने लिए मामूली गहने रखकर अम्मा और कमला बाकी सब बेचने के लिए राजी हो गर्इं। पिता जी ने अपना मकान कांग्रेस को भेंट कर दिया। वह स्वराज्य भवन कहलाया। हमलोगों के लिए बना नया और छोटा मकान आनंद भवन कहलाया। शुरू में तो मुझे हाथ से कती बुनी मोटी खादी पहनना जरा भी नहीं सुहाता था और मैं नाक भौं सिकोड़ती थी। मगर धीरे -धीरे अभ्यस्त हो गई।’ प्रभात खबर (03-10-2008)
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