रविवार, 1 फ़रवरी 2009

संसदीय दलों के नेता ही सदन में करें एकमुश्त मतदान


सांसदों या विधायकों के बदले संसदीय या विधायक दलों के नेता ही सदन में एकमुश्त मतदान कर दें, ऐसा नियम बनाने पर विचार करने का अवसर अब आ गया है।इसके लिए सदन कीे संचालन नियमावली में संशोधन किया जा सकता है।हाल के सांसद रिश्वत कांड के बाद इस बात पर विचार करने की जरूरत और भी बढ़ गई है कि किन-किन उपायों से ऐसी प्रवृतियों को रोका जाए। एकमुश्त मतदान भी एक उपाय बन सकता है। अधिक दिन नहीं हुए जब यह नियम बनाया गया कि राज्य सभा के चुनाव में मतदाता यानी विधायक अपने संबंधित दलों के नेता या उसके प्रतिनिधि को दिखा कर ही वोट कर सकते हैं। पहले गुप्त मतदान होता था।पर, रुपए लेकर राज्य सभा के चुनाव में वोट देने की कुप्रथा जब शर्मनाक हद तक पहुंच गई तो खुले मतदान की छूट देनी पड़ी ताकि विधायकांे पर संबंधित दलों का नियंत्रण रहे। अब राज्य सभा के चुनाव में वोट देने के पहले मत पत्र दलीय नेता या उसके प्रतिनिधि को नहीं दिखाने पर संबंधित विधायक की सदस्यता भी जा सकती है। इस बार लोक सभा में रिश्वत लेकर जितने बड़े पैमाने पर सांसदों ने मत विभाजन के समय पक्ष-परिवर्तन किया, उससे लोक तंत्र कुछ और बदनाम हो गया।रिश्वत खोरी के मामले की जांच के लिए सदन की सर्वदलीय समिति गठित करने का स्पीकर सोम नाथ चटर्जी का निर्णय सराहनीय है। इससे पहले भी इस तरह के मामले पर विचार के लिए सदन की समिति बनी थी और उसकी सिफारिश पर कुछ सांसदों की सदस्यता समाप्त भी कर दी गई थी। सदस्यता समाप्त करने के उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप करने से मना कर दिया था। ताजा नोट कांड पर इस बार भी संभवतः उसी तरह का फैसला होगा। पर, यह तो स्थायी उपाय नहीं है।वैसे भी जहां के अधिकतर नेता भ्रष्टाचार करने पर अमादा हों, वहां कौन सा उपाय कितना कारगर साबित होगा, यह कहना कठिन है। पर, जरूरत के अनुसार नियम बदलने के काम को जारी रखा ही जाना चाहिए। इससे यह भी आभास होगा कि रही -सही शुचिता समाप्त करते इस देश के लोकतंत्र को पटरी पर फिर से लाने की ताकत व इच्छा शक्ति इस व्यवस्था में अब भी मौजूद है। अभी विश्वास प्रस्ताव या अविश्वास प्रस्ताव जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर भी सदन में अलग -अलग वोट देने का अधिकार सभी सदस्यों को हासिल है। जब तक सदस्य देश हित या फिर दलहित में ‘मुफ्त’ में सदन में मतदान करते रहे, तब तक तो चिंता की कोई बात नहीं थी। पर, अब तो सदस्यों द्वारा बड़े पैमाने पर पैसे लेकर स्वहित में मतदान करने का आरोप लगने लगा है। इस धंधे में बड़े- बड़े दलों के सांसद भी लिप्त हैं। इस नए माहौल में नए उपाय चाहिए। एक उपाय तो सन् 1993 के झारखंड मुक्ति मोर्चा रिश्वत कांड को ध्यान में रख कर भी करना पड़ेगा।उस कांड पर सुप्रीम कोर्ट के दस साल पुराने फैसले को ध्यान में रख कर संविधान के अनुच्छेद 105 (2) में जरूरी संशोधन करना पड़ेगा। पर वह तो अलग तरह का मामला ही था। उसमें तो संसदीय दल के नेता पर ही रुपए लेकर एकमुश्त बिक जाने का आरोप लगा था। पर आज जो ताजा स्थिति पैदा हुई है,उसमें संसदीय दल का कोई नेता रुपए लेकर नहीं बिका। हांं, पद के लिए सौदा हुआ हो तो यह बात अलग है।यानी बड़े दलों के संसदीय दलों के नेताओं पर इस बात के लिए विश्वास किया जा सकता है कि वे पार्टी की लाइन पर ही सदन के भीतर मतदान करंेगे। नियम को इस तरह बदला जाना चाहिए ताकि विश्वास प्रस्ताव जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर सदन में हो रहे मत विभाजन के समय विभिन्न संसदीय दलों के नेताओं को अपने- अपने पूरे संसदीय दल की तरफ से सदन में एकमुश्त मतदान कर देने की सुविधा मिले। किस पार्टी के संसदीय दल में कौन -कौन और कितने सदस्य हैं ,यह सूचना सदन के सचिवालय के पास पहले से ही मौजूद रहती है। सदन सचिवालय के अफसर मत विभाजन के बाद दलीय सदस्य संख्या के आधार पर मतों की एकमुश्त गणना कर लें। हां, निर्दलीय सदस्यों को मत विभाजन में भाग लेने की सुविधा पहले जैसी रहेगी ही। हां, यदि किसी राजनीतिक दल का कोई्र सदस्य पार्टी ह्विप के खिलाफ जाकर सदन में मत देना चाहता है तो उसे मत देने की सुविधा जरूर मिले, पर उस सदस्य को ह्विप के उलंघन के कारण मिलने वाली ‘सजा’ को भी भुगतने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। यानी उसकी सदस्यता जा सकती है। पर अब तो यह भी कानूनी व्यवस्था करनी होगी कि सदस्यता भी जाए तथा अगले छह साल तक वह व्यक्ति चुनाव भी नहीं लड़ सके। शायद इस उपाय से संसद को घोड़ामंडी बनाने के आरोप से एक हद तक बचने का कोई तरीका मिल जाए।

हिन्दुस्तान में प्रकाशित

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