मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कल कहा कि ‘हम रहेंगे या भ्रष्टाचार ।’ अपनी ही सरकार के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ नीतीश कुमार की जारी जंग को देख कर सन् 1969 की इंदिरा गांधी और 1990 के लालू यादव की जंगों की याद आती है। इन नेताओं ने भी तब अलग- अलग तरह से जंग की थी। यह और बात है कि दोनों नेताओं को अपनी जंग में आंशिक सफलता ही मिली थी। अब देखना है कि नीतीश कुमार को अपनी मौजूदा जंग में पूरी सफलता मिलती या नहीं ! पर मौजूदा जंग की पूर्ण सफलता के लिए यह जरूरी है कि पुरानी जंगों की गलतियों से शिक्षा ली जाए। सन् 1990 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जंग आरक्षण विरोधियों के खिलाफ थी। वीपी सिंह की सरकार ने केंद्रीय सेवाओं में पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की तो आतुर आरक्षण विरोधी सड़कों पर आ गए। आरक्षण एक संवैधानिक व्यवस्था है जिसका विरोध अदूरदर्शितापूर्ण कदम रहा है। इसी विरोध और प्रति-विरोध की जंग में लालू प्रसाद बिहार की राजनीति के महाबली हो गए थे।यह और बात है कि इस जंग से मिली राजनीतिक ताकत का उन्होंने सदुपयोग नहीं किया। पर एक बात जरूर हो गई कि योग्यता के बावजूद अब बिहार में किसी सवर्ण के मुख्य मंत्री बनने की फिलहाल कोई संभावना नहीं नजर आ रही है। यानी अपनी अदूरर्शिता के कारण सवर्णों के बीच के आरक्षण विरोधियों ने खुद सवर्ण नेताओं का ही नुकसान कर दिया। उन दिनों जब आरक्षण विरोधी और आरक्षणपक्षी लोग आपस में जहां तहां भिड़ रहे थे तो बिहार विधान सभा के प्रेस रूम में बैठकर यदा कदा मैं कहा करता था कि यदि ‘सवर्ण लोग गज नहीं फाड़ेंगे तो उन्हें एक दिन थान हारना पड़ेगा। ’कांग्रेस के पूर्व विधायक हरखू झा मेरी इस टिप्पणी के गवाह हैं। पर कई लोग इसे मेरा लालू समर्थन मानते थे। ठीक उसी तरह कई लोग आज नीतीश सरकार के विकास कार्यों को लेकर मेरी तरफ से कभी कभी हो रही तारीफ को एक व्यक्ति का नाहक गुणगान मानते हैं। आज के हालात की तुलना इंदिरा गांधी के कार्यकाल और लालू प्रसाद के कार्यकाल की से जा सकती है। तब आम लोगों को लगा था कि इंदिरा जी उनके भले के लिए निहितस्वार्थियों से लड़ रही हैं। सन् 1990 में पिछड़ों को लगा था कि लालू प्रसाद उनके लिए लड़ रहे हैं। याद रहे कि पिछड़ों की आबादी आरक्षण विरोधियों की अपेक्षा काफी अधिक है। इसी तरह गरीबों की आबादी इस देश में काफी अधिक है। परिणामस्वरूप 1971 के लोक सभा चुनाव में इंदिरा गांधी की जीत हुई और सन् 1991 के चुनाव में लालू प्रसाद की भारी विजय हुई। अब उसी तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ जब नीतीश कुमार मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठ कर लड़ रहे हैं तो उन्हें भी इसका लाभ जन समर्थन के रूप में मिलेगा ही। क्योंकि देश -प्रदेश की बहुमत आबादी किसिम -किसिम के भ्रष्टाचारों से इन दिनों काफी पीडि़त है। सन् 1969 में कांग्रेस के महा विभाजन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और पूर्व राजाओं को हासिल प्रीवी पर्स समाप्त कर दिए। गरीब लोगों को लगा कि इंदिरा गांधी सचमुच गरीबी हटाना चाहती हैं। इंदिरा गांधी ने उन दिनों बार बार यह बयान दिया कि ‘इंदिरा गांधी चाहती है गरीबी हटाना और प्रतिपक्ष चाहता है इंदिरा गांधी हटाना।’ इस नारे का काफी असर हुआ।हालांकि तब मैं एक लोहियावादी समाजवादी कार्यकर्ता था, फिर भी मैं भी इंदिरा गांधी के इस लुभावने नारे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। तब मैं सुरेंद्र अकेला के नाम से प्रतिष्ठित साप्ताहिक ‘दिनमान’ तथा अन्य कई पत्र-पत्रिकाओं में चिट्ठयां तथा लेख लिखा करता था। दिनमान में छपा एक पत्र भी किसी लेख से कम असरदार नहीं होता था। तब मैंने इंदिरा जी के गरीबपक्षी कदमों की तारीफ में दिनमान में पत्र लिखा, जो छपा। उन्हीं दिनों मैं दिल्ली गया हुआ था। पत्रिका ‘जन’ और मेनकाइंड के दफ्तर में मुझे ओम प्रकाश दीपक, विनय कुमार तथा कुछ अन्य समाजवादी बुद्धिजीवी मिले। उन्होंने देखते ही मुझे झाड़ लगानी शुरू कर दी। ‘अकेला, तुम कैसे इंदिरा के झूठ के प्रभाव में आ गए ? यह सब जनता को धोखा देने का उनका एक तरीका मात्र है।’ उनकी वरीयता और विद्वता को देखते हुए मैं चुप रह गया। पर मैं तब उनकी बातों से तनिक भी प्रभावित नहीं हुआ था। पर बाद के वर्षों में मुझे लगा कि वे कितना सही थे और मैं कितना गलत। इंदिरा जी ने सन् 1971 में लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल कर लेने के बाद आम लोगों की गरीबी हटाने के बदले अपने पुत्र की अमीरी बढ़ाने के लिए सरकारी साधन झोंक दिए। यानी मारुति कार कारखाना खोलवा कर वे अपने परिवार को इंडिया का फोर्ड बनाने की कोशिश में लग गईं। इंदिरा जी के शासनकाल में भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप जरूर मिल गया। इसका प्रमाण बाद में खुद उनके पुत्र राजीव गांधी ने दिया। सन् 1984 में प्रधान मंत्री बनने के बाद राजीव गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि दिल्ली से एक रुपया चलता है, पर जनता तक उसमें से मात्र 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। बाकी पैसे बिचैलिए खा जाते हैं। ऐसी व्यवस्था किसने तैयार की ? समय के साथ देश व प्रदेश में भ्रष्टाचार बढ़ता गया। उसी के खिलाफ नीतीश कुमार इन दिनों जंग कर रहे हैं। पता नहीं, इस जंग में वे सफल होंगे या नहीं। पर, यदि सफल होते हैं, तो उससे उन्हें इंदिरा गांधी और लालू प्रसाद की तरह ही राजनीतिक ताकत मिलेगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि यदि ताकत मिली, तो नीतीश कुुमार उस ताकत को इंदिरा गंाधी और लालू प्रसाद की तरह जाया नहीं करेंगे।
(6 फरवरी, 2009)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें