एक कम जरूरी मुद्दे को लेकर इस देश में एक बार फिर केंद्र सरकार के गिर जाने और समय से पहले चुनाव होने की नौबत आ गई है।उम्मीद तो यही की जा रही है कि मन मोहन सरकार अंततः बच जाएगी। वैसे भी कांग्रेस के नेतृत्व में जब भी केंद्र में सरकार बनती है तो वह पूरे पांच साल चलती है।कांग्रेसी प्रधान मंत्रियों ने एकाधिक बार खुद ही अपनी मर्जी से समय से पहले लोक सभा के चुनाव कराए थे।पर, इस बार नौबत तो इसे गिराने की ही ला दी गई है।इस देश में ऐसी नौबत पहले भी कई बार लाई जा चुकी है।कई अवसरों पर तो इसी तरह के कम जरूरी या फिर गैर जरूरी मुद्दों को लेकर कें्रद की सरकार गिराई भी जा चुकी है। इस पृष्ठभूमि में एक बार फिर इस सवाल पर विचार करने का अवसर आ गया है कि संसद व विधान सभाएं पांच साल से पहले किसी भी हालत में भंग नहीं हों।इसके लिए संविधान में जरूरी संशोधन ही कर दिया जाए।इससे यह गरीब देश अनावश्यक चुनावी खर्चे का बोझ उठाने से बच जाएगा।इससे देश भर में लोक सभा व विधान सभाओं के चुनाव एक फिर एक ही साथ कराए जाने की पृष्ठभूमि भी तैयार हो जाएगी।सन् 1967 तक दोनों चुनाव एक ही साथ होते भी थे।दोनों चुनाव एक साथ कराए जाने के कारण विघटनकारी तत्वों को क्षेत्रीय मुद्दे उछालने का अवसर भी कम मिलेगा।चुनावी खर्चे घटेंगे।इससे राजनीतिक भ्रष्टाचार पर काबू पाने में भी सुविधा होगी। आज इस देश के सामने सबसे बड़ी दो समस्याएं हैं भीषण महंगी और मारक आतंकवाद ।इन दोनोंं समस्याओं से मुकाबले में केंद्र सरकार विफल हो रही है।यदि कम्युनिस्ट पार्टियांे की प्राथमिकता में देशहित होता तो वे इन दो में से किसी मुद्दे पर मन मोहन सरकार से समर्थन वापस लेतींे। आतंकवाद व अतिवाद के बढ़ते खतरे को आधार बना कर समर्थन वापस लेने की उम्मीद तो कम्युनिस्टों से नहीं ही की जा सकती,पर वे महंगी को तो आधार बना सकते थे।क्योंकि गरीब ही महंगी से सर्वाधिक पीडि़त होते है। गरीबों के हितों की रक्षा का दावा अन्य दलों की अपेक्षा कम्युनिस्टों का सबसे अधिक रहा है।इस देश के करीब अस्सी करोड़ लोगों की रोज की आय मात्र बीस रुपए है। नंदीग्राम व सिंगुर के बावजूद उन्हें ऐसा दावा करने का अधिकार भी दिया जा सकता है।पर, इसकी जगह उन्होंने परमाणु करार को आधार बना कर देश में राजनीतिक अस्थिरता की नौबत ला दी है। यहां ऐसा नहीं कहा जा रहा है कि परमाणु करार का विरोध करने का उन्हें अधिकार नहीं है। पर महंगी और आतंकवाद-अतिवाद छोड़ कर परमाणु मुद्दे को पकड़ने के पीछे व्यापक जनहित नहीं प्रतीत होता है।हां, दलहित या फिर कोई और हित हो सकता है। जब इस देश के जिम्मेदार दल भी देशहित व जनहित के बदले किसी और तरह के हितों को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार को लगातार अस्थिर करने की नौबत लाते रहें तो फिर विधायिकाओं के फिक्स्ड कार्यकाल तय कर देने की जरूरत और भी बढ़ जाती है।मन मोहन सरकार से वाम दलों द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद जो स्थिति बन रही है,क्या वे देश के लिए सुखद होंगी ? क्या मन मोहन सिंह सरकार के नए समर्थक अपने समर्थन की कैसी-कैसी कीमतें वसूलेंगे, इस बात की कल्पना समर्थन वापस करते समय कम्युनिस्ट ने की थी ? क्या मन मोहन सरकार के नए दोस्तों ने अपनी व्यक्तिगत व दलीय समस्याओं को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार के संकटमोचक नहीं बने हैं ? उन समस्याओं को केंद्र की सरकार से हल कराने का असर आम जनता और राजनीति पर कैसा पड़ेगा ?वे समर्थन के जो मूल्य वसूलना चाहते हैं,वे सिर्फ इसलिए अदा किए जाएंगे ताकि लोक सभा को तत्काल भंग होने से बचाया जा सके।क्योंकि भीषण महंगी से पैदा हुई स्थिति के बीच कोई सत्ताधारी दल अभी चुनाव में जाने के लिए तैयार नहीं लगता है।यदि लोक सभा का चुनाव पांच साल से पहले होना असंभव होता तो समर्थन लेने के लिए कोई भी कीमत देने की किसी के सामने कोई मजबूरी नहीं होती। समय से पहले चुनाव यानी देश में अधिक चुनाव।अधिक चुनाव यानी एक बार फिर मल्य वृद्धि।यानी आम जनता को अधिक आर्थिक परेशानी।पर आज की राजनीति को गौर से देखने से लगता है कि गांधी का ‘अंतिम व्यक्ति’ किसी दल के एजेंडे में नहीं है। आज कांग्रेस को इस बात का बुरा लग रहा होगा कि एक मामूली परमाणु समझौते को लेकर उनकी सरकार को अस्थिर बना दिया गया है।पर ऐसे मामले में खुद कांग्रेस का रिकार्ड खराब रहा है।बल्कि ऐसे मामूली मुद्दों पर केंद्र की कई सरकारों को बारी बारी से गिरा देने का काम भूत काल में कांग्रेस दलहित में कर चुकी है।दरअसल रास्ता तो उसी का दिखाया हुआ है।हालांकि समय से पहले गुजराल सरकार को गिरवा देने का लाभ कांग्रेस को नहीं मिला था।बाद में जब चुनाव हुआ तो अटल बिहारी वाजपंयी की सरकार बन गई थी। सीताराम केसरी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी हाथ मलती रह गई थी। क्या कांग्रेस पार्टी को याद है कि उसने चरण सिंह ओर चंद्र शेखर के नेतृत्व वाली सरकारों को किस जनहित के तहत गिराया था ? इन सरकारों को गिराने के बाद कांग्रेस पार्टी की सरकार जरूर बन गई थीं, पर देश को जरूर अनावश्यक चुनाव का खर्च उठाना पड़ा था।यह मानी हुई बात है कि हर चुनाव के बाद आम तौर पर महंगी बढ़ती है।राजनीति की नैतिकता कुछ और नीचे गिरती है।इंदर कुमार गुजराल सरकार को गिराने का प्रकरण तो न सिर्फ मनोरंजक बल्कि शर्मनाक भी था।तब जैन आयोग की रपट आई थीं । आयोग ने अपनी अधपकी अंतरिम रपट में यह कह दिया कि राजीव गांधी की हत्या के लिए द्रमुक भी जिम्मेदार था।तब द्रमुक के मंत्री गुजराल सरकार में शामिल थे।संयुक्त मोर्चा की गुजराल सरकार कांग्रेस के बाहरी समर्थन से चल रही थी।जैन आयोग की फाइनल रपट की प्रतीक्षा किए बिना ‘ओल्ड मैन इन हरी’ सीताराम केसरी ने गुजराल सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके कारण सन् 1998 में गुजराल सरकार गिर गई और लोक सभा का मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा।इसके बाद भाजपा सत्ता में आ गई।पिछला चुनाव सिर्फ दो साल पहले यानी 1996 में ही हुआ था। याद रहे कि जब जैन आयोग की अंतिम रपट आई तो पता चला कि जैन के अनुसार द्रमुक दोषी था ही नहीं । समय से पहले मामूली कारण को आधार बना कर सरकार गिराने का यह एक मात्र उदाहरण नहीं था। चंद्र शेखर के नेतृत्व में कांग्रेस के बाहरी समर्थन से बनी केंद्र सरकार को गिराने का तो यह हास्यास्पद बहाना बनाया गया कि कांग्रेस के एक अति महत्वपूर्ण नेता के दिल्ली स्थित आवास के आसपास हरियाणा की खुफिया पुलिस जासूसी कर रही थी।एक बार फिर जब देश उसी तरह की स्थिति से जूझ रहा है तो इस देश के समझदार नेताओं को मिल बैठकर इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि क्या विधायिकाओं की फिक्स्ड अवधि कर देने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत नहीं आ पड़ी है ? इस देश की विधान सभाओं के भी समय से पहले अनावश्यक चुनाव होते रहे हैं।
हिन्दुस्तान में प्रकाशित
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