शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

राजनीति के अपराधीकरण का इलाज--


   सुप्रीम कोर्ट ने बीते दिनों केंद्र सरकार को सांसदों और विधायकों के खिलाफ जारी आपराधिक मुकदमों की जल्द सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के गठन का
 आदेश  दिया है।
 राजनीति के अपराधीकरण  के खिलाफ सर्वोच्च अदालत की इस पहल को  सराहनीय माना जा रहा है।
 पर  कुछ अन्य महत्वपूर्ण सवाल और मुददे भी इससे जुडे़ हुए  हंै जो दशकों से अनुत्तरित हैं।
क्या गवाहों की सुरक्षा के बिना अत्यंत प्रभावशाली लोगों के खिलाफ जारी किसी मुकदमे को उनकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया जा सकता है ?
 क्या अधिकतर विवेचना अधिकारियों  की मौजूदा लचर कार्य शैली में सुधार के बिना सुप्रीम कोर्ट का उद्देश्य पूरा हो पाएगा ?
 क्या नार्को टेस्ट और ब्रेन मैपिंग पर रोक से संबंधित खुद सुप्रीम कोर्ट के 2010 के आदेश को पलटे बिना सुप्रीम कोर्ट के ताजा  आदेश का सकारात्मक असर हो पाएगा ? 
  इसलिए यह भी उम्मीद की जा रही है कि राजनीतिक तंत्र को दागियों से मुक्त करने के अच्छे उद्देश्य से सुप्रीम कोर्ट की ओर से कुछ अन्य दिशा - निदेश भी आने चाहिए।  
  इस देश की पुलिस, हत्या के मामले में जितने लोगों के खिलाफ अदालतों में आरोप पत्र दाखिल करती हैं,उनमें से सिर्फ 10 प्रतिशत आरोपितों  को ही सजा हो पाती है।बलात्कार के मामले में यह प्रतिशत सिर्फ 12 है।
 अधिकतर मामलों में गवाह अदालत  में जाकर बदल जाते हैं।क्योंकि वे अपार राजनीतिक, प्रशासनिक तथा बाहुबल की  ताकत से लैस आरोपियों ं  के सामने टिक नहीं पाते।वे डर जाते हैं।
  अमेरिका और फिलीपीन्स सहित दुनिया के कई देशों में गवाहों की सुरक्षा के लिए कई कानूनी तथा अन्य उपाय किए गए हैं।अमेरिका में 8500 गवाहों और उनके 9900 परिजनों को 1971 से ही मार्शल सर्विस सुरक्षा दे रही है।
खुद इस देश के सुप्रीम कोर्ट ने पिछले ही साल केंद्र सरकार को निदेश दिया था कि वह गवाहों की सुरक्षा के उपाय करे।
 सन् 1958 में ही इस देश के विधि आयोग ने गवाहों की सुरक्षा के उपाय करने के लिए केंद्र सरकार को सुझाव दिए थे।पर कुछ नहीं हुआ।
  इस तरह की अनेक कमियों के कारण आपराधिक मामलों में पूरे देश में सजा का औसत प्रतिशत सिर्फ 45 है। सन 1953 में यह प्रतिशत 64 था।हां,इस मामले में सी.बी.आई. थोड़ा बेहतर नतीजे जरूर देती है। फिर भी विकसित देशों के मुकाबले यहां की स्थिति दयनीय ही कही जाएगी।अमेरिका में सजा का प्रतिशत 93 है तो जापान में 99 प्रतिशत।
 इस देश में सत्तर के दशक से ही  सजा के  प्रतिशत में गिरावट शुरू हो गयी थी।
यह संयोग नहीं है कि राजनीति के अपराधीकरण का भी वही शुरूआती दौर था।जिन राज्यों में राजनीति का  अपराधीकरण अधिक हुआ है,उन राज्यों में सजा का प्रतिशत भी अन्य राज्यों की अपेक्षा कम है।
  न सिर्फ गवाह ताकतवर आरोपित के प्रभाव में  आ जाते हैं बल्कि अनेक जांच अधिकारी भी  रिश्वत के प्रभाव  से बच नहीं पाते।
वैसे भी पुलिस में भ्रष्टाचार का क्या हाल है,यह किसी से छिपा नहीं है।
  इसलिए गवाहों की सुरक्षा के साथ-साथ  मुकदमे के अनुसंधान के काम में लगे जांच पदाधिकारियों पर भी नजर रखने का विशेष प्रबंध करना पड़ेगा।बेहतर तो यह होगा कि धनवान लोगों के केस देखने वाले जांच पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार विरोधी दस्ते नजर रखें।
 समय सीमा के भीतर सांसदों-विधायकों के खिलाफ चल रहे मुकदमों की सुनवाई पूरी कर लेने के मामले में कोई भी ढील आरोपितों को मदद पहुंचाने के समान ही साबित होती है।
   सजा के बाद पूरे जीवन में फिर कभी चुनाव नहीं लड़ने के प्रावधान का भी सवाल सामने है।दरअसल  वह किए बिना लोकतंत्र को इस गंदगी से मुक्त नहीं किया जा सकता।
 पर इस पर केंद्र सरकार की शुरूआती प्रतिक्रिया से कोई खास उम्मीद नहीं बंधती।क्योंकि आजीवन प्रतिबंध लगाने की लोकहित याचिकाकत्र्ता की मांग पर सरकारी वकील ने गत 1 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट में कहा कि ‘इस पर विचार हो रहा है।’ 
 सरकारी सूत्रों ने अलग से बताया कि इस पर तो राजनीतिक दलों में आम सहमति की जरूरत पड़ेगी।
  समस्या है कि ऐसे मामलों में राजनीतिक दलों में आम तौर से कोई आम सहमति नहीं बन पाती।क्योंकि यह सांसदों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं बढ़ाने का मामला तो है नहीं !
उस पर तो आम सहमति मंे कभी कोई देर नहीं होती।
 इसी आम सहमति के चक्कर में केंद्र की राजग सरकार को 2002 में फजीहत झेलनी पड़ी थी।क्या केंद्र की राजग सरकार मौजूदा मामले में भी उसकी पुनरावृत्ति चाहती है ? पता नहीं।
 याद रहे कि  सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में  सख्त आदेश देकर केंद्र सरकार के उस निर्णय को बदल दिया था जिसके तहत  केंद्र सरकार ने उम्मीदवारों के बारे में निजी सूचनाएं देने की पहले कानूनी मनाही कर दी थी।
   उम्मीदवारों के लिए शैक्षणिक योग्यता,आपराधिक मुकदमे और संपत्ति का व्योरा देना जरूरी  तभी हो सका था जब सुप्रीम कोर्ट ने सन 2002 में  ऐसा करने के लिए केंद्र की राजग  सरकार  को स्पष्ट आदेश दे दिया ।उससे पहले तत्कालीन केंद्र सरकार  इसके लिए कत्तई तैयार ही नहीं थी।तब के एक केंद्रीय मंत्री ने मीडिया को बताया था कि हमारे मामले कई बार आयकर महकमे में लंबित रहते हैं,फिर हम आय व संपत्ति का विवरण सार्वजनिक कैसे कर सकते हैं ?      
 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया था कि जन प्रतिनिधि बनने की इच्छा रखने वालों को महत्वपूर्ण सूचनाएं सार्वजनिक करनी ही होंगी।इन सूचनाओं में शैक्षणिक योग्यता,आपराधिक रिकार्ड और संपत्ति के विवरण शामिल हैं।
   केंद्र सरकार ने तब सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को पसंद नहीं किया।अधिकतर  राजनीतिक दल भी नहीं चाहते थे कि ऐसी व्यक्तिगत सूचनाएं जग जाहिर की जाएं।नतीजतन सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को बेअसर करने के लिए केंद्र सरकार ने तब राष्ट्रपति से  अध्यादेश जारी करवा दिया।बाद में उसे संसद ने पास करके कानून का भी दर्जा दे दिया।पर सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून को रद कर दिया। उसके बाद ही उपर्युक्त सूचनाएं नामांकन पत्र के साथ उम्मीदवार देने को बाध्य हो रहे हैं।
  यानी जिस देश के अधिकतर राजनीतिक दल व नेतागण अपने बारे में ऐसी ‘निर्दोष’ सूचनाएं भी सार्वजनिक करने को तैयार नहीं रहे  हैं,वे अपराधियों को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए रोकने के लिए खुद कोई कानून बनाने को तैयार हो जाएंगे,ऐसा फिलहाल लगता नहीं है।
  याद रहे कि लोकहित याचिका कत्र्ता ‘लोक प्रहरी’ और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट से यह गुहार की है कि सजायाफ्ता नेताओं को चुनाव लड़ने से हमेशा के लिए वंचित कर दिया जाना चाहिए।क्योंकि सरकारी कर्मचारी या जज को सजा हो जाए तो उन्हें फिर से नौकरी नहीं मिलती।
यह समानता के अधिकार से संबंधित संवैधानिक प्रावधान के खिलाफ है कि सजा की अवधि पूरी कर लेने के छह साल बाद नेता फिर से चुनाव लड़ने के योग्य माने जाएं।
 उम्मीद है कि 13 दिसंबर को जब इस मामले की अगली सुनवाई होगी तो केंद्र सरकार आजीवन प्रतिबंध के मामले में अपनी अंतिम राय सर्वोच्च न्यायालय को बता पाएगी।
चुनाव आयोग तो ऐसे प्रतिबंध के पहले से ही पक्ष में है।
  उधर खुद सुप्रीम कोर्ट को इस बात पर भी विचार करना होगा कि 2010 के उसके ही एक निर्णय का आपराधिक न्यायिक प्रक्रिया पर कैसा असर पड़ रहा है।
  याद रहे कि  सुप्रीम कोर्ट ने मई, 2010 में यह कहा था कि अभियुक्त की सहमति के बिना उसका न तो नार्काे एनालिसिस टेस्ट हो सकता है और न ही ब्रेन मैपिंग।उस पर झूठ बताने वाली मशीन का भी इस्तेमाल नहीं हो सकता।
  अब इस बात पर विचार करने की भी जरूरत है कि इस आदेश के बाद जांच अधिकारियों  को किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।याद रहे कि 2010 के बाद जाने -माने कानून तोड़क अक्सर ऐसी जांच से साफ इनकार कर देते हैं।         
@मेरे इस लेख का संपादित अंश 10 नवंबर, 2017 के दैनिक जागरण के संपादकीय पेज पर प्रकाशित@

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