रविवार, 1 फ़रवरी 2009

भारत में सफल,पर चीन में क्यों विफल हुए यूरोपियन

अंग्रेज गवर्नर वारेन हेस्ंिटग्स (1772-1785) ने खुद ब्रितानी संसद में बड़े अभिमान के साथ यह कबूल किया था कि उसने किस तरह भारतीय शासकों के बीच फूट डाल कर राज किया। आज जब एक बार फिर इस देश में विभाजनकारी शक्तियां सिर उठा रही हंै, वारेन के इन शब्दों को याद करके उनसे कुछ सीख लेना जरूरी है, ‘ महान भारतीय संघ के एक सदस्य निजाम को ठीक मौके पर उसका कुछ इलाका वापस करके संघ से फोड़ा। दूसरे मूदाजी भोंसले के साथ मैंने गुप्त पत्र-व्यवहार जारी रखा और उसे अपना मित्र बना लिया। तीसरे माधो जी सिंधिया को दूसरे कामों में लगाकर और पत्र व्यवहार करके मैंने भुलाए रखा और सुलह के लिए बतौर अपने हथियार के उसका उपयोग किया।’

अंग्रेजों की इस फूट नीति और कूटनीति के बारे में सुंदर लाल ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ में विस्तार से लिखा है। सुंदर लाल ने लिखा कि ‘ वारेन हेस्टिंग्स के समय में हिंदुस्तान के अंदर ईस्ट इंडिया कम्पनी का इलाका नहीं बढ़ा। फिर भी वारेन का शासन काल ब्रिटिश भारत के इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। क्लाइव ने इस देश के अंदर अंग्रेजी राज की जो बुनियाद डाली थी,वारेन ने भारत की राज शक्तियों को और अधिक कमजोर करके उन बुनियादों को पक्का कर दिया।’

 अंग्रेजों के आने से पहले मध्य युग में भी विदेशी हमलावरों ने हमारी आपसी फूट का भरपूर लाभ उठाया था। अंग्रेजों के जमाने में भी हमारे देशी शासकों ने इतिहास से नहीं सीखा। कम से कम आज तो हम पूरी तरह चेत जाएं, इसके लिए जरूरी है कि हम भूले-बिसरे प्रकरणों को याद करते रहेंं।

 वारेन हेस्टिंग्स कैसा शासक था, इसके बारे में खुद लार्ड मैकाले ने लिखा था,‘ वारेन हेस्टिंग्स ने भी चाहे ईमानदारी से हो चाहे बेईमानी से जिस तरह हो सके , भारत से धन बटोरने का निश्चय कर लिया। देश की स्थिति का उसे पूरा ज्ञान था और सूझ की भी कमी उसमें नहीं थी।’ अंग्रेजों ने इस देश के साथ क्या- क्या किया,उसकी एक झलक उस चर्चा से मिलती है जो ब्रिटिश संसद में हुई थी।

चर्चा सन् 1804 के दूसरे मराठा युद्ध के औचित्य को लेकर हुई थी। सर फिलीप फैं्रसिस ने संसद में कहा था कि ‘भारत के साथ हमारा संबंध कैसे शुरू हुआ, इसके बारे में मुझे आपको यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि शुरू में हमारा संबंध केवल तिजारत का था। देशी नरेशें ने भी हम पर संदेह नहीं किया, बल्कि हर तरह से हमारे साथ अनुग्रह का व्यवहार किया।

उन्होंने न केवल तिजारत करने और उससे खूब फायदा उठाने के लिए हमें हर तरह की सुविधा प्रदान की, बल्कि ऐसी -ऐसी रियायतें और माफियां भी हमें दे दीं जो उनकी अधिकांश प्रजा को भी प्राप्त न थीं।’ ‘ व्यापार की दृष्टि से विदेशी कौमों के साथ अपनी तिजारत को बढ़ने का मौका देना देशी नरेशों के लिए बुद्धिमता थी, किंतु जबकि उनकी तिजारती आंखें खुली हुई थीं, उनकी राजनीतिक आंखें बंद थीं। उन्होंने उन असूलों पर काम नहीं किया, जिन असूलों पर चीन वालों ने काम किया और जिनके कारण यूरोपियन कौमें चीन पर अपनी सत्ता जमाने में सफल न हो सकीं।’

 सर फिलिप फ्रैंसिस ने अपने भाषण में यह भी दिखलाया कि किस तरह अंग्रेज शासक भारतीय नरेशों के खासकर उस समय के सिंधिया के चरित्र पर बिलकुल झूठे दोष लगा कर उसे बदनाम करते थे और किस तरह के छलों द्वारा उन नरेशों की स्वाधीनता हरते थे। उन्होंने कहा था कि ‘पहले हमने तिजारत शुरू की, तिजारत से कोठियां हुईं, कोठियों से किलेबंदी , किलेबंदी से सेनाएं, सेनाओं से देश विजय और विजयों से हमारी आजकल की हालत।’ उनकी राय में भारत मंे इलाके के विजय करने और अपने राज्य को बढ़ाने की योजनाएं करना अंग्रेज कौम की इच्छा के विरूद्ध है।’

 एक अन्य अंग्रेज इतिहासकार ने ठीक ही लिखा है कि ‘हमलोगों में यह रिवाज है कि पहले किसी देशी नरेश का राज उससे छीन लेते हैं।फिर पदच्युत नरेश पर और उसके बनने वाले उत्तराधिकारी पर झूठे कलंक लगा कर उसे बदनाम करते हैं।’ इतने चतुर व घाघ अंग्रेज शासकों से लड़कर हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने भारी संघर्ष व बलिदान के बलकर हमें आजादी दिलाई है। पर आज इस कीमती आजादी को बचाए रखने के लिए हमें जो कुछ सावधानियां बरतनी चाहिए, वे सावधानियां क्या हम बरत रहे हैं ? आज राजनीतिक गुलामी की तो नहीं, पर इस देश पर आर्थिक गुलामी का खतरा तो बरकरार है ही। इतिहास से शिक्षा लेकर हम किसी नए खतरे से जरूर बच सकते हैं। इतिहास से शिक्षा तभी मिलेगी जब हम अपना सही -सही इतिहास पढ़ेंगे। पर इस देश के कई बुद्धिजीवियों और इतिहासज्ञों के साथ दिक्कत यह है कि वे हमें एक खास तरह का इतिहास ही पढ़ाना चाहते हैं।
प्रभात खबर (1 जनवरी, 2009)

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