पर्यावरण संतुलन कायम रखने में इस देश की सरकारें पूरी तरह विफल रही हैं। पर्यावरण संतुलन बिगड़ते जाने की इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए अब मीडिया का एक हिस्सा इस ओर पहले की अपेक्षा अधिक ध्यान देने लगा है। यह खुश खबरी है। ‘डाउन टू अथर्’’ पत्रिका की संपादक सुनीता नारायण तो पहले से ही इस मामले में ऐतिहासिक काम कर रही हैं। पर हाल में एक ’ाालीन व जिम्मेवार इलेक्ट्रोनिक चैनेल एनडीटीवी ने भी यह सामाजिक जिम्मेदारी उठाई है। यह चैनल इन दिनों पर्यावरण जागरूकता के क्ष्ेात्र में भी बढि़या काम कर रहा है। उम्मीद है कि कुछ अन्य चैनल भी इस दिशा में जल्दी ही आगे आएंगे। इलेक्ट्रानिक चैनलों का भारतीयों के मानस पर भारी असर है।
अखबारों को भी चाहिए कि वे अब पर्यावरण को अलग एक प्रमुख ‘बिट’ के रूप में स्वीकार करें। क्योंकि बढ़ते पर्यावरण असंतुलन की यह समस्या काफी गंभीर बनती जा रही है। वैसे भी मीडिया का काम सूचना, शिक्षण और मनोरंजन ही तो है, पर केंद्र और राज्य सरकारें पर्यावरण के क्षेत्र में पहले जैसे ही अब भी लापारवाह हंै। यह लापारवाही इस बात के बावजूद है कि सुप्रीम कोर्ट ने सन् 1991 और उसके बाद बार -बार केंद्र और राज्य सरकारों को यह हिदायत दी कि वे प्राथमिक से विश्वविद्यालय स्तर तक पर्यावरण की पढ़ाई पृथक और अनिवार्य विषय के रूप में करे, ताकि कम- से-कम आनेवाली पीढियां तो इस गंभीर समस्या के प्रति जागरूक हों। इस आदेश को मानते हुए सीबीएसई और आईसीएसई से जुड़े विद्यालयों ने तो पृथक और अनिवार्य विषय के रूप से पर्यावरण की पढ़ाई शुरू कर दी । पर बिहार सरकार, विश्वविद्यालय तथा अन्य कुछ सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश को नजरअंदाज ही कर दिया। या फिर इस तरह उसका पालन किया ताकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मंशा ही पराजित हो जाए। बिहार सरकार ने पर्यावरण विषय को अन्य कई विषयों के साथ मिला दिया और उस समाज अध्ययन को पढ़ाने के लिए भूगोल के टीचर पर जिम्मेदारी सौंप दी।
पटना के एएन काॅलेज तथा कुछ अन्य काॅलेजों में पर्यावरण विज्ञान व जल प्रबंधन विषय में बीएससी और एमएससी स्तर की पढ़ाई होती है और हर साल उनकी डिग्रियां दी जाती हैं, पर बिहार सरकार के पास उन डिग्रियों का कोई मोल नहीं है। यानी इन विषयों में पास करके कोई छात्र बिहार सरकार के किसी स्कूल या यहां के किसी विश्वविद्यालय या काॅलेज में शिक्षक नहीं बन सकता। सामाजिक कार्यकर्ता मिथिलेश कुमार सिंह ने सूचना के अधिकार के तहत बिहार सरकार के शिक्षा विभाग से कई महीना पहले एक सूचना मांगी। उन्होंने पूछा है कि बिहार सरकार के शिक्षा विभाग, शिक्षण संस्थान या यहां किसी भी विश्व विद्यालय में ऐसा कौन सा पद है जो सिर्फ पर्यावरण विज्ञान में एमएससी की डिग्री पाए उम्मीदवार को ही दिया जा सकता है ? ठीक उसी तरह, जिस तरह किसी कालेज के गणित विभाग में वही टीचर बन सकता है जिसके पास गणित में स्नातकोत्तर की डिग्री हो। पर इसका उत्तर अब तक शिक्षा विभाग की तरफ से नहीं आया है। लगता है कि ऐसा कोई भी पद नहीं है। यदि कोई पद ही नहीं है तो बिहार सरकार या फिर यहां के विश्व विद्यालय पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई करा कर छात्र छात्राओं के जीवन और कैरियर को क्यों बर्बाद कर रहे हैं ? यदि पर्यावरण विज्ञान के बदले वे गणित पढ़ते तो कम से कम विश्वविद्यालयों और काॅलेजों के गणित विभागों में नौकरी की उम्मीद रख सकते थे। पर बिहार सरकार के कुछ खास नीति निर्धारकों को किसी के जीवन बर्बाद होने या नहीं होने से कितना मतलब रह गया है ? उनकी प्राथमिकताएं तो कुछ और ही हैं।
इस देश में बढ़ते पर्यावरण असंतुलन को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण आंदोलन के महत्वपूर्ण नेता एम.सी.मेहता ने सुप्रीम कोर्ट में लोकहित याचिका दायर की।सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका संख्या-860-91 पर विचार करते हुए 22 नवंबर 1991 को यह आदेश दिया कि राज्य सरकारें मैट्रिक स्तर या फिर इंटर स्तर तक पर्यावरण विषय को पृथक और अनिवार्य रूप से पढ़ाने की व्यवस्था करे। काॅलेज और विश्व विश्वविद्यालय स्तर पर भी इस विषय की पढ़ाई की अनिवार्यता कायम करने की संभावना पर इस देश के विश्वविद्यालय विचार करें। किंतु इस दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ। जहां तक बिहार के स्कूलों में पर्यावरण की पढ़ाई का सवाल है तो इसे समाज विज्ञान का हिस्सा बना दिया गया है और इसे भूगोल के टीचर पढ़ाते हैं।
पर पर्यावरण विज्ञानी डा बिहारी सिंह बताते हैं कि आज पर्यावरण विज्ञान का जो सिलेबस है, उसमें भूगोल का हिस्सा मात्र सात प्रतिशत ही है।कोई भूगोल का टीचर उस विषय के साथ न्याय नहीं कर सकता।
खैर, अब बिगड़ते पर्यावरण की एक झलक। पर्यावरण से जुड़ी दुनिया की मशहूर संस्था वल्र्ड वाइल्डलाइफ फंड ने भविष्यवाणी की है कि जिस रफ्तार से संसाधनों की लूट हो रही है, उस हिसाब से अगले 50 साल के अंदर कार्बन डायआक्साइड सोंखने वाले सारे जंगल उजड़ जाएंगे और समुद्र की मछलियां गायब हो जाएंगी। न शुद्ध हवा मिलेगी और न शुद्ध पानी मिलेगा। इस बिगड़ती स्थिति को संभाल लेन के लिए हमारे पास सिर्फ सात साल का समय ही बचा है। तब तक नहीं संभला तो बाद में हम चाहते हुए भी नहीं संभाल पाएंगे।
सूखती और गंदे नाले में तब्दील होती गंगा नदी की दशा देख कर हम भविष्य की कल्पना कर सकते हैं। हाल में स्वामी रामदेव के नेतृत्व में संतों ने कान पुर से ही गंगा को बचाने के लिए अभियान शुरू करने का फैसला किया तो वहां के सांसद व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल घबरा गए और उन्होंने प्रधान मंत्री से संतों को मिलवाया। इसके बाद गंगा बेसिन प्राधिकार बनाने का केंद्र सरकार ने फैेसला भी किया। पर बाद में इसे भी भुला दिया गया। अब तक ऐसी कोई खबर नहीं मिली है कि प्राधिकार ने कोई बैठक भी की हो।पता नहीं ,हमारी तकदीर में क्या लिखा हुआ है जहां की विभिन्न सरकारों में ऐसे ऐसे नीति निर्धारक बैठे हुए हैं जो पर्यावरण की रक्षा का महत्व ही समझने को तैयार नहीं हैं।अब तो इस देश का भगवान ही मालिक है। सरकारों को जगाने के काम में लगा कोर्ट भी अब थक चुका।शायद मीडिया खास कर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया ही कोई असर पैदा करे !
(8 फरवरी, 2009)
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