रविवार, 1 फ़रवरी 2009

आपराधिक न्याय व्यवस्था कैसी ?

इस देश में हत्या कांडों के सौ में से 95 आरोपित, साक्ष्य के अभाव में अदालतों से अंततः सजामुक्त हो जाते हैं। बलात्कार कांडों के आरोपित लोगों में से 75 प्रतिशत आरोपित कोर्ट से छूट जाते हैं। साक्ष्य जुटाने की मुख्य जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष की होती है।उसकी आज इस देश में कैसी स्थिति है,यह सबको मालूम है। दरअसल पुलिस महकमे में भीषण भ्रष्टाचार, राजनीतिक दबाव और पेशेवर अकुशलता के कारण ऐसा होता है। आए दिन सुप्रीम कोर्ट अभियोजन पक्ष को इस बात के लिए फटकार लगाता रहता है कि उसने केस का अनुसंधान ठीक ढंग से नहीं किया। अब सवाल है कि हत्याकांडों के जो 95 प्रतिशत आरोपित जब कोर्ट से छूट जाते हैं तो उनमें से कितने लोग मीडिया के सामने आकर यह आरोप लगाते हैं कि उन्हें जानबूझ कर इसलिए फंसा दिया गया था क्योंकि वे किसी खास जाति या धर्म के हैं ?पर आतंकवादी घटनाओं के अधिकतर आरोपी और उनके तरह- तरह के संरक्षक गण यही आरोप लगाते हैं।ऐसा क्यों होता है ? इसका जवाब भी अनेक लेागों को मालूम है।

किधर रहेंगे पासवान जी
राम विलास पासवान की पार्टी लोजपा अगले लोक सभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ेगी या राजद के साथ रहेगी ? सन् 2004 के लोक सभा चुनाव में पासवान जी ने लालू प्रसाद और कांग्रेस से चुनावी तालमेल किया था और उसका लाभ भी सभी पक्षों को मिला था। पर बाद के वर्षों में पासवान जी का लालू जी से मधुर संबंध नहीं रहा। अब जबकि चुनाव सिर पर है, इस बात को लेकर एक बार फिर अटकलों का बाजार गर्म है।राजद चाहता है कि बिहार में यूपीए साथ मिल कर चुनाव लड़े। पर इसी शनिवार को पासवान जी का दिल्ली से यह बयान आ गया कि उनकी पार्टी बिहार की सभी 40 लोक सभा सीटों के लिए उम्मीदवार तलाशने के काम में जुट गई है। इससे पहले लोजपा के उपाध्यक्ष प्रो रंजन प्रसाद यादव ने इन पंक्तियों के लेखक से बातचीत में इन अटकलों का खंडन किया था कि राजद से लोजपा का चुनावी तालमेल होने जा रहा है। उलटे उन्होंने सवाल किया था, क्या ऐसा राम विलास जी का कोई बयान आपने कभी सुना या पढ़ा है ? राम विलास पासवान के ताजा बयान से लगा कि रंजन यादव की बात सही है। पर राजनीति में कौन आज क्या बोल रहा है और वही व्यक्ति कल क्या बोलेगा, इसका कोई ठिकाना नहीं है। पर एक बात पक्की है कि भले नीतीश कुमार की सरकार के विकास का डंका बिहार में बज रहा है, फिर भी राम विलास पासवान चुनाव में एक फैक्टर तो बने ही रहेंगे। यह और बात है कि इसको लेकर अनुमान जरूर लगाया जा सकता है कि वे कितने बड़े या छोटे फैक्टर बनेंगे।

पहले केंद्र सुस्त, अब बिहार
पटना में जेपीएन एम्स के निर्माण के काम में पहले केंद्र सरकार ने सुस्ती दिखाई थी। अब बिहार सरकार की काहिली विकास विरोधी साबित हो रही है। अब भी बिहार के हजारों मरीज दिल्ली एम्स की शरण में जाने को बाध्य हैं। सन् 2004 की जनवरी में पटना में जेपी की स्मृति में एम्स की तरह के एक अच्छे अस्पताल की आधारशिला रखी गई थी। पर बाद में केंद्र में यूपीए की सरकार बन गई तो उसने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। पर पटना हाई कोर्ट में वकील एमपी गुप्त की लोकहित याचिका ने कमाल किया। काम शुरू करने को केंद्र सरकार को अदालत ने बाध्य कर दिया। पर कुछ आधारभूत संरचनाएं तैयार करने का काम तो बिहार सरकार को करना है। पर बिहार सरकार की गति इस मामले में कछुए की है। इसलिए एम्स के निर्माण में अनावश्यक देरी हो रही है।

और अंत में
एक पार्टी सुप्रीमो के बारे में उनके कुछ कार्यकर्ताओं की यह शिकायत है कि वे तो देख कर मुस्कराते भी नहीं हैं। हाल में एक महिला अधिकारी ने अपने एक अधीनस्थ को देखकर मुस्करा क्या दिया कि उसे मोबाइल पर प्रेम संदेश आ गया। क्या पार्टी सुप्रीमो को भी यही भय है कि जहां मुस्कराए कि सामने वाले की तरफ से किसी अफसर की ट्रांसफर-पोस्टिंग की पैरवी न आ जाए ?
प्रभात खबर (12 जनवरी, 2009)

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