सी.पी.आई.के अपने जमाने के एक बड़े नेता ए.के.गोपालन ने अपने गांव के स्कूल भवन के निर्माण के लिए सन् 1956 में दरभंगा महाराज सर डा. कामेश्वर सिंह से पत्र लिख कर चंदा मांगा था।
दूसरी ओर, उन्हीं दिनों के बारे में एक अन्य बड़े सी.पी.आई. नेता भोगेंद्र झा ने बताया है कि ‘जहां तक मुझे जानकारी है,उस समय दरभंगा महाराज के अंग्रेज जनरल मैनेजर डेनबी ने बाकी जमींदार और कुछ सरकारी अफसरों से मिल कर मेरी हत्या की योजना बनाई थी। ’यानी, एक ही दल के एक नेता चंदा मांग रहा था तो दूसरा जीवन मरण का संघर्ष कर रहा था।
तत्कालीन सी.पी.आई. एम.पी. ए.के.गोपालन ने 22 दिसंबर 1956 को दरभंगा के जमींदार ‘महाराजाधिराज’ कामेश्वर सिंह को लिखा कि मालाबार (केरल)पेरालसेरी हाई स्कूल कमेटी को भवन निर्माण के लिए पैसे भेजने का आपसे मैं अनुरोध करता हूं। उम्मीद है कि आप मेरे अनुरोध का सम्मान करेंगे।’ यह पत्र महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह (1907-62) की स्मृति में तैयार उस सुंदर पुस्तक में संग्रहीत है, जिसका संपादन मशहूर समाज विज्ञानी डा.हेतुकर झा ने किया है।
सर कामेश्वर सिंह अन्य राजा-महाराजाओं से थोड़ा हटकर थे। उनके बारे में पढ़ना एक अलग तरह का अनुभव होता है। अब ए.के. गोपालन भी कोई मामूली नेता नहीं थे।वे अविभाजित सी.पी.आई. के संसदीय दल के नेता थे। उनकी पत्नी सुशीला गोपालन भी सांसद थींं। जाहिर है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में उस तरह परिवारवाद को बढ़ावा नहीं दिया जाता था जिस तरह गैर कम्युनिस्ट दलों में बेशर्म तरीके से किया जाता रहा है। यानी गोपालन साहब सपरिवार क्रांतिकारी थे। विचारों से आप मतभेद रख सकते हैं, पर कोई भी वैचारिक रूप से ईमानदार व्यक्ति यह मानेगा कि तब कम्युनिस्ट होने का मतलब ही था कष्टमय जीवन बिताना। पर, यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि जिस दरभंगा महाराज से बिहार के भोगेंद्र झा जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे थे, उसी महाराज से केरल के गोपालन साहब चंदा मांग रहे थे।
हालांकि दरभंगा महाराज राजनीतिक लोगों को चंदा देने में उदार थे। आजादी की लड़ाई के दिनों में भी वे कांग्रेस को उदारतापूर्वक चंदा देते थे।पर कम्युनिस्टों की बात तो अलग मानी जाती थी। अब जरा भोगेंद्र झा के संघर्षों की एक झलक उन्हीें के शब्दों में, ‘ सन् 1946 में हमलोगों ने भूमि संघर्ष को लिया। जमींदारी मिटाने, अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई और जमीन का बंटवारा करने, सबको मिलाकर हमने शुरू किया। जमीन पर चढ़ना,केवल नारा देना नहीं, चढ़ने का मतलब कब्जा करना गरीबों के द्वारा। यह लड़ाई हमारे यहां 1946 में काफी उग्र हो गई थी। अंधेरी एक गांव है जहां महंथाना था। जमीन पर चढ़ने के सवाल पर हमारी कुछ जीतें हो गईं तो उसके बाद मुझे मारने का प्रयास किया गया था।’ यह विवरण ‘क्रांति योग’ नामक भोगेंद्र झा की पुस्तक में संग्रहीत है जिसे मौखिक इतिहास के तहत नेहरू स्मारक संग्रहालय ने तैयार कराया था। सी.पी.आई. के टिकट पर भोगेंद्र झा मधुबनी से कई बार लोक सभा सदस्य रहे। वे बताते हैं,‘जहां तक मुझे जानकारी है,उस समय दरभंगा महाराज के जनरल मैनेजर थे डेनबी। उसने बाकी जमींदार और कुछ सरकारी अफसरों से मिलकर योजना बनाई। 4 जनवरी 1947 को मधुबनी से मैं अंधेरी गांव आया और मुझे घेर लिया गया। इससे पहले भी दो- तीन बार घेरने के प्रयास हुए थे। टकराव हुए थे,पर वे लोग पीछे हट गए थे।मैं एक दिन अकेला था।सीधे हत्या करने का प्रयास हुआ। मैं बेहोश था, खून में लथपथ, मेरे लिए हटना संभव था, लेकिन मुझे मुनासिब नहीं लगा। यह मुझे मारने का संगीन प्रयास था, यह पता ही था। उसके विवरण में मैं नहीं जाउंगा, लंबा हो जाएगा।’
हालांकि एक अन्य स्थल पर भोगेंद्र झा कहते हैं,‘ आगे चलकर दरभंगा महाराज से भूमि सुधार के मामले पर जबर्दस्त संघर्ष हुआ। मैंने सारे महंथाना को मिटा दिया। भारत की पहली जमींदारी हमलोगों ने ही मिटाई। आजकल के मधुबनी जिला के बेनीपट्टी प्रखंड के अंधेरी गांव में 700 एकड़ की जमींदारी थी। एक इंच भी जमीन उसको नहीं छोड़ा।’
एक अन्य अवसर पर केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र ने सर कामेश्वर सिंह को लिखा कि ‘ सिर्फ आपके आशीर्वाद से ही मैं अब तक अपना सार्वजनिक जीवन बरकरार रखने में समर्थ रहा हूंं। (विथ ओयर ब्लेसिंग एलोन,आई हैव बिन एबल टू मेंटेन माई पब्लिक लाइफ सो फार।) ललित बाबू ने 12 जनवरी, 1962 को महाराजाधिराज को लिखा कि ‘इस बार मेरा चुनाव आसान नहीं है। इस बार काफी संसाधन की जरूरत होगी जो मेरी क्षमता से बाहर है।’ यानी ललित बाबू ने भी महाराजा से आर्थिक मदद की मंाग की।यही नहीं बल्कि यह भी कहा कि आपके के ही बल पर मैं अब तक राजनीति में हूंं।
याद रहे कि दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह 1952 के लोक सभा चुनाव में दरभंगा नौर्थ क्षेत्र में कांग्रेस के उम्मीदवार श्याम नंदन मिश्र से हार गए थे। यानी, दरभंगा महाराज कांग्रेस में तब नहीं थे। पर कांग्रेस के कई बड़े नेता उनकी तरफ मदद के लिए मुखातिब रहते थे।
दूसरी ओर, उन्हीं दिनों के बारे में एक अन्य बड़े सी.पी.आई. नेता भोगेंद्र झा ने बताया है कि ‘जहां तक मुझे जानकारी है,उस समय दरभंगा महाराज के अंग्रेज जनरल मैनेजर डेनबी ने बाकी जमींदार और कुछ सरकारी अफसरों से मिल कर मेरी हत्या की योजना बनाई थी। ’यानी, एक ही दल के एक नेता चंदा मांग रहा था तो दूसरा जीवन मरण का संघर्ष कर रहा था।
तत्कालीन सी.पी.आई. एम.पी. ए.के.गोपालन ने 22 दिसंबर 1956 को दरभंगा के जमींदार ‘महाराजाधिराज’ कामेश्वर सिंह को लिखा कि मालाबार (केरल)पेरालसेरी हाई स्कूल कमेटी को भवन निर्माण के लिए पैसे भेजने का आपसे मैं अनुरोध करता हूं। उम्मीद है कि आप मेरे अनुरोध का सम्मान करेंगे।’ यह पत्र महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह (1907-62) की स्मृति में तैयार उस सुंदर पुस्तक में संग्रहीत है, जिसका संपादन मशहूर समाज विज्ञानी डा.हेतुकर झा ने किया है।
सर कामेश्वर सिंह अन्य राजा-महाराजाओं से थोड़ा हटकर थे। उनके बारे में पढ़ना एक अलग तरह का अनुभव होता है। अब ए.के. गोपालन भी कोई मामूली नेता नहीं थे।वे अविभाजित सी.पी.आई. के संसदीय दल के नेता थे। उनकी पत्नी सुशीला गोपालन भी सांसद थींं। जाहिर है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में उस तरह परिवारवाद को बढ़ावा नहीं दिया जाता था जिस तरह गैर कम्युनिस्ट दलों में बेशर्म तरीके से किया जाता रहा है। यानी गोपालन साहब सपरिवार क्रांतिकारी थे। विचारों से आप मतभेद रख सकते हैं, पर कोई भी वैचारिक रूप से ईमानदार व्यक्ति यह मानेगा कि तब कम्युनिस्ट होने का मतलब ही था कष्टमय जीवन बिताना। पर, यह पढ़कर आश्चर्य हुआ कि जिस दरभंगा महाराज से बिहार के भोगेंद्र झा जीवन-मरण का संघर्ष कर रहे थे, उसी महाराज से केरल के गोपालन साहब चंदा मांग रहे थे।
हालांकि दरभंगा महाराज राजनीतिक लोगों को चंदा देने में उदार थे। आजादी की लड़ाई के दिनों में भी वे कांग्रेस को उदारतापूर्वक चंदा देते थे।पर कम्युनिस्टों की बात तो अलग मानी जाती थी। अब जरा भोगेंद्र झा के संघर्षों की एक झलक उन्हीें के शब्दों में, ‘ सन् 1946 में हमलोगों ने भूमि संघर्ष को लिया। जमींदारी मिटाने, अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई और जमीन का बंटवारा करने, सबको मिलाकर हमने शुरू किया। जमीन पर चढ़ना,केवल नारा देना नहीं, चढ़ने का मतलब कब्जा करना गरीबों के द्वारा। यह लड़ाई हमारे यहां 1946 में काफी उग्र हो गई थी। अंधेरी एक गांव है जहां महंथाना था। जमीन पर चढ़ने के सवाल पर हमारी कुछ जीतें हो गईं तो उसके बाद मुझे मारने का प्रयास किया गया था।’ यह विवरण ‘क्रांति योग’ नामक भोगेंद्र झा की पुस्तक में संग्रहीत है जिसे मौखिक इतिहास के तहत नेहरू स्मारक संग्रहालय ने तैयार कराया था। सी.पी.आई. के टिकट पर भोगेंद्र झा मधुबनी से कई बार लोक सभा सदस्य रहे। वे बताते हैं,‘जहां तक मुझे जानकारी है,उस समय दरभंगा महाराज के जनरल मैनेजर थे डेनबी। उसने बाकी जमींदार और कुछ सरकारी अफसरों से मिलकर योजना बनाई। 4 जनवरी 1947 को मधुबनी से मैं अंधेरी गांव आया और मुझे घेर लिया गया। इससे पहले भी दो- तीन बार घेरने के प्रयास हुए थे। टकराव हुए थे,पर वे लोग पीछे हट गए थे।मैं एक दिन अकेला था।सीधे हत्या करने का प्रयास हुआ। मैं बेहोश था, खून में लथपथ, मेरे लिए हटना संभव था, लेकिन मुझे मुनासिब नहीं लगा। यह मुझे मारने का संगीन प्रयास था, यह पता ही था। उसके विवरण में मैं नहीं जाउंगा, लंबा हो जाएगा।’
हालांकि एक अन्य स्थल पर भोगेंद्र झा कहते हैं,‘ आगे चलकर दरभंगा महाराज से भूमि सुधार के मामले पर जबर्दस्त संघर्ष हुआ। मैंने सारे महंथाना को मिटा दिया। भारत की पहली जमींदारी हमलोगों ने ही मिटाई। आजकल के मधुबनी जिला के बेनीपट्टी प्रखंड के अंधेरी गांव में 700 एकड़ की जमींदारी थी। एक इंच भी जमीन उसको नहीं छोड़ा।’
एक अन्य अवसर पर केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र ने सर कामेश्वर सिंह को लिखा कि ‘ सिर्फ आपके आशीर्वाद से ही मैं अब तक अपना सार्वजनिक जीवन बरकरार रखने में समर्थ रहा हूंं। (विथ ओयर ब्लेसिंग एलोन,आई हैव बिन एबल टू मेंटेन माई पब्लिक लाइफ सो फार।) ललित बाबू ने 12 जनवरी, 1962 को महाराजाधिराज को लिखा कि ‘इस बार मेरा चुनाव आसान नहीं है। इस बार काफी संसाधन की जरूरत होगी जो मेरी क्षमता से बाहर है।’ यानी ललित बाबू ने भी महाराजा से आर्थिक मदद की मंाग की।यही नहीं बल्कि यह भी कहा कि आपके के ही बल पर मैं अब तक राजनीति में हूंं।
याद रहे कि दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह 1952 के लोक सभा चुनाव में दरभंगा नौर्थ क्षेत्र में कांग्रेस के उम्मीदवार श्याम नंदन मिश्र से हार गए थे। यानी, दरभंगा महाराज कांग्रेस में तब नहीं थे। पर कांग्रेस के कई बड़े नेता उनकी तरफ मदद के लिए मुखातिब रहते थे।
( प्रभात खबर 19-09-2008)
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