नब्बे के दशक में केंद्रीय कृषि मंत्रालय से जुड़े संस्थान के निदेशक पद पर तैनाती के लिए उम्मीदवार को दस लाख रुपए की रिश्वत देनी पड़ती थी।
यह रहस्योद्घाटन तब के केंद्रीय कृषि मंत्री चतुरानन मिश्र ने अपनी संस्मरणात्मक पुस्तक में किया है। मिश्र जी 1996 से 1998 तक केंद्र में मंत्री थे।तब संयुक्त मोर्चा की सरकार थी।बारी -बारी से एच.डी.देवगौड़ा और आई.के.गुजराल प्रधान मंत्री थे।
देश में पहली बार कम्युनिस्ट नेता केंद्र सरकार में शामिल हुए थे।
‘मंत्रित्व के अनुभव’ नामक अपनी पुस्तक में दिवंगत कम्युनिस्ट नेता चतुरानन मिश्र ने लिखा कि ‘ एक बार एक वैज्ञानिक संस्थान के निदेशक की नियुक्ति के लिए मेरे पास विभाग से तीन नाम आए।
मैंने योग्यता को देख कर नियुक्ति के लिए उनमें से एक का चयन किया।
जिन्हें चुना गया था,वे इस बात से अकचका गए कि वे डायरेक्टर कैसे हो गये ? मेरा उनसे न कोई परिचय था और न ही कोई पैरवी आई थी।
बाद में वे मुझसे मिलने आए तो कहा कि डायरेक्टर की नियुक्ति में दस लाख रुपए लगते थे, इसलिए मैं निराश बैठा था।
उन्होंने बताया कि वे बिहार के बक्सर जिले के हैं।
वैसा ही बम्बई स्थित मछली अनुसंधान संस्थान के निदेशक की बहाली में हुआ।
वह मुसलमान थे।
वह ताज्जुब में पड़े कि उनकी बहाली कैसे हो गयी।उच्च पदों पर नियुक्ति में दलितों और कम्युनिस्टों के बारे में विरोध होता था।
जब कोई कम्युनिस्ट नेता पहली बार सत्ता में आता है,उसे तरह -तरह के नये अनुभव होते हैं।कई बार उन्हें कुछ अजीब लगता है।
चतुरानन मिश्र ने भी अपने कई तरह के अनुभव विस्तार से लिखे हैं।
उन्हें एक अनुभव यह भी हुआ कि ‘मंत्रियों के यहां उनके अधीनस्थ
सहकारी संगठन और लोक उपक्रम से जरूरत से अधिक अनेक गाडि़यां आ जाती हैं।
उनके अनुसार ‘मैं संासद वाला मकान में ही रह गया था।जब देखा कि चार गाडिय़ां लगी हुई हैं तो उन्हें हटवा दिया।
बाद में पता चला कि दफ्तर में भी ऐसे संसाधन राजकीय क्षेत्र से लिए जाते हैं।
संबंधित अफसर डर से कुछ नहीं बोलते।’
एक महत्वपूर्ण बात मिश्र जी ने लिखी है।उन्होंने लिखा कि ‘ मुझे सूचित किया गया था कि मंत्रियों के भ्रष्टाचार के संबंध में प्रधान मंत्री को खुफिया तंत्र द्वारा खबर चली जाती है।
गठबंधन सरकार में इस पर काम करना प्रधान मंत्री के लिए कठिन होता है।इसलिए वे चुप रह जातें हैं।
मगर प्रधान मंत्री की यदि अपनी बड़ी पार्टी है तो इस विषय पर चुप क्यों रह जाते हैं,यह समझ में नहीं आता है।’
मंत्रिमंडल की कार्य प्रणाली के बारे में भी उन्होंने लिखा है। कार्य -पद्धति में एक बड़ी कमी उन्होंने महसूस की।उन्होंने लिखा कि राष्ट्र की सबसे महत्वपूर्ण समस्याओं जैसे वित्तीय संकट, सब्सीडी ,बेरोजगारी,गरीबी रेखा वालों के सवाल ,कृषि समस्या आदि पर सर्वांगीण रूप से वहां कभी विचार नहीं होता है।
ऐसा विचार योजना आयोग में हुआ था लेकिन वह भी सीमित था।
मं़ित्रमंडल में प्रधान मंत्री जो चाहे ,वह तो होता ही है,लेकिन उनके सामने मंत्रियों के विचार आने की जरूरत है।
वे सिर्फ सचिवों की राय पर काम करते हैं।
दूसरे विभागों के एजेंडा पर भी वे बोलते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि हर विभाग अलग -अलग सरकार है।’
चतुरानन जी ने मंत्री के रूप में एक नयी परंपरा डाली थी।पता नहीं वह बाद में कायम रही या नहीं।
वे लिखते हैं कि ‘रोजाना जो पत्र आते थे, उसकी सिर्फ प्राप्ति का पत्र भेजने का रिवाज था।किंतु मैंने ए.पी.एस.को कहा कि किस पदाधिकारी के पास उनकी शिकायत भेजी जा रही है,वह भी प्राप्ति पत्र में लिखा करें।उस पदाधिकारी से ंसंपर्क के लिए लिख दें।’
सांसदों के बारे में अपना अनुभव उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया,‘ मंत्री के रूप में मेरे पूरे कार्यकाल में कामरेड ए.के.राय ही एकमात्र थे जिन्होंने आकर मुझसे पूछा कि यह तो नया काम है, आप कैसा महसूस कर रहे हैं ?
बाकी साथी कुछ काम-धंधा के लिए ही आते थे।
जब उनसे बताया कि यहां बैठकर पूंजीवाद का विकास कर रहा हूं तो वे आश्चर्य में पड़े और पूछा कि तब फिर क्यों हैं यहां ?
मैंने कहा कि पूंजीवाद में विकास कार्यों में भी दर्द अवश्यम्भावी है।मैं यही कोशिश कर रहा हूं कि न्यूनत्तम दर्द हो।’मेरे इस दृष्टिकोण के बावजूद एक बड़ा टकराव हुआ जिसमें मैंने इस्तीफा दे दिया।निदान होने पर फिर वापस ले लिया।’
जाहिर है कि चतुरानन जी बिहार से थे।उन दिनों बिहार में कुख्यात चारा घोटाले की धूम थी।
जिन नेताओं पर चारा घोटाले के आरोप थे,वे केंद्र सरकार पर दबाव डाल रहे थे।
उस घटना पर खुद मिश्र जी और तब के केंद्रीय गृह मंत्री की क्या राय थी, इस संबध्ंा में मिश्र जी कोई ठोस बात लिख देते तो उनकी संस्मरणात्मक पुस्तक अधिक पठनीय होती।
याद रहे कि तब के सी.बी. आई. के निदेशक जोगिंदर सिंह ने उस बारे में अपनी किताब में खुल कर लिखा है।
@ लाइवबिहार.लाइव पर भूले-बिसरे काॅलम के तहत 28 नवंबर 2017 को प्रकाशित मेरा लेख@
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