विकास यात्रा बनाम पद यात्रा
नीतीश कुमार गांवों की विकास यात्राएं कर रहे हैं। इसके जवाब में लालू प्रसाद जन संपर्क के लिए पद यात्रा करने जा रहे हैं। क्या सिर्फ विकास यात्रा और जन संपर्क पद यात्रा से वोट मिलते हैं ? ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार को सिर्फ विकास यात्रा से वोट मिल जाएंगे और लालू प्रसाद को पद यात्रा से। दरअसल अब तो संकेत यह है कि काम पर वोट मिलेंगे।मतदाताओं ने पिछले वर्षों में बहुत कुछ सीखा है। बिहार के पिछले कुछ चुनाव नतीजों को देखने से यह लगता है कि अब भावनाओं पर वोट पाने का समय बीत चुका है।अब लोगों को विकास चाहिए। विकास होने भी लगे हैं। शुरूआत नीतीश कुमार की सरकार ने सन् 2005 में ही कर दी । अब लालू प्रसाद भी रेलवे के जरिए बिहार में विकास करवा रहे हैं।नीतीश कुमार ने सिर्फ विकास यात्राएं शुरू की होतीं और कोई विकास नहीं किया होता तो उन्हें इस यात्रा का कोई लाभ नहीं मिलता। पर विकास कार्य तो बिहार सरकार राज्य भर में करवा रही है। उन विकास कार्यों का लेखा- जोखा लेने नीतीश कुमार गांवों में जा रहे हैं।उन विकास कार्यों में कुछ प्रेत बाधाएं जरूर लगी हुई हैं। उन प्रेत बाधाओं में सबसे बड़ी बाधा सरकारी भ्रष्टाचार है।यह बात गांवों में आम लोगों ने मुख्य मंत्री को बताई है।उन बाधाओं को दूर करने के उपाय करने का मुख्य मंत्री आश्वासन दे रहे हैं।वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह सब प्रतिपक्षी दलों का दुष्प्रचार है।दूसरी ओर लालू प्रसाद ने बिहार में रेलवे की कई योजनाएं शुरू कराई हैं। इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। हालांकि जब उनका बिहार में राजपाट था, तब तो वे कहा करते थे कि विकास का राजनीति से कोई आपस में रिश्ता ही नहीं है। देर आए, दुरूस्त आए। अच्छा होगा, वे पद यात्राएं उन्हीं इलाकों में करें जहां उन्होंने रेलवे योजनाओं का शिलान्यास किया है। उन निर्माण योजनाओं पर यदि वे काम तेज करा सकें तो बिहार की जनता उनका शुक्रगुजार रहेगी। साथ ही, आम जनता को भी तुलना करने में सुविधा होगी कि नीतीश सरकार का विकास कार्य अधिक प्रभावकारी और प्रामाणिक है या फिर लालू जी का। फिर तो वोट का फैसला हो ही जाएगा।ऐसा नहीं है कि विकास पर वोट नहीं मिलते।
पद्म पुरस्कार व दशरथ मांझी
जो पुरस्कार दशरथ मांझी को नहीं मिल सकता,उस पुरस्कार को इस गरीब देश में बने रहने का क्या औचित्य है ? अच्छा किया था कि मोरारजी देसाई की सरकार ने 1977 में उन पद्म पुरस्कारों की व्यवस्था ही समाप्त कर दी थी। पर, उसे फिर 1980 में शुरू कर दिया गया। बिहार सरकार ने दशरथ मांझी को पद्म पुरस्कार देने की तीन बार भारत सरकार से सिफरिश की। पर, ऐसे-वैसे और न जाने कैसे -कैसे लोगों को भी हर साल पद्म पुरस्कार मिलते रहते हैं,पर दशरथ मांझी को इस बार भी नहीं मिला।मिल जाता तो परलोक में उनकी आत्मा को शांति मिलती। कर्मयोगी दशरथ मांझी ने गया जिले की गहलोर घाटी की पहाड़ी को अकेले बल पर 22 वर्षों में काट कर लंबा रास्ता बना दिया था। अब वहां के लेागों को एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए मीलों तक लंबी घुमाववार दूरी तय नहीं करनी पड़ती।उन्होंने 350 फीट लंबी, 16 फीट चैड़ी और 25 फीट उंची यानी एक लाख 40 हजार घन फीट पहाड़ को अकेले काट डाला था। किसी अन्य देश में होते तो मांझी को संभवतः वहां का सबसे बड़ा पुरस्कार मिलता। पर यहां के किसी योग्य पुरस्कार के बिना ही वे गत 17 अगस्त 2007 को 80 साल की आयु में गुजर गए।
पद्म पुरस्कारों का हाल
अक्सर यह आरोप लगता रहता है कि इस देश में पद्म पुरस्कार कई मामलों में वोट बैंक, समुदाय-जाति बल, धन बल और जुगाड़ टैक्नोलाॅजी के आधार पर मिलता है। हालांकि अनेक मामलों में प्रतिभा का भी कद्र किया जाता है। फिर तो वह दशरथ मांझी को कैसे मिल सकता था। अनेक लोगों ने इन पुरस्कारों को लेने से समय समय पर मना कर दिया था क्योंकि उनके अनुसार इसे तय करने का कोई पारदर्शी आधार नहीं है। देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद ने तो ंभारत रत्न’ जैसे बड़े सम्मान को भी ठुकरा दिया था। उन्होंने कहा था कि जो सरकार, भारत रत्न से सम्मानित करने के लिए व्यक्तियों का चुनाव करती है,उसी सरकार में शामिल व्यक्तियों को खुद ही यह सम्मान नहीं ले लेना चाहिए। याद रहे कि कई अन्य लोगों के साथ- साथ 1954 में तत्कालीन उप राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन, 1955 में जवाहर लाल नेहरू 1957 में गोविंद बल्लभ पंत और 1962 में डा. राजेंद्र प्रसाद को भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। मौलाना आजाद को तो उनके निधन के बहुत बाद यानी सन् 1992 में भारत रत्न मिला। याद रहे कि सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह को इस सम्मान के लायक नहीं समझा गया। सरदार बल्लभ भाई पटेल व जय प्रकाश नारायण को भी यह सम्मान 1990 के बाद ही दिया गया जबकि तमिलनाडु के फिल्मी अभिनेता-सह -मुख्य मंत्री ं एम.जी.रामचंद्रन को 1988 में ही ‘भारत रत्न’ से सम्मानित कर दिया गया था। पद्म पुरस्कारों के बारे में खुशवंत सिंह और कांग्रेसी सांसद राजीव शुक्ल की राय गौर करने लायक है। गत साल 26 जनवरी को अपने नियमित काॅलम में खुशवंत सिंह ने लिखा था कि ‘अभी तक हमारी सरकारें लोगों को सम्मानित करने के लिए चुनाव करती हैं। नेताओं, वैज्ञानिकों, समाज सेवकों , साहित्यकारों ,संगीतकारों कलाकारों और पत्रकारों को पुरस्कारों के लिए चुना जाता है। हर साल होने वाले इन चुनावों में किस बात का ध्यान दिया जाता है, यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया।’ इस बात को समझाया खुद राजीव शुक्ल ने। 26 जनवरी 2008 को दैनिक जागरण में प्रकाशित अपने लेख में शुक्ल ने लिखा कि ‘दिल्ली में लाॅबिंग करके कुछ लोग पहले भी पद्मश्री और पद्म भूषण पुरस्कार ले चुके हैं। मुझे लगता है कि प्रधान मंत्री को हस्तक्षेप करके इन पुरस्कारों की चयन समिति के सदस्यों के नाम तय करने चाहिए।’ इस बार कई अच्छे लोगेां को भी पुरस्कार मिले हैं। पर कुछ नाम ऐसे भी हैं जिन्हें देख कर लगता है कि प्रधान मंत्री ने राजीव शुक्ल की गत साल वाली सलाह नहीं मानी।
ऐसे ठुकराया पुरस्कार
सितारा देवी को जब 2002 में पद्म भूषण आॅफर किया गया तो उन्होंने यह कह कर उसे ठुकरा दिया कि मुझसे जूनियर और अल्पज्ञात लोगों को पहले ही पद्म विभूषण मिल चुका है। मुझे पद्म भूषण देना मेरा अपमान है। उस्ताद विलायत खान ने 1964 में पद्मश्री और 1968 में पद्म विभूषण यह कह कर ठुकरा दिया कि चयन समिति में संगीत की गुणवत्ता के बारे में फैसला करने की योग्यता रखने वाले सदस्य नहंी थे। मलयालम लेखक सुकुमार अजिकोड ने पद्मश्री ठुकराते हुए कहा कि ऐसा पुरस्कार देना संविधान विरोधी काम है। पत्रकार निखिल चक्रवर्ती ने 1990 में यह कहते हुए ठुकराया कि पत्रकार को प्रतिष्ठान से खुद को नहीं जोड़ना चाहिए। पुरस्कारों के बारे में एक बात जरूर कही जा सकती है कि तुलसी दास ने किस पुरस्कार के लिए राम चरित मानस की रचना की थी ? आज इतने अधिक पुरस्कार मौजूद हैं, फिर भी कोई कालजयी रचना सामने नहीं आ रही है।
तापमान (फरवरी, 2009)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें