रविवार, 1 फ़रवरी 2009

राजनीति नहीं, जन-धन की चिंता

इस देश के कई बड़े उद्योगपति इन दिनों नरेंद्र मोदी के इतने बड़े प्रशंसक कैसे हो गये, जबकि व्यापारीगण आम तौर पर उस नेता की तरफ अधिक मुखातिब होते हैं, जिसकी सरकार केंद्र में होती है। यदि इस देश के कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण व्यापारी नरेंद्र मोदी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं, तो वे लोग एक साथ दो -दो खतरे मोल ले रहे हैं। इस तरह वे ‘प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग’ को भी मन-ही-मन नाराज कर रहे हैं। साथ ही केंद्र सरकार की नाराजगी मोल लेने का खतरा भी उठा रहे है, पर इतना बड़ा खतरा व्यापारी ऐसे ही मोल नहीं ले रहे हैं। दरअसल देश में आये दिन घट रही आतंकी घटनाओं के कारण व्यापारियों की खुद के जान -माल पर भी भारी खतरा उत्पन्न हो चुका है। मुंबई में हुए हाल के आतंकी हमले के बाद व्यापारी यह महसूस कर रहे हैं कि उनकी रक्षा वही कर सकता है, जिसके पास आतंकवाद से दो टूक लड़ाई लड़ने का नरेंद्र मोदी जैसा साहस हो। जब जान-माल की रक्षा होगी, तभी तो व्यापार व उद्योग भी रहेगा ! यह अकारण नहीं है कि मुंबई में ताज पर हमले से हुई व्यापक जन-धन की क्षति के बाद रतन टाटा ने मीडिया से कहा था कि मजबूत नेतृत्व और कारगर कानून के जरिये ही आतंकवाद से लड़ा जा सकता है। कांग्रेस की केंद्र सरकार को चाहिए कि नरेंद्र मोदी को लेकर व्यापारियों कीे ताजा टिप्पणियों पर नाराज होने के बदले आतंकवाद के खिलाफ अपनी दो टूक लड़ाई को और तेज करे। इधर केंद्र सरकार के रूख में सकरात्मक बदलाव जरूर आया है, पर वह काफी नहीं है। नये कानून और नये गृह मंत्री से इस दिशा में उम्मीद जरूर जगती है। लगता है कि पी चिदंबरम के कुछ हाल के बयानों में वोट बैंक की चिंता नहीं है, बल्कि देश की सुरक्षा की अधिक चिंता है। इस तरह के कुछ और कदम केंद्र सरकार उठा कर व्यापारियों के जान-माल की सुरक्षा की गारंटी दे, तो वे नरेंद्र मोदी की तरफ उनका झुकाव खुद-ब-खुद कम होगा, ऐसा राजनीतिक प्रेक्षक कहते हैं। एक व्यापारी ने कहा कि गुजरात दंगे को लेकर बार-बार नरेंद्र मेादी को मौत का सौदागर कहने भर से काम नहीं चलेगा। सन् 1984 में तो दिल्ली के हजारों सिक्खों के संहार के बाद किसी को मौत का सौदागर क्यों नहीं कहा जाता ?



ताकि जनता का विश्वास न टूटे

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने साल के महीनों में अदालतों में भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए कई सराहनीय कदम उठाये हैं। कई जजों पर इस सिलसिले में उन्होंने कार्रवाई का रास्ता साफ किया है। पर हाल में उन्होंने यह कर जनता को निराश किया है कि जजों के लिए अपनी संपत्ति का ब्योरा देने की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। यदि इस संबंध में कानूनी बाध्यता नहीं है कि मुख्य न्यायाधीश से यह उम्मीद की जा रही है कि ऐसा कानून बनाने के लिए सरकार व संसद कहें। वे खुद न्यायपालिका में भ्रष्टाचार को लेकर चिंतित रहे हैं।दूसरी बात यह भी है कि हाल के वर्षों में आम जनता का न्याय के लिए न्यायपालिका खास कर हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट पर निर्भरता बढ़ी है। इस भारतीय लोकतंत्र का इन दिनों ऐसा स्वरूप बनता जा रहा है, जिससे यह लगता है कि अंततः अदालत और मीडिया से ही कुछ उम्मीद की जा सकती है। अपवादों की बात छोेड़ दें, तो इस देश की राजनीति, वोट, परिवार और पैसे में उलझ कर रह गयी है। प्रशासनिक कार्यपालिका के घोड़े पर तो राजनीतिक कार्यपालिका सवार रहती है। जब अदालतों से जनता का विश्वास बढ़ रहा है, तो जजों की भी इस मामले में जिम्मेदारी बढ़ जाती है। यदि जज अपनी संपत्ति का विवरण सार्वजनिक करने को राजी हो जायें, तो जनता में उनके प्रति विश्वास और भी बढ़ जायेगा। अन्यथा यदि लोकतंत्र के सभी स्तंभों के प्रति बारी-बारी से जनता में अविश्वास बढ़ता गया, तो एक दिन लोकतंत्र पर ही खतरा उपस्थित हो जायेगा। लोकतंत्र की रक्षा करने से न्यायपालिका का भी महत्व बना रहेगा। जब जज अपने मुख्य न्यायधीश को अपनी संपत्ति का ब्योरा देते ही हैं, तो उसे सार्वजनिक कर देने पर राजी हो जाने में भला क्या कठिनाई हो सकती है।



और अंत में

दोनों के आचार, विचार, स्वभाव और मित्रमंडली को देखते हुए यह स्वाभाविक ही था कि सुनील दत्त कांग्रेस में थे और उनके पुत्र अब संजय दत्त समाजवादी पार्टी में हैं।

प्रभात खबर (19 जनवरी, 2009)

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