केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की यह सलाह बिलकुल सही है कि जो शिक्षक पढ़ाने लायक नहीं हैं,उन्हें दूसरे कामों में लगाया जाना चाहिए।यह अच्छी बात है कि कुशवाहा ने किसी को बेरोजगार कर देने की सलाह नहीं दी।
कुशवाहा की यह बात भी सही है कि बिहार में शिक्षा की बदहाली 1980 से शुरू हुई।
मेरी समझ से अब यह बिहार सरकार पर निर्भर करता है कि जो शिक्षक पढ़ाने लायक नहीं हैं,वह उनकी पहचान कैसे करती है।
सही पहचान संभव है।थोड़ी निर्ममता दिखानी पड़ेगी।
अत्यंत कड़ाई से छोटे -छोटे समूहों में टेस्ट परीक्षा लेनी होगी।उस परीक्षा में जो अयोग्य पाए जाएं उन लोगों को कहीं और तैनात करना पड़ेगा।अन्यथा, अगली पीढि़यां बर्बाद होती रहेंगी।
छोटे समूहों में बारी -बारी से परीक्षा लेने से कदाचार की गुंजाइश नहीं रहेगी।
पटना के गांधी मैदान के पास पांच हजार लोगों के बैठने के लिए एक सभा भवन भी बन ही गया है।उसी में बैठा कर परीक्षा लीजिए। परीक्षा की निगरानी के लिए भरपूर पुलिस फोर्स के साथ ईमानदार आई.ए.एस. और आई.पी.एस.अफसरों को तैनात करा दीजिए।
हर रविवार को राज्य के पांच- पांच हजार शिक्षकों की बारीे -बारी से टेस्ट परीक्षा कराई जाए।
उसमें जो पास करेगा ,वह सचमुच गुरू कहलाने लायक होगा।वैसे ही गुरूओं के पांव छात्र गण गोंविंद से पहले छुएंगे।
दरअसल इस पिछड़ा बहुल प्रदेश बिहार में सरकारी स्कूलों पर आम तौर पिछड़े और गरीबों के बच्चे निर्भर हैं।अमीरोंं के लिए तो इस राज्य में भी नये -नये महंगे निजी स्कूल खुल ही रहे हैं।किसी भी जाति -समुदाय के अमीर अभिभावक तो दूसरे राज्यों में भेज कर अपने बाल-बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवा ही रहे हैं।
1990 से ही इस प्रदेश की सत्ता के शीर्ष पर पिछड़े समुदाय के नेता ही हैं।आश्चर्य होता है कि इसके बावजूद सरकारी स्कूलों को सुधारने की कोई गंभीर कोशिश नहीं हो रही है।अब भी देर नहीं हुई है।
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