बुधवार, 21 जनवरी 2009

समाजवादी एकता और टूट की एक अलग कहानी

सन् 1952 के आम चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी को मिला कर प्रजा समाजवादी पार्टी का गठन कर दिया गया था।पर तीन साल के भीतर ही समाजवादियों का यह दल टूट गया। हालांकि इस विलयन और टूट के पीछे कुर्सी की होड़ तब नहीं थी जिस तरह की होड़ बाद के वर्षों में समाजवादियों में देखी गई।तब दो दलों का विलयन इस कारण हुआ था ताकि देश में कांग्रेस का एक मजबूत विकल्प प्रस्तुत किया जा सके। टूट भी इसलिए हुई क्योंकि नई संयुक्त पार्टी यानी प्रसपा अपनी ही पुरानी बात से मुकर रही थी। सन् 1950 में जब मध्य भारत में पुलिस ने भीड़ पर गोलियां चला कर कुछ लोगों की जान ले ली थी तो समाजवादी पार्टी ने उस सरकार से इस्तीफे की मांग की थी।पर जब त्रावन कोर कोचिन की प्रसपा सरकार की पुलिस ने सन् 1954 में भीड़ पर गोलियां चलार्इं तो राज्य मंत्रिमंडल ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। प्रसपा के महा सचिव डा.राम मनोहर लोहिया ने वहां के मुख्य मंत्री पट्टम थानु पिल्लई को तार भेज कर उन्हेंे इस्तीफा देने को कह दिया।पर प्रसपा के अध्यक्ष जे.बी.कृपलानी चाहते थे कि पहले गोली कांड के लिए दोषी कौन है ,इस बात का पता लगाया जाए।फिर जरूरत पड़ने पर कानून व्यवस्था का महकमा जिसके पास है,उससे इस्तीफा मांग लिया जाए।मुख्य मंत्री से नहीं। डा.लोहिया का तर्क यह था कि सिर्फ देश के खिलाफ बगावत की स्थिति में ही गालियां चलनी चाहिए।इस मसले पर प्रसपा के भीतर आंतरिक कलह इतना बढ़ा कि डा.लोहिया को 1955 में अलग सोशलिस्ट पार्टी बनानी पड़ी।डा.लोहिया कथनी और करनी में एकरूपता के पक्षधर थे। उधर जब सन् 1952 में सोशलिस्ट पार्टी और किसान मजदूर प्रजा पार्टी का विलयन हुआ तो यह कहा गया कि इससे देश में कांग्रेस का एक मजबूत विकल्प बनेगा और कांग्रेस सत्ता के मद में मनमानी नहीं कर पाएगी।तब सोशलिस्ट पार्टी के नेता आचार्य नरेंद्र देव और के.एम.पी.पी.के नेता आचार्य जे.बी.कृपलानी थे। सन् 1952 के आम चुनाव में देश में कांग्रेस को कुल चार करोड़ 40 लाख वोट मिले थे।तब वोट हासिल करने के लिहाज से सोशलिस्ट पार्टी और के.एम.पी.पी.भारत की दूसरी और तीसरी बड़ी पार्टियां थीं।इन दोनों दलों को मिला दें तो पहले आम चुनाव में देश भर में इन्हें एक करोड़ 74 लाख मत मिले थे।इन दलों के विलयन से जय प्रकाश और अशोक मेहता जैसे नेता बडे़ उत्साहित थे।पर बाद में कई कारणों से जेपी सर्वाेदय में चले गए और अशोक मेहता कांग्रेस में। दो दलों के विलयन के फैसले पर अशोक मेहता ने कहा था कि ‘सोशलिस्ट पार्टी तथा के.एम.पी.पी.के प्रस्तावित विलय से मैं अत्यधिक खुश हूं, भावविह्वल हूं।मैं मानता हूं कि यह न केवल आम चुनाव के बाद बल्कि आजादी प्राप्त होने के बाद की एक बड़ी राजनीतिक घटना है।’ ‘ हम यह याद करें कि महात्त्मा जी की हत्या के बाद हम समाजवादी कांग्रेस से इसलिए अलग हुए थे कि हमारा निश्चित मत था कि तीव्र सामाजिक परिवत्र्तन के बिना आजादी बरकरार नहीं रखी जा सकती है।पर उस परिवत्र्तन के लिए कांग्रेस में न तो इच्छा शक्ति है और न ही क्षमता।जिन 4.40 करोड़ मतदाताओं ने कांग्रेस को वोट दिया है ,उनका धीरे धीरे मोहभंग होगा और वे वहां से हटकर नए राजनीतिक केंद्र की ओर आना चाहेंगे।हमारी पार्टी मानती है कि समान दृष्टि वाली सभी छोटी-बड़ी पार्टियों के साथ आने से राजनीतिक विकास की यह प्रक्रिया आगे बढेगी। जय प्रकाश नारायण ने इस विलय पर कहा था कि ‘ आम चुनाव के विदारक अनुभव के बाद हम सब हतप्रभ थे।हमें यह समझ में आया कि जब तक राजनीतिक समेकन नहीं होता और समान विचार वाली पार्टियां एक साथ नहीं मिलतीं , एक ओर प्रक्रियावादी शक्तियों के लिए और दूसरी ओर अराजक तत्वों के लिए द्वार खुलेगा,जो देश को विनाश की ओर ले जाएगा। जेपी ने यह भी कहा कि ‘सवाल उठाया गया है कि क्या के.एम.पी.पी.माक्र्सवाद में विश्वास करता है ? मैं साथियों से प्रार्थना करूंगा कि वे माक्र्सवाद को दूसरा धर्म न बनने दें और सार को छोड़ कर रूपों में न उलझ जाएं।इस मुद्दे पर पंचमढी सम्मेलन में काफी अच्छी बहस हुई और लोहिया के स्मरणीय उत्तर के बाद इसे पुनः उठाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए थी।हम यह न भूलें कि न केवल विभिन्न समयों एवं स्थानों पर बल्कि समान स्थिति में भी माक्र्सवाद की विभिन्न परस्पर विरोधी व्याख्याएं हैं।फिर इतिहास, भारत के इतिहास सहित ,इस बात का गवाह है कि जो लोग अपने को माक्र्सवादी कहने पर जोर डालते रहे, वे गलत साबित हुए और उन्होंने ऐतिहासिक गलतियां की।’ प्रभात खबर (09-०१-2009)

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