रविवार, 1 फ़रवरी 2009

हमलावरों ने सदा उठाया हमारे मतभेदों का लाभ

‘मुसलमानों के आने से ठीक पहले पंजाब से दक्षिण तक और बंगाल से अरब सागर तक करीब -करीब सारा देश अलग -अलग राजपूत सरदारों के शासन में आ गया। किंतु कोई प्रधान केंद्रीय शक्ति इन सब छोेटी -बड़ी रियासतों को एक सूत्र में बांधने वाली न थी। आए दिन इन तमाम रियासतों के बीच अपना- अपना राज बढ़ाने के लिए एक दूसरे से संग्राम होते रहते थे।देश की राजनैतिक और राष्ट्रीय एकता स्वप्न मात्र थी।’ ये बातें सुंदर लाल ने अपनी इतिहास प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत में अंग्रेजी राज’ में लिखी है। पहली बार 1929 में प्रकाशित इस पुस्तक पर अंग्रेज शासक ने प्रतिबंध लगा दिया था।इस प्रतिबंध का विरोध करते हुए महात्मा गांधी ने लोगों को सलाह दी थी कि वे कानून तोड़ कर इस पुस्तक के अंश को छापें और इसका वितरण करें। सुंदर लाल ने अंग्रेजी राज के विवरण से पहले यहां इस्लाम और मुस्लिम हमलावरों का विवरण किया है और उनके अच्छे -बुरे पहलुओं का व्योरा दिया है।आज के भारत में जिस तरह राष्ट्रीय मसलों पर भी यहां तक कि इस देश के खिलाफ जारी छद्म युद्ध पर भी यहां के विभिन्न नेताओं व शासकों में जिस तरह अनेकता दिखाई पड़ रही है,उसी तरह के हालात का विवरण भी सुंदरलाल की पुस्तक में है। सुंदर लाल लिखते हैं, ‘सिंध पर मोहम्मद बिन कासिम के हमले के तीन सौ साल बाद महमूद गजनवी के हमलों का समय आया।गजनवी ने यहां आकर कुछ नगरों को बर्बाद किया। कुछ हिंदू नरेशों के साथ सुलह करके उन्हें सुरक्षा प्रदान की,कुछ मंदिरों को लूटा और कहा जाता है कि सोम नाथ पर हमला करके वहां की मूत्र्ति को तोड़ा और लूट का बहुत सा माल लेकर वापस गजनी की राह ली। सोम नाथ पर गजनवी के हमले की सच्चाई के बारे में प्रामाणिक इतिहासज्ञों में जबर्दस्त मतभेद है। इसमें संदेह नहीं कि महमूद की सेना में हजारों सिपाही हिंदू थे। उसका एक प्रसिद्ध सेनापति हिंदू था जिसका नाम तिलक था।’ मोहम्मद गोरी के हमले के बारे में सुंदर लाल ने लिखा है कि ‘ मोहम्मद गोरी के भारत आने के समय भारत की राजनैतिक अव्यवस्था और बढ़ चुकी थी। तेरहवीं सदी तक सारे उत्तर भारत पर मुसलमानों का शासन जम गया। राजपूत नरेशों ने जगह -जगह अलग -अलग खासी वीरता के साथ उनका मुकाबला किया। किंतु उनमें किसी तरह की एकता या नीतिज्ञता बाकी न रह गई थी।इसके बाद धीरे- धीरे सौ साल के अंदर मैसूर तक अधिकांश भारत पर मुसलमानों की हुकूमत कायम हो गई।’ अंग्रेजों ने भारत को कैसे जीता, इसका विवरण प्रसिद्ध ब्रिटिश इतिहासकार सर जे।आर।सिली ने अपनी पुस्तक ‘एक्सपैंसन आॅफ इंगलैंड’ में लिखा है । सिली के अनुसार, ‘भारत को विदेशियों द्धारा जीता हुआ शायद ही कहा जा सकता है। यह कहना अधिक संगत है कि खुद भारतीयों ने ही भारत को (हमारे लिए) जीता। 1757 से 1857 तक के सौ वर्ष लम्बेे समय में इस्ट इंडिया कंपनी की सेना में 16 प्रतिशत से अधिक अंग्रेज सिपाही कभी नहीं रहे।’ ‘केंद्रीय मुगल सत्ता का बिखराव के कारण भी ब्रिटिश सत्ता यहां जम गई। स्थानीय सामंत आपस में लड़ रहे थे। जनता अपने शासकों से जातीय, भाषागत और धार्मिक विद्वेष के कारण पूर्णतः अलगाव महसूस कर रही थी।’सर सिली की पुस्तक का हिंदी अनुवाद करवा कर चैधरी चरण सिंह ने यहां बंटवाया था। इसे बंटवाने का पूर्व प्रधान मंत्री लक्ष्य यह था कि भारतीय समाज में देशभक्ति का उदय हो,भारत की स्वाधीनता के प्रति उनका लगाव बढ़े और देश की एकता के लिए लोग इतिहास से प्रेरणा लें।वे कहते थे कि ‘सिकंदर से लेकर महमूद गजनवी तक और बाबर से लेकर राबर्ट क्लाइव तक भारत की हार के कारण स्पष्ट रूप से समान थे।’ आज भी आतंकवाद के रूप में भारत के खिलाफ जारी छद्म विदेशी युद्ध और उस पर भारत के विभिन्न नेताओं की परस्परविरोधी प्रतिक्रियाओं को देखते हुए मध्य युग की ही याद आती है । सन् 1985 में चैधरी चरण सिंह ने सिली की अनुदित पुस्तक बंटवाई थी।उस समय उस पुस्तक की भूमिका में चैधरी साहब ने जो कुछ लिखा था, उसे एक बार फिर से पढ़ लेना मौजूं रहेगा। वे लिखते हैं, ‘ आज भी एक नहीं बल्कि अनेक प्रकार की वे समान परिस्थितियां हमारे देश में मौजूद हैं जिनके कारण हमारा देश विदेशी सत्ता के सामने पराधीन हो गया था।आज की परिस्थितियों में केंद्रीय सत्ता देश को सुशासित तथा नियंत्रित करने की दिशा में उदासीन है अथवा अयोग्य है।इसलिए देश में एक कोने से दूसरे कोने तक तोड़फोड़ करने वाली अथवा विभाजित करने वाली प्रवृतियां उभर रही हैं। विदेशी शक्तियां इन परिस्थितियों से लाभ उठाने की प्रतीक्षा में ंबैठी हैं। देश की एकता, समृद्धि और प्रगति की ओर से उदासीन होकर नेतागण अपने अस्तित्व की रक्षा में संलग्न हैं।’
प्रभात खबर (28 नवंबर, 2008)

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