मंगलवार, 7 नवंबर 2017

श्रीबाबू के टाइम से ही बिहार का प्रशासन खोने लगा था अपनी चमक



         

श्रीबाबू के टाइम से ही बिहार का प्रशासन खोने लगा था अपनी चमक  
         
आम धारणा के विपरीत बिहार के प्रशासन में 1957 से ही गिरावट शुरू हो गयी थी।हालांकि तब गिरावट की गति धीमी थी।
  वैसे आम धारणा यह है कि 1967 में जब राज्य में गैर कांग्रेसी सरकारों का दौर शुरू हुआ , तभी से गिरावट शुरू हुई।
  पर 1977-78 में बिहार के मुख्य सचिव रहे 
1951 बैच के आई.ए.एस. पी.एस.अप्पू ने अपने व्यक्तिगत अनुभवोंे के आधार पर लिखा है कि गिरावट की शुरूआत 1957 के आम चुनाव के बाद से  ही शुरू हो गयी थी।
  लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक रह चुके अप्पू हर दम संविधान और कानून के साथ खड़े रहने वाले अफसर थे। 1929 मेें जन्मे अप्पू का 2012 में निधन हो गया।
उन्हें पद्मभूषण से भी सम्मानित किया गया था।
अपने सेवाकाल में अपनी कठोर ईमानदारी के लिए चर्चित अप्पू साहब देश की अखिल भारतीय सेवाआंे में गिरावट,अवमूल्यन और विनाश पर करीब एक दशक पहले साप्ताहिक ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में लंबा लेख लिखा था।
 बिहार की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा कि आजादी के बाद के शुरूआती वर्ष में लोक प्रशासन के सुविख्यात विद्वान प्रो.पाॅल एपलबी 
राज्य की यात्रा पर आए थे।उन्होंने बिहार के प्रशासन को उसी रूप में पाया जैसा किसी संसदीय लोकतंत्र में होना चाहिए।
इसलिए उहोंने बिहार के प्रशासन को विश्व के सर्वोत्तम प्रशासनों मेें एक की संज्ञा दी । 
  खुद के अनुभवोें की चर्चा करते हुए अप्पू ने लिखा कि 1953 में मेरी तैनाती तत्कालीन मुख्य मंत्री के जिले में हुई थी।तब कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि मुख्य मंत्री का जिला है।बहुत नाजुक पोस्टिंग है।मुख्य मंत्री के खास लोग आपको परेशान करेंगे।धमकी भी देंगे।
 इस पृष्ठभूमि  में मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंहा ने मुझे एक दिन बुलाया और कहा कि ‘ कई लोग आपके पास जाकर मेरा नाम लेंगे।आप उनको विनम्रतापूर्वक सुन लीजिए।पर जो उचित लगे,वही कीजिए।मैं आपको कभी कुछ नहीं कहूंगा।’
  अप्पू ने इस नियम का पालन किया।पर उनके अनुसार सभी नेता श्रीबाबू जैसे नहीं थे।
 खुद श्रीबाबू के शासन के आखिरी दिनों के बदलते अंदाज की भी चर्चा अप्पू ने विस्तार से की है।यह 1957 के चुनाव के समय की बात है।
अप्पू का मानना है कि प्रशासन में धीमी गिरावट उसी समय से शुरू हो गयी।
  अप्पू ने लिखा कि 1957 के चुनावों में कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई।अनुग्रह नारायण सिंह के समर्थकों ने उन्हें मनाया कि वे पार्टी में श्रीकृष्ण सिंह को चुनौती दें।एक दूसरे को मात देने की होड़ में यह प्रतियोगिता एक विषाक्त शत्रुता में बदल गयी जिसमें तमाम तरह के हथकंडे अपनाए गए।यहां तक कि आॅफिस और घूस का भी लालच दिया गया।कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के चुनाव में श्रीकृष्ण सिंह साफ बढ़ते लेते हुए जीत गए।लेकिन इससे बिहार की राजनीितक प्रक्रिया को भारी नुकसान पहुंच चुका था।
नेता पद के मुकाबले की पूर्व संध्या पर किए गए वायदों को पूरा करना श्रीकृष्ण सिंह की बाध्यता थी।
कई समर्थकों को ,जिनमें कई अप्रभावी व जनाधारविहीन लोग थे, उप मंत्री बना दिया गया।
इनके पास बहुत कम शक्तियां थीं,पर जल्द ही ये प्रशासन की राह में रोड़े अटकाने लगे, खास कर ट्रांसफर-पोस्टिंग के मामले में।
  तत्कालीन मुख्य सचिव एल.पी.सिंह के प्रशंसक  अप्पू ने लिखा कि ‘तब तक एल.पी.सिंह केंद्रीय नियुक्ति पर जा चुके थे।
आई.सी.एस.,एम.एस.राव ने उनका स्थान संभाला।
पर वे दक्ष मुख्य सचिव साबित नहीं हो सके।
राव मुख्य मंत्री के साथ वह करीबी सद्भाव नहीं बना पाए ,जो एल.पी.सिंह को हासिल था।
  इसके अलावा अपने आखिरी दिनों में श्रीकृष्ण सिंह चंद निहितस्वार्थी तत्वों के एक गुट के प्रभाव में आ गए।
अब बिहार के प्रशासन में धीमी ही सही, गिरावट आनी शुरू हो गयी।
 हालांकि अब भी जब मुख्य सचिव या कोई अन्य वरीय अधिकारी कोई अनुचित निर्णय मुख्य मंत्री की निगाह में लाता था तो वे हस्तक्षेप करते थे और उसे दुरूस्त कर देते थे।
अब मैं पीछे मुड़ कर इन चीजों की पड़ताल करता हूं तो पाता हूं कि उन दिनों मैं बिना पक्षपात के प्रभावी ढंग से काम कर पाया तो वह श्रीकृष्ण सिंह जैसे व्यक्ति  थे जिनकी वजह से यह संभव हो पाया।’
 श्रीबाबू के निधन के बाद के वर्षों की चर्चा करते हुए अप्पू ने लिखा है कि ‘कई अफसर शक्तिशाली मंत्रियों के साथ गुट बनाने लगे और उनके बेजा कामों में साथ देने लगे।अब बिहार का प्रशासन अपनी चमक खोता जा रहा था।’    
    @यह लेख 7 नवंबर, 2017 को मेरे ‘भूले बिसरे’ काॅलम के तहत लाइवबिहार.लाइव में प्रकाशित@
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             

आम धारणा के विपरीत बिहार के प्रशासन में 1957 से ही गिरावट शुरू हो गयी थी।हालांकि तब गिरावट की गति धीमी थी।
  वैसे आम धारणा यह है कि 1967 में जब राज्य में गैर कांग्रेसी सरकारों का दौर शुरू हुआ , तभी से गिरावट शुरू हुई।
  पर 1977-78 में बिहार के मुख्य सचिव रहे 
1951 बैच के आई.ए.एस. पी.एस.अप्पू ने अपने व्यक्तिगत अनुभवोंे के आधार पर लिखा है कि गिरावट की शुरूआत 1957 के आम चुनाव के बाद से  ही शुरू हो गयी थी।
  लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक रह चुके अप्पू हर दम संविधान और कानून के साथ खड़े रहने वाले अफसर थे। 1929 मेें जन्मे अप्पू का 2012 में निधन हो गया।
उन्हें पद्मभूषण से भी सम्मानित किया गया था।
अपने सेवाकाल में अपनी कठोर ईमानदारी के लिए चर्चित अप्पू साहब देश की अखिल भारतीय सेवाआंे में गिरावट,अवमूल्यन और विनाश पर करीब एक दशक पहले साप्ताहिक ‘इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में लंबा लेख लिखा था।
 बिहार की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा कि आजादी के बाद के शुरूआती वर्ष में लोक प्रशासन के सुविख्यात विद्वान प्रो.पाॅल एपलबी 
राज्य की यात्रा पर आए थे।उन्होंने बिहार के प्रशासन को उसी रूप में पाया जैसा किसी संसदीय लोकतंत्र में होना चाहिए।
इसलिए उहोंने बिहार के प्रशासन को विश्व के सर्वोत्तम प्रशासनों मेें एक की संज्ञा दी । 
  खुद के अनुभवोें की चर्चा करते हुए अप्पू ने लिखा कि 1953 में मेरी तैनाती तत्कालीन मुख्य मंत्री के जिले में हुई थी।तब कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि मुख्य मंत्री का जिला है।बहुत नाजुक पोस्टिंग है।मुख्य मंत्री के खास लोग आपको परेशान करेंगे।धमकी भी देंगे।
 इस पृष्ठभूमि  में मुख्य मंत्री डा.श्रीकृष्ण सिंहा ने मुझे एक दिन बुलाया और कहा कि ‘ कई लोग आपके पास जाकर मेरा नाम लेंगे।आप उनको विनम्रतापूर्वक सुन लीजिए।पर जो उचित लगे,वही कीजिए।मैं आपको कभी कुछ नहीं कहूंगा।’
  अप्पू ने इस नियम का पालन किया।पर उनके अनुसार सभी नेता श्रीबाबू जैसे नहीं थे।
 खुद श्रीबाबू के शासन के आखिरी दिनों के बदलते अंदाज की भी चर्चा अप्पू ने विस्तार से की है।यह 1957 के चुनाव के समय की बात है।
अप्पू का मानना है कि प्रशासन में धीमी गिरावट उसी समय से शुरू हो गयी।
  अप्पू ने लिखा कि 1957 के चुनावों में कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई।अनुग्रह नारायण सिंह के समर्थकों ने उन्हें मनाया कि वे पार्टी में श्रीकृष्ण सिंह को चुनौती दें।एक दूसरे को मात देने की होड़ में यह प्रतियोगिता एक विषाक्त शत्रुता में बदल गयी जिसमें तमाम तरह के हथकंडे अपनाए गए।यहां तक कि आॅफिस और घूस का भी लालच दिया गया।कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के चुनाव में श्रीकृष्ण सिंह साफ बढ़ते लेते हुए जीत गए।लेकिन इससे बिहार की राजनीितक प्रक्रिया को भारी नुकसान पहुंच चुका था।
नेता पद के मुकाबले की पूर्व संध्या पर किए गए वायदों को पूरा करना श्रीकृष्ण सिंह की बाध्यता थी।
कई समर्थकों को ,जिनमें कई अप्रभावी व जनाधारविहीन लोग थे, उप मंत्री बना दिया गया।
इनके पास बहुत कम शक्तियां थीं,पर जल्द ही ये प्रशासन की राह में रोड़े अटकाने लगे, खास कर ट्रांसफर-पोस्टिंग के मामले में।
  तत्कालीन मुख्य सचिव एल.पी.सिंह के प्रशंसक  अप्पू ने लिखा कि ‘तब तक एल.पी.सिंह केंद्रीय नियुक्ति पर जा चुके थे।
आई.सी.एस.,एम.एस.राव ने उनका स्थान संभाला।
पर वे दक्ष मुख्य सचिव साबित नहीं हो सके।
राव मुख्य मंत्री के साथ वह करीबी सद्भाव नहीं बना पाए ,जो एल.पी.सिंह को हासिल था।
  इसके अलावा अपने आखिरी दिनों में श्रीकृष्ण सिंह चंद निहितस्वार्थी तत्वों के एक गुट के प्रभाव में आ गए।
अब बिहार के प्रशासन में धीमी ही सही, गिरावट आनी शुरू हो गयी।
 हालांकि अब भी जब मुख्य सचिव या कोई अन्य वरीय अधिकारी कोई अनुचित निर्णय मुख्य मंत्री की निगाह में लाता था तो वे हस्तक्षेप करते थे और उसे दुरूस्त कर देते थे।
अब मैं पीछे मुड़ कर इन चीजों की पड़ताल करता हूं तो पाता हूं कि उन दिनों मैं बिना पक्षपात के प्रभावी ढंग से काम कर पाया तो वह श्रीकृष्ण सिंह जैसे व्यक्ति  थे जिनकी वजह से यह संभव हो पाया।’
 श्रीबाबू के निधन के बाद के वर्षों की चर्चा करते हुए अप्पू ने लिखा है कि ‘कई अफसर शक्तिशाली मंत्रियों के साथ गुट बनाने लगे और उनके बेजा कामों में साथ देने लगे।अब बिहार का प्रशासन अपनी चमक खोता जा रहा था।’    
    @यह लेख 7 नवंबर, 2017 को मेरे ‘भूले बिसरे’ काॅलम के तहत लाइवबिहार.लाइव में प्रकाशित@
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             

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