शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

शिक्षा-परीक्षा में सुधार के लिए सर्जिकल स्ट्राइक अब जरूरी----


बिहार ही नहीं ,बल्कि इस देश की शिक्षा की दुर्गति के कारणों की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जज के नेतृत्व में न्यायिक जांच आयोग का गठन होना चाहिए। आयोग अपनी रपट में सुधार के उपायों को रेखांकित करे।
पर पहले दुर्दशा के असली कारणोें का पता जरूर होना चाहिए।
साथ ही, केंद्र और राज्य सरकारें उन सिफारिशों को कड़ाई से लागू करेें , यदि सरकार के लोगों को अपनी अगली पीढि़यों के भले का कुछ भी खयाल हो।
  दरअसल शिक्षा-सुधार  को लेकर कई समितियों और आयोगों की सिफारिशें धूल फांकती रह जाती हैं।कुछ लागू भी होती है तो आधे मन से।
  शायद सुप्रीम कोर्ट के जज के नेतृत्व वाले किसी आयोग की सिफारिशों में अधिक नैतिक बल हो।
उससे आम जनता का भी समर्थन उन सिफारिशों को मिलेगा।
  दरअसल शिक्षण-परीक्षण को बिगाड़ने में समाज के लगभग हर हिस्से के अनेक प्रभावशाली लोगों का हाथ रहा है।
उनके व्यक्तिगत स्वार्थ भी उससे जुड़ गए हैं।वे शिक्षा को सुधरने नहीं देते ।
किसी अच्छे कदम का बाहर या भीतर से विरोध कर देते हैं।
 इस बीच शिक्षा की स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि बिल गेट्स को  भी हाल में  यह कहना पड़ा कि  आज इस देश में शिक्षा की जो स्थिति से उसकी अपेक्षा  इसे बहुत -बहुत  बेहतर करने की जरूरत है।यानी एक विदेशी को भी इस देश की शिक्षा की खराब स्थिति अखर रही है।भारत के कुछ सत्तावानों को इसलिए नहीं अखरती क्योंकि उनमें से अनेक लोग तो अपने बाल -बच्चों को विदेशों में पढ़ाते हैं और विदेशों में ही बसा भी देते हैं।
इधर इस देश और खास कर बिहार जैसे पिछड़े राज्यों की शिक्षा चैपट होती जा रही है।
  चैपट शिक्षा का इतना अधिक कुप्रभाव पड़ रहा है कि 
न सिर्फ  सही प्रश्न पत्र तैयार करने वाले शिक्षकों की कमी पड़ रही है ,बल्कि उत्तर पुस्तिकाएं जांचने की क्षमता वाले शिक्षक भी कम हो रहे हैं।
 उत्तर पुस्तिकाओं में दिए गए अंकों को जोड़ने में भी कई शिक्षकों को दिक्कत आ रही है। 
 बिहार की  ताजा खबर यह है कि  इंटर  हिंदी के माॅडल पेपर में
गलतियां सामने आईं हैं।
मैट्रिक के माॅडल पेपर में भी गलतियां मिली थीं।
उसके लिए संबंधित शिक्षिका को निलंबित किया गया था।
ऐसी गलतियां आए दिन सामने आती रहती हैं।
  पर किसी को सिर्फ निलंबित करने से काम चलने वाला नहीं है।
क्योंकि दोष व्यक्ति से अधिक व्यवस्था का है।
शिक्षण-परीक्षण की जो हालत है,यदि वह जारी रही तो कुछ साल के बाद ऐसे ही शिक्षक मिलेंगे जो दो जोड़ दो बराबर पांच पढ़ाएंगे।
उस पढ़ाई से निकले छात्र जो- जो  गुल खिलाएंगे, भविष्य में उसे भी झेलना पड़ेगा।
  सामान्य शिक्षा की बात कौन कहे,मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों की स्थिति भी बदतर होती जा रही है।
देश के सैकड़ों इंजीनियरिंग कालेज हाल के वर्षों में बंद हो गए।
अनेक मेडिकल काॅलेजों में रिश्वत के बल पर दाखिले होते हैं।कई मेडिकल काॅलेजों के छात्रों को शिक्षा-परीक्षा में कोई खास रूचि नहीं।
फिर भी वहां के छात्र डाक्टर बन कर निकल रहे हैं।
ऐसे डाक्टर -इंजीनियर इस देश व जनता के साथ कैसा सलूक करेंगे ?हालांकि यहां यह नहीं कहा जा सरहा है कि देश के सारे सामान्य ग्रेजुएट, डाक्टर और इंजीनियर अयोग्य ही हैं।उनमें बहुत लोग योग्य हैं।पर अपवादों से देश नहीं चलता। 
शिक्षा -परीक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए निहितस्वार्थियों के खिलाफ शीघ्र सर्जिकल स्ट्राइक की जरूरत है।
 तब अपराधी छोड़ देते थे पटना-----
बिहार में कुछ पुलिस  अफसर ऐसे भी हुए हैं जिनके डर से 
खूंखार अपराधी जिला छोड़ देते थे।
पटना के कम से कम दो एस.एस.पी. के कार्यकाल में भी ऐसा ही हुआ था।
एक एस.एस.पी. नब्बे के दशक में थे।
उन्होंने अपराध नियंत्रण की कुछ ऐसी  तकनीकी अपनाई कि अपराधी बाप-बाप करने लगे।कुछ ने पटना छोड़ा तो कुछ अन्य की  दुनिया ही छूट गयी।यानी पुलिस से मुंठभेड़ करना उन्हें महंगा पड़ा।
  2005 के बाद एक अन्य एस.एस.पी.ने भी उसी तरह की करामात दिखाई।बल्कि पहले वाले एस.एस.पी. से भी बेहतर।
पहले वाले पर तो आरोप था कि उनकी  एक खास समूह के अपराधियों पर उनकी अधिक नाराजगी थी।
पर दूसरे वाले ‘समदर्शी’ थे।
पटना के मौजूदा एस.एस.पी. भी कत्र्तव्यनिष्ठ हैं और कई बार अपनी  जान
हथेली पर लेकर  अपराधियों से मुकाबला करते हैं।पर लगता है कि 
इन्हें वह तकनीकी नहीं मालूम जो उन अफसरों को  मालूम थी जिनकी चर्चा मैंने उपर की पंक्तियों में की है।
कोई हर्ज नहीं कि उन पूर्ववर्ती अफसरों से मौजूदा अफसर दिशा -निदेश ले लें।
 उधर राम जेठमलानी के पास राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय जेहादियों से कारगर ढंग से निपटने का एक खास तकनीकी है।जेठमलानी  ने उसकी चर्चा एक बार सार्वजनिक रूप से भी की थी।
पर,लगता है कि  उनकी तकनीकी को अपनाने की इच्छा शक्ति किसी में नहीं है।
ऐसे कैसे चलेगा ?
जब समस्याओं से निपटने के लिए तकनीकी उपलब्ध है ही तो फिर देशहित और राज्यहित में उन्हें अपना लेने में क्यों संकोच होना चाहिए ?    
     क्या देनी पड़ी थी दहेज ?-----
  बिहार में जब से दहेज विरोधी अभियान चल रहा है, वर पक्ष के कुछ व्यक्ति  सार्वजनिक रूप से  दावा कर रहे हैं कि उन्होंने दहेज नहीं ली थी।संभव है कि उनका दावा सही हो।कुछ लोग नहीं लेते।यह भी सच है।पर अधिकतर लोग लेते ही लेते हैं।पर बेहतर तो यह होगा कि बधू पक्ष के लोग स्वेच्छा से यह बात सार्वजनिक रूप से कहें कि उन्हें दहेज नहीं देनी पड़ी थी।जब वे ऐसा कहेंगे तभी  संबंधित वर पक्ष की साख बढ़ेगी।
      एक भूली बिसरी याद-----
बात तब की है कि जब मैं राजनीतिक कार्यकत्र्ता था।
पूर्व मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर ने मुझे अपना एक बयान लिख कर दिया। कहा कि यह संपादक के नाम पत्र है।सर्चलाइट के एडिटर को जाकर दे आइए।
उन दिनों सुभाष चंद्र सरकार संपादक थे।मैं उनसे मिला और कहा 
कि यह कर्पूरी जी का ‘संपादक के नाम पत्र’ है।उन्होंने मुझे बैठा लिया और कहा कि  जिन-जिन नेताओं के खिलाफ हमारे अखबार में छपा, वे सब मुझसे नाराज हो गए।पर खिलाफ लिखने पर भी कर्पूरी जी कभी नाराज नहीं हुए।मैं उनसे मिलना चाहता हूं।
आप उनसे मुझे समय दिलवा दीजिए।
 आकर मैंने कर्पूरी जी से कहा।दोनों की फोन पर बात भी हुई।दोनों मिले भी ।मुझे नहीं मालूम कि वे कहां मिले।पर जितना मैं कर्पूरी जी को जानता था,उसके अनुसार उन्होंने संपादक जी को नहीं बुलाया होगा बल्कि वे खुद ही उनके घर चले गए होंगे।
  खैर जो ‘संपादक के नाम पत्र’  मैं सरकार साहब को दे आया था,वह बयान के रूप मंें  दूसरे दिन सर्चलाइट के पहले पेज पर छपा ।
    यानी पहले के कई बड़े नेता किसी अखबार में संपादक के नाम पत्र छप जाने पर ही  संतुष्ट हो जाते थे।पर, आज  ?
अज्ञेय के संपादकत्व वाले साप्ताहिक ‘दिनमान’ में मैंने पूर्व गवर्नर जनरल राज गोपालाचारी जैसे बड़े नेताओं के विचार ‘मत सम्मत’ कालम में छपे देखे थे।
और अंत में----
सिंगापुर के पूर्व प्रधान मंत्री ली कुआन यू के 2015 में निधन के बाद मशहूर कूटनीतिज्ञ हेनरी किसिंजर ने कहा था कि ‘ली और उनके सहयोगियों ने अपने देश के लोगों की प्रति व्यक्ति आय ,जो आजादी के बाद 1965 में 5 सौ डालर थी ,को वत्र्तमान में 55 हजार डाॅलर तक पहुंचा दिया।
एक पीढ़ी की अवधि में सिंगापुर एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र ,दक्षिण पूर्व एशिया का प्रमुख बौद्धिक महा नगर, क्षेत्र के बड़े अस्पतालों का स्थान और अंतरराष्ट्रीय मामलों से संबद्ध सम्मेलनों की पसंदीदा जगह बन गया।’
   कुछ अन्य राजनीतिक विचारकों ने तब कहा था कि सिंगापुर की प्रगति को  देख कर यह तर्क गलत साबित हो गया है कि सिर्फ कम्युनिस्ट तानाशाही वाले देश में ही तेज विकास संभव है।पर भारत  ली कुआन से भी कुछ नहीं सीख सका।
@ 24 नवंबर 2017 के प्रभात खबर --बिहार-में प्रकाशित मेरे काॅलम कानोंकान से@ 
  



    
   

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