बुधवार, 21 जनवरी 2009

अल्पसंख्यकवाद बनाम अनिवार्य मतदान

यदि अगले लोक सभा चुनाव के बाद राजग को केंद्र में सत्ता मिल गई तो वह मतदान की अनिवार्यता के लिए कानून बना सकता है।भाजपा के नेताओं ने ऐसा संकेत दिया है। दुनिया के कई देशों में मतदान करना अनिवार्य है।जो नागरिक मतदान नहीं करते उनके लिए वहां सजा का प्रावधान है। कैसा रहेगा यदि एक दिन भारत में यह कानून बने कि जो मतदाता मतदान नहीं करेगा , उसे कुछ खास सरकारी सुविधाओं से वंचित कर दिया जाएगा ?और, यदि इस कानून को कड़ाई से लागू किया जाए तो कितने प्रतिशत मतदाता मतदान केंद्रों पर जाने को मजबूर हो जाएंगे ? फिर भी सब तो नहीं किंतु करीब अस्सी -नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान जरूर करने लगेंगे। आज तो औसतन 50 से 60 प्रतिशत मतदाता ही इस देश में मतदान करते हैं और मतों के भारी बंटवारे के कारण 20 -25 प्रतिशत या उससे से भी कम मत पाने वाले लोग भी कई बार चुनाव जीत जाते हैं।कई बार तो ऐसा भी होता है कि जिस उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है,वह भी चुन लिया जाता है। यदि अस्सी -नब्बे प्रतिशत मतदाता मतदान करने लगे तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंकों के सौदागर अत्यंत कम वोट पाकर भी चुनाव नहीं जीत पाएंगे।भारत में आम तौर पर किसी चुनाव क्षेत्र में किसी धार्मिक या जातीय समूह की आबादी 20-25 प्रतिशत से अधिक नहीं है।अपवादस्वरूप कुछ ही क्षेत्र ऐसे हैं जहां बात इसके विपरीत है। यदि कोई जातीय या धार्मिक समूह अधिकतर चुनाव क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं होंगे तो नेतागण भी सिर्फ सांप्रदायिक या जातीय आधारपर ही अपनी पूरी राजनीति और रणनीति तय नहीं करेंगे।इससे देश का भी भला होगा।आज तो जातीय और सांप्रदायिक वोट बैंक की खातिर अनेक नेता इस देश को तोड़ने पर भी अमादा हैं।

सड़क किनारे नाला भी
कई दशक पहले की बात है।बिहार के एक शहरी इलाके वाले विधान सभा क्षेत्र से एक ईमानदार नेता किसी तरह चुनाव जीत गया। उसने अपने क्षेत्र में सरकार से कह कर सीमेंटी सड़कें बनवा दीं। अगली बार वह बेचारा चुनाव हार गया। जीत हुई एक भ्रष्ट नेता की जिनका ‘पेट’ कुछ ज्यादा ही बड़ा था।उन्होंने उस सीमेंटी सड़क को तोड़वा कर फिर से अलकतरायुक्त सड़क बनवा दी। पूछने पर उन्होंने कहा कि पिछले विधायक मूर्ख थे।उन्होंने ठेकेदारों के पेट पर लात मार दी थी।इसीलिए वे हार भी गए।हर साल सड़क नहीं टूटेगी तो हमारा ठेकेदार तो बेरोजगार हो ही जाएगा, हमें चंदे के भी लाले पड़ जाएंगे ? अब इस बात को आज के संदर्भ में फिट कीजिए। नीतीश कुमार की सरकार पटना में सड़कों ंका बड़े पैमाने पर पुनरूद्धार करा रही है।साथ ही, सड़कों के किनारे नालियां भी बनवाई जा रही हैं। अब बरसात में सड़कों पर जल -जमाव के कारण अलकतरायुक्त सड़कें नहीं टूटंेगीं।कोसी के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में भी सड़कों का जो पुनरूद्धार होगा, उन सड़कों के किनारे भी नालियां बनाने का निर्णय बिहार सरकार ने किया है।देखना है कि टिकाउ सड़कों के कारण सत्ताधारी दलों को अगले चुनाव में कोई नुकसान होता है या नहीं ! वैसे भी बिहार में अब ‘बात’ थोड़ी बदली लगती है।

कम होती दुल्हनें
अभी पंजाब जैसी स्थिति तो नहीं है, पर शिशु कन्या भ्रूण हत्या का कुपरिणाम बिहार में भी अब धीरे -धीरे परिलक्षित होने लगा है। इन दिनों मध्यम वर्ग के कई अभिभावक यह रोना रोते हैं कि उनके कुंवारे पुत्र की शादी के लिए बहुत ही कम आॅफर आ रहे हंै।‘हमारे जमाने’ में तो काफी आते थे। पर सवाल है कि ऐसी स्थिति क्यों आ गई है कि योग्य वरों के लिए भी कन्याओं के अभिभावकों की पहले जैसी भीड़ अब नहीं लग रही है ? पहले तो ऐसा नहीं था।दरअसल इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हाल ही में गांवों से निकल कर शहरों में बसे अनेकानेक परिवारों के संपर्क सूत्र अब कम हो गए है।शहरों का जीवन वैसी सामाजिकता वाली नहीं रह गई है कि एक व्यक्ति दूसरे के यहां कन्या के पिता को भेजे।भेजने वालों की कमी है।उधर गांवों से पुश्तैनी संबंध लगभग टूट ही चुका है।कई नव शहरी परिवारों की स्थिति त्रिशंकु जैसी हो चुकी है। पर, दूसरा कारण भी कम दमदार नहीं है। मध्यम वर्ग के परिवारों में शिशु कन्या भ्रूण हत्याओं का चलन बढ़ा है।वर पक्षों के हाथों बधू पक्षों के अमानवीय व्यवहारों के कारण भी शिशु कन्या हत्याओं की घटनाएं बढ़ी हैं।सास-बहू संबंधों को बेहतर बनाए बिना इस समस्या का हल फिलहाल दिखाई नहीं पड़ रहा है। यदि ससुरालों में बधुओं की स्थिति नहीं सुधरी तो कुछ वर्षों के बाद तो वर पक्षों को शादी के प्रस्ताव का और भी अधिक इंतजार करना पड़ेगा।

आरोप-प्रत्यारोपों के बीच सच्चाई का कत्ल
जो समस्या आतंकवाद से निपटने को लेकर इस देश में आ रही है, कुछ वैसी ही समस्या ठाकरे बनाम उत्तर भारतीयों के बीच तनाव को समाप्त करने को लेकर आ रही है। जब कोई व्यक्ति ‘मुस्लिम आतंकवाद’ का सवाल उठाता है तो दूसरा ‘हिंदू आतंकवाद’ का मुद्दा खड़ा कर बराबरी कर देता है और आतंकवाद की समस्या ज्यों की त्यों बनी रह जाती है। आज जब देश के पिछड़े राज्यों के पिछड़ेपन से पीडि़त लोग रोजी रोटी के लिए महाराष्ट्र जाते हैं तो राज ठाकरे जैसे नेता मराठियों के लिए रेलवे में नौकरियों का सवाल खड़ा कर देते हैं। समस्य ज्यों की त्यों बनी रह जाती है। आजादी के बाद बने रेल भाड़ा समानीकरण नियम का लाभ महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने उठाया।उन राज्यों ने तरक्की कर ली । और अब, जब इस कारण बिहार जैसे राज्य पिछड़ गए और बिहारी मानुष नौकरी और रोजगार के लिए महाराष्ट जा रहे हैं तो उनके साथ हिंसा हो रही है।कल्पना कीजिए कि रेल भाड़ा समानीकरण नियम नहीं होता तो अविभाजित बिहार का कितना अधिक औद्योगिक विकास हो चुका होता !आजादी के बाद जब केंद्र सरकार के नए शासकों ने यह देखा कि अविभाजित बिहार में देश के कुल खनिज पदार्थों का करीब आधा पाया जाता है तो उसने रेल भाड़ा समानीकरण नियम बना दिया । केंद्र सरकार ने अन्य राज्यों में उद्योग लगाने के लिए सुविधा प्रदान कर दी।समानीकरण का मतलब यह था कि झरिया से जितने रेल भाड़ा में पटना कोयला जा सकता था,उतने ही भाड़ा में बंबई पहुंच सकता था। नतीजतन आजादी के बाद बिहार का विकास नहीं हुआ तो यहां के बेरोजगार लोग अन्य राज्यों में जाएंगे ही। हालांकि अब समानीकरण नियम नहीं है। एक और बात हुई। कुछ बड़ी कंपनियां ने अपने कारखाने तो झारखंड में लगाए, पर अपना मुख्यालय बंबई में रखा।फिर तो उस कंपनी से मिले सरकार को टैक्स का लाभ महाराष्ट्र को मिला।उस लाभ का कुछ हिस्सा झारखंड के बेरोजगार मांग रहे हैं तो यह ठाकरे को नागवार क्यों लग रहा है ?
तापमान (नवंबर, 2008)

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