रविवार, 1 फ़रवरी 2009
‘भ्रष्टाचार से आजादी’ की लड़ाई जरूरी
इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि मेरा पत्रकार जीवन उसी कालावधि में शुरू हुआ जब देश और इस प्रदेश की राजनीति में भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर प्रवेश करने लगा था। भ्रष्टाचार को फलत,े फूलते और बढ़ते हुए इन आंखों ने देखा है।प्रशासन में भीषण भ्रष्टाचार तो कुछ बाद में फैला। उससे पहले राजनीति व प्रशासन में भ्रष्टाचार दाल में नमक के बराबर था। यह सन् 1969-70-71 की कालावधि थी।यही समय तीव्र जनांदोलन के शुरू होने का ंभी है। पहले नक्सल आंदोलन और बाद में जेपी आंदोलन।इन्हीं जनांदोलनों में से निकले कई पत्रकार भी बाद में मुख्य धारा की पत्रकारिता में आए। ये पत्रकार अन्य राज्यों के पत्रकारों से थोड़ा अलग रहे।जनांदोलनों से निकले या उनसे प्रभावित पत्रकारों के दिलो- दिमाग में भ्रष्टाचार और सामाजिक व आर्थिक उत्पीड़न के खिलाफ गुस्सा था। बिहार की मीडिया के उस हिस्से की ओर से उसका जिस तीव्रता से विरोध शुरू हुआ,वैसा शायद ही किसी अन्य प्रांत में शुरू हुआ।मैं भी उस हिस्से का एक छोटा पात्र रहा।परिणामस्वरूप पत्रकार यहां सरकारी दमन के अपेक्षाकृत अधिक शिकार बने।कुछ व्यक्तिगत परेशानियां सामने आईं तो कुछ सामूहिक परेशानियां पैदा करने की कोशिश की गईं। अस्सी के दशक का बिहार प्रेस बिल इसका एक उदाहरण था।हालांकि यह सब मैंने मुख्य धारा की पत्रकारिता में आने के बाद देखा और झेला। काॅलेज छोड़ने के बाद शुरूआती दौर में तो मैंने मीर गंज से प्रकाशित साप्ताहिक ‘सारण संदेश’,पटना से प्रकाशित ‘लोकमुख’ तथा साप्ताहिक ‘जनता’ और दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ के लिए काम किया।सन् 1977 में मुख्य धारा की पत्रकारिता यानी दैनिक ‘आज’ में काम करना शुरू किया।उसके बाद चर्चित दैनिक ‘जनसत्ता’ और आखिर मेंं दैनिक ‘हिंदुस्तान’ के पटना संस्करण में राजनीतिक संपादक के रूप में काम करने का सुअवसर मिला। इस दौरान मैंेने यह महसूस किया कि बिहार की गरीबी का मुख्य कारण यहां के प्रशासन और राजनीति में तेजी से बढ़ता भ्रष्टाचार ही है। हालांकि यहां यह नहीं कहा जा रहा है कि पक्ष-विपक्ष की राजनीति और राज्य सरकार के सारे कत्र्ताधत्र्ता बेईमान ही रहे। उनमें भी कुछ ईमानदार व कुछ अत्यंत ईमानदार भी रहे और आज भी हैं,जो आम लोगों के बारे ही अधिक सोचते हैं, पर आम तौर पर कई कारणों से वे प्रभावकारी नहीं हो पाते। इन बेईमान लोगों को कत्र्तव्यनिष्ठ पत्रकारों से हमेशा ही वैर रहा।ऐसे लोगों की यह आम धारणा रही कि ‘पत्रकार चाहे तो मेरे विरोधी होंगे ,या फिर समर्थक।’उन्होंने बीच की किसी स्थिति की कल्पना ही नहीं की। यह भी कि ‘यदि विरोधी हैं तो मेरे राजनीतिक दुश्मन के इशारे पर ही अपना लेखन करते हैं।’ अपनी मुख्य धारा की पत्रकारिता के काल में बिहार की राजनीति के दो चर्चित व विवादास्पद दिग्गजों ने अलग-अलग अवसरों पर पटना से मेरी बदली अन्यत्र करवाने की काफी कोशिश की थी। पर, उन अखबारों का प्रबंधन उनके दबाव में नहीं आया। मुकदमे, धमकियां और अन्य तरह की प्रताड़नाएं तो आम बात रहीं। इस बीच एक दिलचस्प बात भी हुई। एक सज्जन ने जिन्होंने मुझ पर मानहानि का केस कर रखा था, मिलने पर स्वीकार भी किया कि ‘आपने तो सही ही लिखा है। पर, यदि मैंने आप पर केस नहीं किया होता तो अन्य पत्रकार भी मेरे खिलाफ लिखने लगते। पर एक बात जरूर है कि आपने जो कुछ लिखा है, मैं जानता हूं कि उसका सबूत आपके पास उपलब्ध नहीं है।’ उनकी यह बात सही थी। उन दिनों सबूत इकट्ठा करना कुछ अधिक ही कठिन था। आज अपेक्षाकृत आसान है जिसका लाभ आज के पत्रकार चाहें तो उठा सकते हैं। पर आज एक दूसरी कठिनाई पत्रकारों के सामने है। मुसीबत पड़ने पर पत्रकार को संकट से बचाने वाले मीडिया प्रबंधन की कमी होती जा रही है। जो सरकारी धन विकास और कल्याण के लिए आवंटित होते रहे, उनमें से बड़ी राशि को लूट लिया जाता है।सन् 1998 में तत्कालीन केंद्रीय ग्रामीण विकास सचिव एन.सी.सक्सेना ने बिहार सरकार के बारे में यही लिखा था। बिहार की गरीबी बढ़ाने वाले भ्रष्ट नेताओं और अफसरों के खिलाफ उपलब्ध सूचनाओं को पाठकों तक पहुंचाने की आज भी जरूरत है।यह काम एक पैमाने पर हो भी रहा है।पर इसे तेज करने की आवश्यकता है। यह जरूरत पिछले 40 साल से अधिक रही है।मैंने अपनी पत्रकारिता के प्रारंभिक दौर से ही राजनीति व शासन के भ्रष्टाचार को अपने लेखन का प्रमुख मुद्दा बनाया।अब जब यहां के मुख्य मंत्री बिहार में कायापलट की कोशिश में लगे हुए हैं तो उन्हें भी लग गया है कि ‘अर,े भ्रष्टाचार के खिलाफ तो मामूली कदमों से काम ही नहीं चलेगा।क्योंकि स्थिति काफी बिगाड़ दी गई है।’नीतीश कुमार ने कहा है कि ‘मैंने तो भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध का एलान कर दिया है।’यह कोई मामूली बात नहीं है कि किसी मुख्य मंत्री को अपने ही शासन के भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध का एलान करने की जरूरत पड़ जाए।इस बात से यह समझा जा सकता है कि पिछले कुछ दशकों में हमारे कर्णधारों ने स्थिति कितनी अधिक बिगाड़ दी है।मुझे संतोष है कि भ्रष्टाचार के इस सहश्रमुखी राक्षस के खिलाफ संघर्ष में मेरे पास भी जो थोड़ी-बहुत शक्ति और बुद्धि रही है, उसे मैंने लगाया है। देखना है कि एक ताकतवर मुख्य मंत्री इस युद्ध में कितना और कब तक सफल होते हैं।आज की पत्रकारिता को उसी तरह ‘भ्रष्टाचार से आजादी’ की पत्रकारिता बनाने की जरूरत मैं महसूस करता हूं जिस तरह इस देश के अधिकतर हिंदी पत्रकार सन् 1947 से पहले ‘ब्रिटिश शासन से आजादी’ की लड़ाई के सिपाही भी थे। यदि भ्रष्टाचार नहीं मिटा तो इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। यदि लोकतंत्र नहीं रहा तो पत्रकार कहां रहेंगे ? पटना डायरी (31 जनवरी, 2009)
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