कोई पूछे कि आजादी के बाद बिहार की बदहाली का सबसे बड़ा कोई एक कारण कौन सा रहा है तो इसका सही जवाब यही होगा कि सरकारी भ्रष्टाचार ही इसका सबसे बड़ा कारण रहा है। राजनीति व शासन में भ्रष्टाचार को जारी रखने के लिए ही जातिवाद व अपराध का सहारा लिया जाता रहा है। यह मर्ज अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुका है कि आज भी मुख्य मंत्री नीतीश कुमार के सामने वही सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने खडा है । इससे निपटने में एक कत्र्तव्यनिष्ठ मुख्य मंत्री के भी पसीने छूट रहे हैं। आजादी के पहले भी महात्मा गांधी को भी बिहार की धरती पर यहां के कुछ भ्रष्ट कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ कुछ कड़ी बातें कहनी पड़ी थीं। याद रहे कि सन् 1937 में अन्य राज्यों की तरह यहां भी कांग्रेसी सरकार बनी थी। भ्रष्टाचार के इतिहास पर जरा गौर करें।आजादी से पहले ही 1946 में बिहार में भी कांग्रेस की अंतरिम सरकार बन गई थी।उस सरकार के राजस्व मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने 3 सितंबर 1946 को यह आदेश दिया कि बेतिया राज की जमीन सिर्फ उस गांव और अगल-बगल के गांवों के गरीब लोगों व किसानों के हाथों ही बंदोबस्त की जानी चाहिए जहां वह जमीन अवस्थित है,किसी दूसरे के हाथों नहीं।’पर, कुछ ही हफ्तों के बाद उसी बिहार सरकार ने राज्य के कई प्रभावशाली कांग्रेसी नेताओं के सगे-संबंधियों तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण हस्तियों के हाथों उन हजारों एकड़ जमीन को बंदोबस्त कर दिया। इस खुले भ्रष्टाचार पर पटना से दिल्ली तक भारी हंगामा हुआ।मामला तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल के पास पहुंचा। पटेल के निदेश पर राज्य सरकार को उस जमीन की वापसी के लिए बिहार विधान सभा में विधेयक लाना पड़ा। पर, जमीन की वापसी के लिए राज्य सरकार द्वारा आधे मन से लाए गए उस विधेयक पर हुई चर्चा के दौरान प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी सरदार हरिहर सिंह ने जो भाषण दिया,वह आगे राज्य सरकार के लिए एक तरह से अघोषित ‘दिशा निदेशक’ रहा।सरदार साहब की छवि एक ईमानदार नेता की रही है।बाद में वे बिहार के मुख्य मंत्री भी बने थे।पर उस विधेयक पर बहस के दौरान 25 मई 1950 को बिहार विधान सभा में सरदार साहब ने कहा कि ‘सन् 1857 में गदर में जिन लोगों ने सरकार की मदद की उन्हें काफी जमीन,जागीर और पेंशन वगैरह मिले।हमलोगों ने भी आजादी की लड़ाई में खून पसीना एक किया है,इसलिए हम लोगों को भी हक है कि हमलोग भी अपनी जीविका के लिए बंदोबस्ती लें।इसमें कोई गुनाह नहीं है।’यानी एक ईमानदार नेता का जब यह रूख था तो जो नेता व अफसर ईमानदार नहीं थे,उन लोगों ने बिहार सरकार में रह कर बाद के वर्षों में क्या-क्या किया होगा, इसका अनुमान कठिन नहीं है। आजादी के कई वर्षों बाद तक कई कांग्रेसी नेताओं पर गांधी युग की सादगी व ईमानदारी का थोड़ा -बहुत असर रहा।पर, कांग्रेस के सत्ता में लगातार रहने के बाद धीरे- धीरे ऐसे कांग्रसी नेताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ने लगी जिनकी यह राय बनी कि उन्हें राज्य की गरीब जनता के खुशहाल होने के पहले ही उन्हें खुद को सरकारी पैसों से अमीर बना लेना चाहिए।इस काम के लिए सरकारी -गैर सरकारी भ्रष्टाचारों का सहारा लिया जाने लगा। समय बीतने के साथ भ्रष्टाचार की मात्रा बढ़ती गई। हालांकि फिर भी सारे नेता भ्रष्ट ही नहीं थे। बाद के वर्षों में गैर कांग्रेसी सरकारों के सत्ताधारियों ने तो अपवादों को छोड़कर कांग्रेसियों की अपेक्षा कुछ अधिक ही भ्रष्टाचार किया।इस सरकारी भ्रष्टाचार का सीधा व प्रतिकूल असर राज्य के विकास पर पड़ा।विकास के पैसे जब लोगों की जेबों में चले जाएंगे तो राज्य का आम विकास होगा कैसे ? उदाहरण स्वरूप कुछ विकास योजनाओं की चर्चा की जा सकती है।आजादी के तत्काल बाद शुरू की गई कोसी और गंडक सिंचाई योजनाएं किसानों को भ्रष्टाचार के कारण वांछित लाभ नहीं दे सकीं। कोसी योजना के निर्माण कार्य में एक मशहूर कांग्रेसी परिवार लूट मचाता रहा तो गंडक योजना में दूसरा कांग्रेसी नेता।परिणामस्वरूप उत्तर बिहार की उपजाउ मिट्टी में सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं हो सकी और कृषि उपज के मामले में बिहार अन्य कई राज्यों की अपेक्षा पीछे रहा।किसानों की आय नहंीं बढ़ी तो उनकी क्रय शक्ति भी नहीं बढ़ी।क्रय शक्ति नहीं बढ़ने के कारण छोटे- बड़े उद्योगों का भी विकास राज्य में नहीं हो सका।इस तरह राज्य पिछड़ता ही चला गया। एक प्रकरण दिलचस्प है। आजादी के तत्काल बाद प्रांतीय विधान सभा के लिए चुनाव हो रहा था।सारण जिले में एक कांग्रेस विरोधी उम्मीदवार ने कुछ लोगों के शरीर पर छोआ लगा कर उन्हें चुनाव प्रचार में उतार दिया।इस तरह वह तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के छोआ घोटाले को उजागर कर रहा था।इस पर डा।राजेंद्र प्रसाद ने बड़े दुख के साथ 17 जनवरी 1949 को सरदार पटेल को चिट्ठी लिखी थी। याद रहे कि चीनी मिलों के गन्ने की गाद यानी छोआ से शराब बनाई जाती थी।राज्य सरकार ने छोआ की आपूत्र्ति नियंत्रित करने के लिए 1946 में बिहार मोलेसेज @संेट्रल@आर्डिनेंस जारी किया।तब डा.श्रीकृष्ण सिंहा के नेतृत्व में बिहार में अंतरिम सरकार बनी थी।नियम बना कि चीनी मिलें दस प्रतिशत छोआ खुद बेचेगी ओर 90 प्रतिशत छोआ की बिक्री के लिए राज्य सरकार का आबकारी महकमा परमिट जारी करेगा।आबकारी महकमे नें राज्य के बड़े बड़े कांग्रेसी नेताओं के रिश्तेदारों व उनके समर्थकों के नाम छोआ के परमिट जारी कर दिए और उन लोगों ने उसे कालाबाजार में बेच दिया।ये भ्रष्टाचार के कुछ प्रारंभिक लक्षण थे जो पालने में ही पूत के पांव की तरह नजर आने लगे थे।समय बीतने के साथ वे बढ़ते गए। जो सरकारी पैसे विकास व कल्याण में लगने चाहिए थे, उनमें से बड़ी राशि भ्रष्ट नेताओं ,अफसरों,दलालों व व्यापारियों की जेबों में जाने लगी। सन् 1967 में जब राज्य में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसने छह प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ, जो आजादी के बाद से लेकर 1966 तक सत्ता में रहे,न्यायिक जांच आयोग बैठाया।उन पर भ्रष्टाचार के आरोपेां की जांच के लिए आयोग बना था।आयोग ने कमोवेश सभी को दोषी ठहराया।पर बाद के वर्षों में प्रतिपक्षी नेताओं ने इन्हीं दोषी नेताओं से राजनीतिक समझौता करके 1970 में सरकार बना लीं । इसके बाद तो भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का मुख्य प्रतिपक्ष का नैतिक हक भी समाप्त हो गया।यह इस राज्य के साथ बहुत बुरा हुआ।फिर तो बाद के वर्षों में भ्रष्टाचार राजनीति की जीवन-पद्धति बन गई। और सदाचार अपवाद बन गया।भ्रष्ट लोगों को राजनीति से निकालना उतना ही कठिन हो गया जितना कंबल से रोएं को निकालना कठिन माना जाएगा।क्या कंबल से रोए को निकाला जा सकता है ?नहीं।इसलिए कि रोएं से ही कंबल बनता है।हालांकि फिर भी राजनीति में कुछ ईमानदार लोग बने रहे।आज भी हैं ।पर वे हाशिए पर ही हैं। साठ के दशक में तो मिली जुली सरकारों का जो दौर चला,उसमें विधायकों की खूब खरीद बिक्री हुई।हालांकि तब पैसे का खेल कम,पद का खेल अधिक होता था।सत्तर-अस्सी के दशकों में राजनीति में पैसे का खेल बढ़ गया।फिर भ्रष्ट नेता अपनी राजनीति की रक्षा के लिए जातिवाद व अपराधी तत्वों का सहारा लेने लगा।राज्य का विकास नेताओं के एजेंडा से बाहर हो गया।विकास व कल्याण कार्यों के नाम पर सरकार ने खूब पैसे खर्च किए,पर उनमें से अधिकांश भ्रष्ट तत्वों की जेबों में चले गए। अस्सी के दशक में खुद राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से जो 100 पैसे गांवों में भेजे जाते हैं उनमें से 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं।बिहार में कई मामलों में तो स्थिति यह थी कि वे पंद्रह पैसे भी लूट लिए जाते थे।हालांकि नब्बे का दशक आते आते स्थिति और भी उल्टी हो गई।जिस मद में कोई राशि आवंटित ही नहीं थी,उस मद के नाम पर भी सरकारी तिजोरी से पैसे निकाल लिए गए।पशु पालन घोटाला इसका जीता जागता उदाहरण था।एक वित्तीय वर्ष में राज्य सरकार के पशु पालन विभाग का बजट 75 करोड़ रुपए का था।पर उसी साल सवा दो सौ करोड़ रुपए उस विभाग में दवाओं और चारा के नाम पर निकाल लिए गए। अपने ढंग का इतना बड़ा और एक ऐसा अनोखा भ्रष्टाचार है कि इसे देख समझ कर अदालत भी इन दिनों हैरान हो रही है।संभवतः इसीलिए सभी मुकदमों में अधिकतर आरोपितों को लोअर कोर्ट से सजा मिलती जा रही है।यानी, ऐसे ‘शैतानी’ व ‘नटवर लाली’ दिमाग वाले भ्रष्ट लोगों से बिहार का पाला पड़ा।वे न सिर्फ पशु पालन विभाग के मुर्गों की खुराक तक खा गए बल्कि अन्य विभागों में अंडे खाने के बदले मुगिर्योंं का ही जिबह कर दिया। एक बार किसी ने किसी से पूछा था कि अन्य प्रदेशों के भ्रष्टाचार से बिहार के सरकारी भ्रष्टाचार का फर्क किस तरह का है ?जवाब मिला कि अन्य प्रदेशों के भ्रष्ट लोग अपने यहां मुर्गी के अंडे खाते हैं,पर मुर्गी को ही मार कर नहीं खाते।पर बिहार में मुर्गी को ही मार कर खा जाते हैं।उदाहरणस्वरूप कहीं यदि कोई सड़क बन रही है तो संबंधित नेता,ठेकेदार,इंजीनियर और अफसर इतना अधिक मात्रा में रिश्वत व कमीशन ले लेता है कि बचे हुए पैसे से कोई टिकाउ निर्माण हो ही नहीं सकता।माना कि किसी को वित्तीय निगम से कर्ज लेकर कोई उद्योग खड़ा करना है।कर्ज की मंजूरी के दौरान ही संबंधित सरकारी भ्रष्ट तत्व उन उद्यमियों से इतना अधिक रिश्वत ले लेगा कि बचे हुए पैसे से वह उद्यमी ऐसा कोई उद्योग खड़ा ही नहीं कर सकता कि वह मुनाफा देने लायक बन सके।नतीजतन वह उद्यमी भी बचे हुए पैसे को अपनी आय समझ कर खा पी जाता है। हालांकि हर मामले में ऐसा नहीं होता, पर अनेक मामले में ऐसा होता हंै। ऐसी स्थिति मेंं कैसे बढ़ेगा बिहार में उद्योग धंधा ? बाद के वर्षों में तो बिहार के ‘अपहरण व रंगदारी उद्योग’ ने विकास पर विराम ही लगा दिया।हां,कुछ खास तरह के लेागों का खूब निजी विकास हुआ।भ्रष्टाचार के पैसों से सार्वजनिक निर्माण तो नहीं हुआ, पर खास तरह के लेागेां के पूरे बिहार में बड़े बड़े महल जरूर बने।भ्रष्टाचार की समर्थक शक्तियां सत्तर के दशक से ही इतनी मजबूत हो गई थी कि सन् 1973 के नवंबर महीने में कोसी सिंचाई योजना में लूट के खिलाफ जब सहरसा के वीर पुर में एक सर्वदलीय सभा हो रही थी तो भ्रष्ट नेताओं व ठेकेदारों के गुंडों ने वहां भाषण करने गए दो पूर्व मुख्य मंत्रियों तक को पीट डाला। बाद के वर्षों में तो भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर निकलना भी राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के लिए कठिन हो गया।तो उन लोगों ने अदालत की शरण ली।पटना हाई कोर्ट ने सी.बी.आई.जांच का आदेश नहीं दिया होता तो 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाले का मामला भी दब जाता जिस तरह बिहार के न जाने और कितने घोटाले दबा दिए गए।याद रहे कि घोटाले दबाने के लिए भी कई घोटाले किए बिहार के कुछ बड़े बड़े घोटालेबाजों ने।आज यदि पटना के पास स्थित गंगा ब्रिज अपने निर्माण के बीस साल के भीतर ही जर्जर हो चुका है तो इसके पीछे भी भारी सरकारी भ्रष्टाचार रहा है।कैसे कोई राज्य विकास करेगा ? चारा घोटाले में दो आई.ए.एस.अफसरों को कोर्ट सजा सुना चुका है।अन्य कई आई.ए.एस. अफसरों के खिलाफ सुनवाई चल ही रही है।उधर पुलिस बर्दी घोटाले में भी कई आई.पी.एस.अफसरों के खिलाफ मुकदमा चल रहा है।चारा घोटाले में दो पूर्व मुख्य मंत्री अभियुक्त हैं और वे इस केस में कई बार विचाराधीन कैदी के रूप में जेल जा चुके हैं।यह शर्मनाक बात है कि एक खास अवधि में राज्य में जितने पशुपालन मंत्री रहे वे सब बारी बारी से जेल गए और बिहार के चर्चित चारा घोटाले में अभियुक्त बने।यानी जिस राज्य में इतनी बड़ी बड़ी हस्तियांे पर जब भ्रष्टाचार के ऐसे गंभीर आरोप लगते हों,उस राज्य का विकास व जन कल्याण भला कैसे संभव है !वह राज्य तो पिछड़ा रहेगा ही।राज्य का विकास तो तभी होगा जब विकास व कल्याण के लिए आबंटित सरकारी धन में से अधिकांश राशि सही काम में खर्च हो। भ्रष्टाचार ने बिहार सरकार में कितनी गहरी जड़ें जमा ली हैं, इसका सही अनुमान मुख्य मंत्री नीतीश कुमार को इन दिनों मिल रहा है।वे चाहते हैं कि सरकारी धन ईमानदारी से विकास व कल्याण के कार्यों में लगे।पर उनकी ही सरकार के अनेक मंत्री व बड़े अफसर अपने भ्रष्टाचार के कारण मुख्य मंत्री के उद्देश्यों को पूरा नहीं होने दे रहे हैं। अधिकतर मंत्रियों के खिलाफ तरह तरह की शिकायतों के बाद मुख्य मंत्री ने अपने सभी मंत्रियों के विभाग कुछ माह पहले बदल दिए।पर इसका भी मनचाहा असर नहीं पड़ रहा है।भ्रष्टाचार के आरोप में कई आई.ए.एस.और आई.पी.एस.अफसरों को भी नीतीश कुमार की सरकार की निगरानी शाखा ने गिरफ्तार किया है।फिर भी दूसरे अनेक अफसर भ्रष्टाचार मंे ंलिप्त हैं।इन दिनों बिहार में भारी खर्चे से विकास व निर्माण कार्यों की धूम मची हुई हे।पर कार्यों की गुणवत्ता पर आए दिन सवाल उठ रहे हैं ।भ्रष्टाचार में सरकारी धन को जाने से जब तक निर्ममतापूर्वक रोका नहीं जाएगा तब तक बीमारू प्रदेश बिहार को एक विकसित राज्य बनाना कठिन ही रहेगा।बिहार की यही सबसे बड़ी समस्या है।
पब्लिक एजेंडा (एक अगस्त, 2008)
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