रविवार, 1 फ़रवरी 2009

आय में बढ़ते फर्क के खतरे

ओएनजीसी यानी तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम के अफसरों की इस माह के प्रारंभ में तीन दिनों की हड़ताल हुई। इससे पूरे देश में आम लोगों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ा। अफसर अपने वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल पर थे। अब सवाल है कि उन्हें कितना वेतन मिलता है और वे उसमें कितनी वृद्धि की मंाग के लिए सरकार का भयादोहन कर रहे थे ? हड़ताली अफसरों के संघ के अध्यक्ष का मासिक वेतन हर माह एक लाख 29 हजार रुपए है। वे इसमें और वृद्धि के लिए हड़ताल पर चले गए थे। वे ओएनजीसी में अधीक्षण अभियंता हैं। संघ के उपाध्यक्ष का वेतन 99 हजार रुपए है। एक अन्य उपाध्यक्ष का वेतन एक लाख 26 हजार रुपए है। इसी तरह ओएनजीसी के अन्य अफसरों को भी भारी वेतन दिया जाता है। शुक्र है कि केंद्र सरकार ने कड़ा रुख अपनाया और हड़ताल समाप्त हो गई। गत 11 जनवरी को निगम ने अपने 64 हड़ताली अफसरों को सेवामुक्त कर दिया है।इस हड़ताल को उन कुछ नेताओं ने भी विवेकहीन हड़ताल बताया जो कामगारों के पक्ष में अक्सर उठ खड़े होते हैं। सवाल है कि इस गरीब देश के सरकारी कर्मियों को कितना वेतन मिलना चाहिए ? जाहिर है कि वेतन समितियां जो रकम तय करती हैं, उतनी रकम तो मिलनी ही चाहिए। पर क्या कुछ लोगों को उससे भी ज्यादा मिलना चाहिए ? अन्यथा वे देश का जरूरी काम काज भी ठप कर देंगे ? तेल का मामला तो देश की सुरक्षा से भी जुड़ा हुआ है। इन दिनों देश पर कई तरह के बाहरी -भीतरी खतरे मौजूद हैं। उनकी हड़ताल न सिर्फ मौजूदा कानून बल्कि भारत के संविधान की मंशा के भी खिलाफ थी।संविधान में दर्ज राज्य के नीति निदेशक तत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्व का विवरण अनुच्छेद-39 (ग) में दिया गया है। उसके अनुसार, ‘राज्य अपनी नीति का, विष्टितया, इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रुप से आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन साधनों का सर्व साधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण नहीं हो।’ इस देश में 84 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनकी रोज की औसत आय मात्र बीस रुपए है। दरिद्र लोगों से भरे- पड़े ऐसे देश का कोई सरकारी अफसर कहे कि उसे हर माह मिलने वाले करीब सवा लाख रुपए से तो काम नहीं चलेगा,तो उसके साथ शासन का कैसा सलूक करना चाहिए ? वैसा ही जैसा शासन ने किया।पर, इस कड़े सलूक को नैतिक बल भी मिल जाता यदि खुद शासक वर्ग भी हर स्तर पर मितव्ययिता अपनाता और फिजूलखर्ची से बचता। गत साल यह खबर आई थी कि इस देश के एक सांसद पर सरकार हर माह औसतन दो लाख पैंतीस हजार रुपए खर्च करती है। जाहिर है कि सांसदी पूर्णकालिक काम नहीं है। एक सांसद के जिम्मे जितना भी काम है,उसे अधिकतर सांसद ठीक ढंग से नहीं कर रहे हैं। पिछले सत्र में आठ विधेयक सिर्फ सत्रह मिनट में पारित कर दिए गए। ओएनजीसी के अफसरों की यह शिकायत हो सकती है कि भारत सरकार के अधिकतर अफसर और मंत्री ओएनजीसी के साधनों का नाजायज तरीके से इस्तेमाल करते रहते हैं। सांसद जब चाहते हैं, अपना वेतन- भत्ता सदन में सर्वसम्मति से बढ़ा लेते हैं। पर इंजीनियरों व कामगारों के साथ ऐसी उदारता नहीं बरती जाती।ऐसा क्यों ? आजादी के तत्काल बाद जब मंत्रियों, सांसदों और विधायकों के लिए वेतन तय हो रहा था तो तब के नेताओं ने इस बात को लेकर शिकायत नहीं की कि उनको आईएएस अफसरों से कम वेतन-भत्ते क्यों दिए जा रहे हैं। तब राजनीति सेवा थी, नौकरी या व्यापार नहीं। पर अब तो अफसरों को शिकायत है कि कुल मिलकर सांसदों -विधायकों पर उनकी अपेक्षा जनता के अधिक पैसे खर्च हो रहे हैं। क्या राजनीतिक वर्ग एक बार फिर अपनी नैतिक धाक कायम करने की दिशा में कुछ त्यागमय कदम उठाएगा ताकि ओएनजीसी के बर्खास्त अफसरों को कुछ कहने का मौका न मिले ? एक बात साफ -साफ समझ ली जानी चाहिए कि आय के बढ़ते अंतर के अपने भयंकर खतरे हैं। उन खतरों को सबसे अधिक नेताओं को ही झेलना पड़ेगा।
राष्ट्रीय सहारा (15 जनवरी, 2009)

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