सोमवार, 6 नवंबर 2017

अफसर जीवन काल में ही बन गए थे लोक चर्चाओं के विषय



         
  यह घटना उस समय की है जब 1951 बैच के आई.ए.एस.अफसर पी. एस. अप्पू लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे।
  एक प्रशिक्षु आई.ए.एस.अफसर ने सह प्रशिक्षु लड़कियों के साथ दुव्र्यवहार किया।इतना ही नहीं उन पर रिवाल्वर  भी तान दी।
  निदेशक ने उस उदंड प्रशिक्षु को बर्खास्त कर देने की सिफारिश कर दी।पर केंद्र सरकार ने अप्पू की सिफारिश को नहीं माना।
  इसके विरोध में अप्पू ने सेवा से इस्तीफा दे दिया।उन्हें साढ़े तीन साल बाद रिटायर होना था।
याद रहे कि अप्पू 2 अगस्त, 1980 से 1 मार्च, 1982 तक निदेशक पद पर रहे।
  न सिर्फ सेवा के अंतिम दिनों में बल्कि पूरे सेवा काल में अप्पू कत्र्तव्यनिष्ठ अफसर बने रहे।
 इस्तीफे के बाद वह बंगलुरू  जाकर बस गए क्योंकि उस शहर के पास जमीन सस्ती थी।उन्होंने कोई दूसरा काम स्वीकार करने के बदले अपने आवास के अहाते में एक सौ तरह के गुलाब के पौधे लगाए।माचर्, 2012 में उनका निधन हो गया।
  बिहार काॅडर के आई.ए.एस. अफसर अप्पू ने दो किस्तों में कुल इक्कीस वर्षों तक बिहार की सेवा की।उनका सबसे अच्छा अनुभव डा.श्रीकृष्ण सिंहा के मुख्य मंत्रित्व काल के प्रारंभिक वर्षों का रहा।पर 1957 के बाद अप्पू ने श्रीबाबू के शासन काल में भी गिरावट देखी थी।
 अप्पू ने अपने संस्मरण में संविधान सभा में दिए गए सरदार पटेल के भाषण को याद किया है।सरदार साहब ने कहा था कि ‘ आज मेरा सचिव मेरे विचार के खिलाफ कोई नोट लिख सकता है।मैंने सभी साथियों को यह आजादी दी है।मैंने उन्हें बता दिया है कि यदि वे अपनी ईमानदार और सही राय इस आधार पर नहीं देते कि मंत्री साहब नाराज हो जाएंगे तो बेहतर होगा कि वे इस्तीफा दे दें।और मैं कोई दूसरा सचिव खोज लूंगा।’
  अप्पू ने सरदार पटेल के दिशा निदेश के तहत एक कत्र्तव्यनिष्ठ अफसर की तरह पूरे सेवाकाल में  कत्र्तव्य निभाने की कोशिश की।
 पर सत्तर के दशक में तत्कालीन  मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर के साथ अप्पू के जो अनुभव रहे ,वे बिहार की शासन -व्यवस्था की पोल खोल देते हैं। 
अप्पू के शब्दों में ही जानिए तब के बिहार शासन का हाल !
‘कर्पूरी ठाकुर मुझे तब से जानते थे जब मैं उनके जिला दरभंगा का कलक्टर था।1967 में जब वे वित्त मंत्री थे तो मैंने उनके तहत वित्त सचिव का काम किया था।
 हम दोनों एक दूसरे का सम्मान करते थे। 1977 में मुख्य मंत्री पद संभालने के तत्काल बाद कर्पूरी जी ने मुझे बताया कि वे मुझे मुख्य सचिव बनाना चाहते हैं।
मैंने उनसे कहा कि अभी बिहार काॅडर में कार्यरत पांच अधिकारी मुझसे सिनियर हैं।उनमें से किसी को बना दीजिए।
पर एक सप्ताह बाद उन्होंने मुझे सूचित किया कि कैबिनेट की राय है कि मैं ही मुख्य सचिव बनूं।
 मैंने कहा कि एक अनुशासित सिविल सर्वेंट के रूप में उनकी आज्ञा मानने के अतिरिक्त मेरे पास कोई रास्ता नहीं है।
हालांकि मैंने यह भी जोड़ा कि प्रशासन बदतर हालत में है और तब ही मैं सक्षम होऊंगा ,जब वे यानी कर्पूरी ठाकुर कुछ शत्र्तें मानने को तैयार हों।शत्र्तें ये थीं कि वे मेरे द्वारा चुने हुए कुछ बेहतर अफसरों को कुछ प्रमुख पदों पर तैनात  करें।प्रचूर मात्रा में शक्तियां मातहत अधिकारियों को सौंपें।
उनके काम मेें किसी तरह का बेजा हस्तक्षेप न हो।
कर्पूरी जी ने सारी शत्र्तें मान लीं।
पर मुख्य सचिव का पद संभालने के कुछ ही दिन बाद मैंने पाया कि मुख्य मंत्री उन शत्र्तों को पूरा नहीं कर सकते थे।मैंने यह भी पाया कि वस्तुपरकता के आधार अफसरों की पोस्टिंग के लिए कैबिनेट को राजी करना कर्पूरी जी के लिए संभव नहीं था।
 अप्पू ने लिखा कि खास -खास पदों के लिए लाॅबिंग उन दिनों जोरों पर थी।मंत्री वैसे अफसरों की ताक में रहते थे जो या तो उनकी जाति का हो या फिर उनकी हर वाजिब-गैर वाजिब मांगों को पूरा करने में किसी तरह का ना -नुकूर न करे।
मंत्रियों द्वारा प्रायः दक्ष और बेहतर रिकाॅर्ड वाले अफसरों की अन देखी कर दी जाती थी।
भ्रष्ट और अकुशल अफसरों को पसंद किया जाता था।
कई अफसर लाॅबिंग के बूते मनचाही पोस्टिंग या तबादला पाने में कामयाब हो गए।
समय- समय पर जारी कई चेतावनियों के बावजूद दिन प्रति दिन  के प्रशासन में खास कर पोस्टिंग- ट्रांसफर से जुड़े मामलों में गैर जरूरी हस्तक्षेप बेरोकटोक बढ़ता गया।
प्रशासन का आत्म विश्वास पहले ही से गिरा हुआ था अब और गिरने लगा।
जब मैंंने यह महसूस किया कि प्रशासन में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं रह गयी है तो अप्रैल 1978 में मैंने बिहार छोड़ दिया।
अखिल भारतीय सेवाओं में क्रमिक गिरावट, अवमूल्यन और विनाश का संक्षिप्त इतिहास लिखते हुए  अप्पू ने यह भी लिखा है कि किसी मंत्री या नौकरशाह ने इमरजेंसी का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटाई।साथ ही उन्होंने यह भी लिखा है कि अगर केवल डीजीपी, मुख्य सचिव और चंद पुलिस और प्रशासनिक अफसरों ने निडरता दिखाई होती तो गुजरात में नरमेध यज्ञ को रोका जा सकता था।’
@फस्र्टपोस्ट हिंदी  के मेरे साप्ताहिक काॅलम ‘दास्तान ए सियासत’ में 6 नवंबर 2017 को प्रकाशित मेरा लेख @



   
  

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